नेपाल के प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली की सरकार की अनुशंसा पर राष्ट्रपति बिद्या भण्डारी ने वहां की संसद, राष्ट्रीय पंचायत के निर्वाचित सदन को भंग कर मध्यावधि चुनाव कराने का आदेश दे दिया है. ओली सरकार को दिसम्बर 2017 में हुए पिछले चुनाव में गठित इस सदन में दो तिहाई बहुमत का समर्थन हासिल था.यह लोकतांत्रिक नेपाल में अपनी ही सरकार को गिराने का पहला मौका है.
पडोसी देश भारत के बिहार राज्य में 2017 में नीतीश कुमार ने भी खुद अपनी सरकार गिरा दी थी लेकिन नेपाल का मामला कुछ जटिल है. वहां की सरकार आसानी से चल रही थी पर बताया जाता है ओली जी ऐसा लगा कि सत्ताधारी खेमा के अन्य गुट के कुछ नेता उनकी कुर्सी हिला सकते है. जाहिर है उन्हे सदन में अपनी सरकार को हासिल बहुमत समर्थन बने रहने का आत्मविश्वास नहीं रहा. इसलिए उन्होंने संसद ही भंग कर मध्यावधि चुनाव कराने का कदम उठा लिया. उन्होने अपने विरोधियों को सियासी शतरंज की बिसात पर चौंका देने वाली यह चाल चल दी. शतरंज की भाषा में इसे *किंग्स गैंबिट* कह सकते हैं. सरल भाषा में कहें तो ओली जी ने खुद को दांव पर लगा दिया है.
इस चाल के विरोध में ओली मंत्रिमंडल के सात मंत्रियों ने इस्तीफा दे दिया है. उन्होने कहा कि संसद भंग करना पिछले चुनाव में मिले जनादेश के खिलाफ़ और अलोकतांत्रिक कदम है. उन्होने दावा किया कि ओली जी का यह कदम असंवैधानिक भी है. इससे भारत और चीन के बीच फैले नेपाल में राजनीतिक स्थिरता को गंभीर खतरा पैदा हो गया है.
आत्मघाती कदम या कुछ और
नेपाल मामलों पर अरसे से नज़र रखने वाले भारत के वरिष्ठ पत्रकार लेखक आनन्द स्वरूप वर्मा इसे ओली जी का आत्मघाती कदम मानते है. उन्होंने फेसबुक पर अति-संक्षिप्त पोस्ट में कहा : ओली के इस आत्मघाती कदम का विश्लेषण जल्दी ही सामने आएगा.
नेपाल मामलों पर हम भी लगातार नज़र रखे हुए हैं और हर बरस वहां के विभिन्न भागों का चक्कर लगाते रहे हैं. हम विभिन्न समाचार माध्यमों के लिए नेपाल पर 1980 के दशक से लिखते भी रहे हैं. पुराने आलेख पलटने पर ये बात साफ हो जाती है कि नेपाल की सियासत में भारत और चीन दोनों का ही लगभग बराबर का हित निहित रहा है और नेपाल में दोनो के एजेंट भी हैं.
नेपाल के पिछले चुनाव के अर्थ
नेपाल में अभी तक क्रान्ति नहीं हुई है. बेशक क्रान्ति की पक्षधर कम्म्युनिस्ट पार्टियां, इंडिया दैट इज़ भारत और पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना से घिरे इस हिमालयी नवोदित सम्प्रभुता सम्पन्न लोकतांत्रिक सेक्युलर गणराज्य में चुनाव जीत उसकी राजसत्ता पर काबिज होती रही हैं. उन्हें दिसम्बर 2017 के पिछले चुनाव में वहाँ की संसद , राष्ट्रीय पंचायत के भारत के लोकसभा की तरह के निम्न सदन, प्रतिनिधि सभा की कुल 275 सीटों में स्पष्ट बहुमत से भी ज्यादा दो-तिहाई सदस्यो का समर्थन बहुमत हासिल हो गया था.
नेपाल के नये संविधान के तहत प्रतिनिधि सभा की 165 सीटों के लिए प्रत्यक्ष रूप से और शेष 110 के वास्ते अप्रत्यक्ष तौर पर समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली ( लिस्ट सिस्ट्म) से चुनाव होते हैं.
बाबूराम भटटराई
यह सिस्टम भारत को भी अभीतक नसीब नहीं हुआ है. नया संविधान बनाने की ड्राफ्टिंग कमेटी के प्रमुख वहां 2011 से 2013 तक प्रधानमंत्री रहे बाबूराम भटटराई थे. वे मूलतः कम्युनिस्ट हैं.वे भारत में कम्युनिस्ट गढ़ माने जाने वाले जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय ( जेएनयू ), नई दिल्ली के पूर्व छात्र हैं. उन्होने जेएनयू के ही सेंटर फोर रिजन डेवलपमेंट स्ट्दीज (सीएसआरडी) से पीएचडी की है. वह प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत की पहली राजकीय यात्रा में शिक्षकों और छात्रों से मिलने जेएनयू गये थे.
