पुण्य प्रसून वाजपेयी
मौजूदा वक्त में जिन हालात से भारतीय मीडिया दो चार हो रहा है या फिर पत्रकारो के सामने जो संकट है, उस परिपेक्ष्य में अमेरिकी मीडिया का ट्रंप की सत्ता से टकराना दुनिया के दो लोकतांत्रिक देशो की दो कहानियाँ सामने लाता है। और दोनो ही दिलचस्प हैं, क्योकि दुनिया के सबसे पुराने लोकतांत्रिक देश अमेरिका के राष्ट्रपति मीडिया के सामने खुले तौर पर आने से कतराते नहीं हैं। पर दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश भारत के प्रधानमंत्री मीडिया के सामने सवालो के जवाब देने से घबराते हैं। वे अपनी पंसद के पत्रकार या मीडिया हाउस को अपनी चौखट पर बुलाकर किस्सागोई करते है और इंटरव्यू के तौर पर देश उसे सुनता है, पढ़ता है। अमेरिका का मीडिया हाउस राजनीतिक सत्ता के प्रचार प्रसार का हिस्सा नहीं बनता। लेकिन भारत का मीडिया सत्ता के प्रचार प्रसार को ही खबर बना देता है। अमेरिकी मीडिया लोकतंत्र की उस साख को सत्ता से ज्यादा महत्व देता है जो हक उसे संविधान से मिले हैं। भारत का मीडिया संवैधानिक संस्थाओ को सत्ता की अंगुलियो पर नाचते देख ताली बजाने से नहीं चूकता। तो लोकतंत्र की दो परिभाषाओं के अक्स तले भारतीय मीडिया के रेंगने की कहानी भी है और अमेरिकी मीडिया की सत्ता से टकराने की दास्तान भी ।
दरअसल भारतीय लोकतंत्रिक माहौल में हर कोई इसे अजूबा मान रहा है कि आखिर सीएनएन ने अमेरिका राष्ट्रपति और व्हाइट हाउस प्रशासन के खिलाफ ये केस दर्ज कैसे कर दिया कि सीएनएन के पत्रकार जिम एगोस्टा के संवैधानिक अधिकारो का हनन किया जा रहा है। क्या वाकई किसी पत्रकार के संवैधानिक अधिकार भी होते हैं और क्या वाकई अगर भारत में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी किसी पत्रकार के सवाल से उलझ जायें या गुस्से में आ जायें और पीएमओ उसके एक्रिडियेशन (मान्यता) को कैंसल कर दे, तो उसका मीडिया हाउस ये सवाल उठा दे कि ये तो प्रेस की स्वतंत्रता पर हमला है, या फिर पत्रकार के संवैधानिक अधिकारो की ही हनन है। ये कल्पना के परे है कि भारत में ऐसा हो सकता है। लेकिन अमेरिका में तो बकायदा न्यूज नेटवर्क ने मुकदमें की घोषणा करते हुए कहा, ‘प्रेस डॉक्यूमेंट्स को गलत तरीके से निरस्त करना प्रेस की स्वतंत्रता के सीएनएन और एकोस्टा के प्रथम संशोधन अधिकार और नियत प्रक्रिया के पांचवें संशोधन अधिकार का उल्लंघन है।’
जाहिर है ये सवाल भारत में ‘प्रेस काउसिंल’ या ‘एडिटर गिल्ड आफ इंडिया’ या ‘नेशनल ब्राडकास्टिंग आफ इंडिया’ से भी पूछा जा सकता है कि भारत में ये क्यो संभव नहीं है? पर भारत के हालात बताते है कि पूछना तो दूर, सत्ता के फैसले को संवैधानिक दायरे में मीडिया ही सही ठहराने में इस तरह लग सकता है कि खबर यही बने कि जनता द्वारा चुनी हुई राजनीतिक सत्ता से कोई पत्रकार या मीडिया हाउस कैसे सवाल कर सकता है? लेकिन दूसरी तरफ अमेरिकी न्यू नेटवर्क का तो कहना है, ‘हमने अदालत से आदेश पर तत्काल रोक लगाने और पत्रकार जिम का पास लौटाने का आग्रह किया है और हम इस प्रक्रिया के तहत स्थायी राहत मांगेंगे।’ न्यूज नेटवर्क ने यह भी कहा, ‘अगर चुनौती नहीं दी जाती तो व्हाइट हाउस की कार्रवाई से निर्वाचित अधिकारियों की कवरेज करने वाले किसी पत्रकार के लिए घातक प्रभाव दिखाई देते।’