तब उन्होने दक्षिण अफ्रीका के दिवंगत पूर्व राष्ट्पति नेल्सन मंडेला की तरह ही डाक्टर बाबासाहब भीमराव आम्बेडकर रचित भारत के संविधान को प्रेरक बताया था. पर ये भी कहा था कि नेपाल का नया संविधान भारत के संविधान से भी बेह्तर साबित होगा. वह भारत में मोदी सरकार के गठन तक पुष्पकमल दहाल ‘ प्रचंड’ के नेतृत्व वाली माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी के साथ थे. बाद में उन्होंने अलग *नया शक्ति पार्टी* बना ली. उसकी ओर से वह पिछले चुनाव में जीते भी. नेपाल के संविधान में संसदीय चुनाव में लिस्ट सिस्ट्म अपनाने के लाभ डाक्टर भट्टराई के दावे की तस्दीक करते हैं.
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी ( भाजपा ) के शीर्ष नेता रहे पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृश्न आडवाणी भारत के चुनाव में लिस्ट सिस्टम अपनाने के समर्थक थे ताकि राजकाज चलाने में समाज के सभी तबको का समुचित प्रतिनिधित्व सुनिस्चित किया जा सके. लेकिन आड्वाणी जी की चाहत खयाली पुलाव रह गई. भाजपा नेतृत्व वाली किसी सरकार ने इस सिस्ट्म का श्रीगणेश करने कभी कुछ ठोस नहीं किया.
नेपाल के पिछले चुनाव में लिस्ट सिस्टम के जरिये अप्रत्यक्ष चुनाव के भी परिणाम कुछ विलम्ब से आ जाने पर कम्युनिसटो की ताकत संसद में और बढ गई.कम्युनिस्ट पार्टियां ने प्रत्यक्ष चुनाव की 165 सीटों में से 116 जीती.
भारत समर्थक मानी जानी वाली नेपाली कांग्रेस ने सबसे ज्यादा 153 उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतारे थे. मगर उसके खाते में 22 सीटें ही गयी. यह चुनाव नेपाली कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और चार बार प्रधनमंत्री रहे शेर बहादुर देउबा की सरकार के कार्यकाल में हुआ था. पूर्ववर्ती राजशाही समर्थक और हिन्दूराष्ट्र हिमायती ‘ राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी ‘ को सिर्फ एकसीट मिली.
पहली बार साथ मिल कर चुनाव लड़ने वाली नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत मार्क्सवादी लेनिनवादी-एमाले ) ने 103 सीटों परप्रत्याशी खड़े कर 80 जीती. उसकी सहयोगी नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी ( माओइस्ट सेंटर ) ने 60 सीटों पर चुनाव लड़ 36 सीट जीती थी.
नेपाल के सात प्रांतीय सभाओं के भी साथ हुए चुनाव में छह में कम्युनिस्ट पार्टियों का ही परचम लहराया. पूर्व प्रधानमन्त्री और नेकपा ( एमाले ) नेता के पी ओली एक बार फिर प्रधानमंत्री बने. उनकी पिछली सरकार, नेपाली कांग्रेस और माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी की समर्थन वापसी के कारण जुलाई 2016 में गिर गई थी. इसके बाद नेपाली कांग्रेस के समर्थन से माओवादी कम्मुनिस्ट पार्टी नेता पुष्पकमल दहाल ‘ प्रचंड ‘ ने सरकार बनाई जो पहले भी राजसत्ता की कमान संभाल चुके थे।
हमने मीडिया विजिल और अन्य समाचार माध्यमो पर लिखा था कि नेपाल चुनाव के परिणाम के आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव ही नहीं उनके सामरिक और वैश्विक अर्थ पूरी तरह खुलने में समय लगेगा. संविधान बदलने या फिर उसमें व्यापक संशोधन लाने से ही कम्युनिस्ट नेपाल में क्रांति लाने में सफल नहीं हो पाएंगे. यह अर्थ समझने में नेपाली अवाम के साथ ही भारत और चीन की भी उत्सुकता स्वाभाविक रही.
यह स्पष्ट करना जरुरी है कि क्म्युनिस्टों के लोकतांत्रिक रूप से चुनाव जीत कर सत्ता में आने का ना तो नेपाल और ना ही शेष विश्व में यह पहला अवसर था. विश्व में लोकतांत्रिक चुनाव जीत कर पहली कम्म्युनिस्ट सरकार 1945 में इटली के निकटवर्ती नगर-राज्य , सान मारिओ गणराज्य में बनी थी. फिर भारत के केरल राज्य में 1957 में बनी जिसके मुख्यमंत्री ईएमएस नम्बूदरीपाद थे. वह भारत की कम्युनिस्ट पार्टी और उससे विभाजित मार्क्सवादी कम्मुनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के नेता रहे. वह 1998 में दिवंगत हो चुके हैं। भारत की आज़ादी के बाद वह किसी भी प्रांत की पहली गैर-कांग्रेस सरकार थी. लेकिन वह टिक नहीं सकी. नम्बूदरीपाद सरकार को भारत की केंद्रीय सत्ता की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने दो ही बरस में बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगा दिया। पर ईएमएस ने 1967 में फिर लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित कम्युनिस्ट सरकार बनाई.
नेपाल में माओवादी
माओवादी, नेपाल में पहली बार 2006 में और फिर 2007 में भी सांझा सरकार में शामिल हुए. उन्होने कुछेक बार खुद भी सत्ता की कमान संभाली है. एमाले भी कई बार सत्ता का स्वाद चख चुकी है. लेकिन पिछले चुनाव से पहली बार कम्युनिस्ट पूरे दम -ख़म से सत्ता में आये. नेपाल की सभी प्रमुख कम्मुनिस्ट पार्टियों ने 2017 का संसदीय और प्रांतीय चुनाव भी साथ मिलकर चुनाव लड़ा था। कम्युनिस्ट 2005 में बने मौजूदा संविधान को प्रतिनिधि सभा में हासिल दो-तिहाई बहुमत की बदौलत पलट सकते थे जिसके तहत यह पहला चुनाव था। इसके पहले के चुनाव अंतरिम संविधान के तहत हुए थे, जो कम्म्युनिस्टों और गैर कम्म्युनिस्टों ने राजशाही खत्म कर लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था कायम करने साथ मिल कर बनाया था. नया संविधान भी दोनों के मिलकर बनाने से ही कायम हो सका।
नेपाल धर्मनिरपेक्ष गणराज्य
नए संविधान के तहत नेपाल ‘ हिन्दू राष्ट्र‘ नहीं रहा. उसे धर्मनिरपेक्ष गणराज्य घोषित कर दिया गया। इस कारण मोदी सरकार नाराज़ हो गई. उसने नेपाल की अघोषित आर्थिक नाकाबंदी कर दी. इसकी वजह से नेपाल में पेट्रोलियम पदार्थ, अन्य आवश्यक वस्तुओ और दवा तक की आपूर्ति बहुत समय तक ठप रही. मोदी सरकार ने आपूर्ति में बाधा का कारण भारत की सीमा से लगे तराई क्षेत्रों में बसे भारतीय मूल के मधेशी कहे जाने वाले नागरिकों का अपने राजनीतिक प्रतिनिधित्व में बढोतरी के लिए चलाया उग्र आंदोलन बताया था. नेपाली अवाम इस नाकाबंदी से आक्रोश में रही. उसने इसके लिए मोदी सरकार और भारत समर्थक मानी जाने वाली नेपाली कांग्रेस को भी जिम्मेववार माना।
इस नाकाबंदी से निपटने तत्कालीन प्रधानमन्त्री ओली ने चीन से मदद हासिल की. इस पर मोदी सरकार ने नेपाल को चीन के पाले में जाने से रोकने के लिए अघोषित नाकाबंदी खत्म कर दी. लेकिन नेपाली लोगों के बीच नाकाबंदी की पीड़ा की याद बनी रही. इसका खामियाजा पिछले चुनाव में नेपाली कांग्रेस को उठाना पड़ा. नेपाली कांग्रेस ने प्रचंड से हाथ मिला कर ओली सरकार गिरा दी थी. ओली कहते रहे हैं कि वह और उनकी सरकार भारत और चीन से सम्बन्ध बेहतर बनाने के लिए कार्य करेगी.
प्रधानमन्त्री रह चुके एमाले के वरिष्ठ नेता माधव कुमार नेपाल भी पिछली बार चुनाव जीते थे. उनकी राजनीतिक आकांक्षा सर्वविदित है। इसकी गारंटी नहीं है कि दो बार , 2008 से 2009 और फिर 2016 से 2017 तक प्रधानमन्त्री रहे श्री प्रचंड , श्री ओली का साथ अगले चुनाव तक बनाये रखेंगे।
बहरहाल देखना यह है नेपाल में कम्युनिस्ट गुटो की रस्साकसी आगत चुनाव में क्या गुल खिलाती है.
*मीडिया हल्कों में सीपी के नाम से मशहूर चंद्र प्रकाश झा 40 बरस से पत्रकारिता में हैं और 12 राज्यों से चुनावी खबरें, रिपोर्ट, विश्लेषण के साथ-साथ महत्वपूर्ण तस्वीरें भी जनता के सामने लाने का अनुभव रखते हैं।