तो लोकतंत्र का तकाज़ा है कि लोकतंत्र संविधान पर टिका है। और संविधान से मिले अधिकारों को छीनने का हक चुनी हुई सत्ता को भी नहीं है। इसलिये सिर्फ सीएनएन ही नहीं बल्कि ‘व्हाइट हाउस कॉरेस्पान्डेंट एसोसिएशन’ ने भी सीएनएन के मुकदमें का स्वागत किया और कहा कि व्हाइट हाउस परिसर तक पहुँच को रोकना घटनाओं पर अनुचित फीडबैक के बराबर है। व्हाइट हाउस कवर करने वाले संवाददाताओं के संगठन ने साफ़ कहा, ‘हम प्रशासन से फैसला पलटने और सीएनएन के पत्रकार की पूर्ण बहाली का लगातार आग्रह करते हैं।’
ये भारत में क्यो संभव नहीं है, ये सवाल तो है ही। क्योकि भारत में न तो आपातकाल लगा है जहाँ संविधान से मिलने वाले अधिकार सस्पेंड कर दिये गये हों, और न ही संवैधानिक अधिकारों के हनन पर सुप्रीम कोर्ट या अन्य संवैधानिक संस्थाओं के सवाल उठाने पर रोक है। अमेरिका की तर्ज पर लोकतंत्र का मिजाज वही है। संविधान से मिलने वाले नागरिक अधिकार वही हैं। और प्रेस की स्वतंत्रता से जुडे सवाल भी वही हैं। लेकिन भारत में फिर ऐसा क्या है कि राजनीतिक सत्ता की मुठ्ठी में संविधान कैद हो गया है। किसी भी संवैधानिक संस्था की स्वतंत्रता को लेकर हर मोड़ पर सवाल हैं क्योकि ऐसा कोई कार्य या ऐसा कोई फैसला आता ही नहीं, या होता ही नहीं जो सत्तानुकुल न हो। सीएजी को दर्जन भर नौकरशाह पत्र लिख पूछते हैं कि राफेल की कीमत को लेकर उसका अध्धयन क्या कहता है, बताया क्यो नहीं जा रहा है? सीबीआई, सीवीसी, ईडी ही नहीं बल्कि सुप्रीम कोर्ट तक के निर्देश सत्तानुकुल लगते हैं या सत्तानुकुल नहीं होते तो संस्था के मुखिया पर सत्ता की गाज गिरती है या सत्ता ही खुद को उस संस्था का सर्वोसर्वा मान लेती है या फिर बना लेती है। और इस कड़ी में मीडिया तो लोकतंत्र का चौथा खम्भा होता है। तो पहले तीन खम्भे ही जब सत्ता संभालने का काम करने लगें तो चौथे खम्भे की क्या हैसियत हो जाती है या क्या साख बना दी गई है ये कई उदाहरणों से समझा जा सकता है।
मसलन भारत में न्यूज चैनलों का रुतबा खासा बढा है। उसका असर। उसका विस्तार। उसकी पहुँच। और उसके संवाद बनाने की क्षमता ने राजनीतिक सत्ता को साफ तौर पर समझा दिया है कि चैनल मीडिया पर नकेल कसने से सत्तानुकुल राजनीतिक नैरेटिव बनाया जा सकता है। और इस राजनीतिक नैरेटिव को न्यूज चैनलो को चलाने वाले मीडिया हाउस मान चुके हैं कि वह लोकतंत्र के चौथे खम्भे नही बल्कि एक बिजनेस कर रहे हैं जिसका लक्ष्य मुनाफा बनाना है। और मुनाफे के मीडिया बिजनेस को मुनाफा देने की स्थिति में सत्ता से बेहतर और कौन हो सकता है! तो लोकतंत्र में संवैधानिक अधिकारो के हनन का सवाल किस मीडिया हाउस को दिखायी देगा? या फिर दिखायी देगा तो भी वह उस अधिकार को मुनाफे में क्यो नहीं बदलेगा? यानी संवैधानिक हनन की खबरों के एवज में सत्ता से मुनाफा लेकर या तो खामोश हो जायेगा या फिर संवैधिनिक हनन को ही गलत ठहरा देगा!
फिर भारत में तो संविधान से मिलने वाले अधिकारों के हनन की लकीर इतनी मोटी है कि कोई भी मीडिया हाउस, कहीं से भी आवाज उठा सकता है, और सत्ता से ये सवाल कर सकता है कि आखिर उसका काम क्या है अगर वह संविधान से मिले जीने के अधिकार, शिक्षा के अधिकार, हेल्थ स्रविस के अधिकार ही नहीं बल्कि साफ पानी पीने तक के हालात नहीं बना पायी। वह पूछ सकता है कि न्यूनतम की लड़ाई में फंसे देश में सत्ता तीन हजार करोड़ की सरदार पटेल की प्रतिमा कैसे बना सकती है, जबकि यह धन टैक्स पेयर का है। जाहिर है मीडिया इन सवालो को उठाये ये संपादकिय सोच हो सकती है लेकिन खुले तौर पर जो मीडिया हाउस सत्ता के साथ हो कि उसका मुनाफा बढ़े तो फिर सवाल कैसे होगा। जो सत्ता को लेकर जरा भी आलोचनात्मक हो या कहें सत्ता की नीतियो की रियलटी चेक करने की हिम्मत ही दिखाये, उस मीडिया हाउस से धमकी या मुनाफे के नाम पर सौदेबाजी करने का खुला खेल जब होने लगे तो क्या किसी पत्रकार के अधिकारो का बात वाकई कोई करेगा? या फिर मीडिया हाउस के दफ्तरों में, या संपादको के घर पर छापे मारने की प्रक्रिया इस रुप में अपनायी जाये कि सत्ता के साथ खड़े मीडिया हाउस, छापा मारा गया, ये तो जोर शोर से बतायें लेकिन छापा बिना किसी आधार के मारा गया या छापा मारने पर भी कुछ नहीं निकला, इसे बताने के बदले खामोशी बरत लें, तो ये कहा जा सकता है कि लोकतंत्र को हड़प कर सत्ता ने मनमानी करने का अधिकार पा लिया है।
यानी अमेरिकी लोकतंत्र और भारतीय लोकतंत्र को एक तराजू पर तौला नहीं जा सकता। क्योंकि अमेरिका में खुद को फोर्थ स्टेट बताते हुये मीडिया संवैधानिक हक के लिये संघर्ष करने को तैयार है लेकिन भारत में लोकतंत्र को सत्ता की मनमर्जी पर सौंप मीडिया मुनाफे के लिये संविधानिक हक को भूलने के लिये तैयार है। दुनिया के सबसे रईस देश अमेरिका का सच ये भी है कि मीडिया वहाँ पूंजी या मुनाफे पर नहीं टिका है, लेकिन भारत में पूंजी और मुनाफा दोनो ही सत्ता ही उपलब्ध कराती है। मीडिया बिनजेस माडल में तब्दील हो चुका है। न्यूज चैनलों के लिये टीआरपी से विज्ञापनों की कुल कमाई दो हजार करोड़ की है लेकिन राजनीतिक प्रसार प्रसार से कुल कमाई बीस से तीस हजार करोड से ज्यादा की है ।
संयोग देखिये, दुनिया के सबसे पुराने लोकतांत्रिक देश में सीएनएन का संवाददाता अमेरिका की तरफ बढते प्रवासियो के कारंवा पर अमेरिका राष्ट्रपति की राय जानने के लिये सवाल करता है और भारत में असम के लाखो लोगो को एक रात में प्रवासी बना दिया जाता है और प्रधानमंत्री मोदी से कोई सवाल तक नहीं करता।
लेखक मशहूर टी.वी.पत्रकार हैं।