“मोदी जी हमारे बच्चों की वैक्सीन विदेश क्यों भेज दिया” – पूछने पर सरकारी संपत्ति खराब करने का मामला बना कर नौ लोगों को गिरफ्तार करने की खबर आज बाकी अखबारों में पहले पन्ने पर नहीं है। इंडियन एक्सप्रेस ने इसे सवाल पूछने वालों को डराने के अंदाज में छापा है जबकि बताया यह जाना चाहिए कि सरकार की ओर से इसका क्या जवाब दिया गया या नहीं दिया गया और अगर नहीं दिया गया तो सवाल कैसा है। निराधार, कार्रवाई योग्य या कुछ दम है। कायदे से अखबार को ऐसे मामले में स्टैंड लेना चाहिए और कहना चाहिए कि जवाब मत दीजिए पर कार्रवाई अनुचित है (अगर उचित हो तो वही बताना चाहिए) पर जर्नलिज्म ऑफ करेज का आजकल यही हाल है। दुर्भाग्य यह कि अच्छी पत्रकारिता का पुरस्कार यही मीडिया संस्थान देता है। और इमरजेंसी में सरकार के खिलाफ डटे रहने के लिए जाना जाता है।
हेडलाइन मैनेजमेंट के तहत खबरों से टीके की समस्या खत्म – जैसा माहौल बनाने की कोशिश के बाद आज यह बताने की कोशिश की गई है कि मामला नियंत्रण में है। कम हो रहा है। भारत लड़ेगा और जीतेगा (इंडियन एक्सप्रेस), दिल्ली में पहली बार 10 हजार से कम मामले हुए (हिन्दुस्तान टाइम्स और टाइम्स ऑफ इंडिया)। पांच में से तीन अखबारों ने सीधे-सीधे इन सकारात्मक खबरों को पहली या सबसे महत्वपूर्ण खबर माना है। द हिन्दू ने इसी खबर का शीर्षक लगाया है, “मामले एक महीने में सबसे कम, युद्ध खत्म नहीं हुआ केजरीवाल।” साफ है कि यह खुशी मनाने या युद्ध जीत लेने जैसा दावा करने का समय नहीं है। पर सब ठीक हो गया जैसा भाव बनाना हो तो ऐसे शीर्षक नहीं लगाए जा सकते हैं। इन्हीं अखबारों ने आज पहले पन्ने की अपनी जिन खबरों को इस सकारात्मक खबर से कम महत्वपूर्ण माना है उनमें कुछ प्रमुख शीर्षक इस प्रकार हैं।
- गोवा के अस्पताल ने चार दिन में 75 मौत की रिपोर्ट दी। यही खबर हिन्दुस्तान टाइम्स में सिंगल कॉलम के शीर्षक से है। शीर्षक है, ऑक्सीजन आपूर्ति के मुद्दों के बीच गोवा अस्पताल में 13 और मौतें। इसी खबर का इंडियन एक्सप्रेस का शीर्षक है, 13 और मरे, गोवा अस्पताल ने कहा कि उसने ऑक्सीजन का मामला ठीक कर लिया है। काश “ठीक कर लेने” के इस प्रचार के साथ यह भी बताया जाता कि इसमें 75 जानें चली गईं। पर वह सकारात्मक नहीं होता।
- उत्तर प्रदेश की जेल में तीन कैदियों की गोली मार कर हत्या। इंडियन एक्सप्रेस में इस खबर का शीर्षक ज्यादा विवरण देने वाला है पर खबर सिंगल कॉलम में छपी है, चित्रकूट जेल में भिड़ंत कैदी ने दो की हत्या की पांच को बंधक बनाया, मारा गया। उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री के पास ही जेल विभाग भी है। पुलिस अधिकारियों को तो “ठोंक दो” का अधिकार है ही, कैदी भी जेल के अंदर विरोधियों को ठोंक दे ऐसा बहुत कम होता है।
- कोविड-19 के मरीजों की सहायता करने के सवाल पर पुलिस ने युवक कांग्रेस प्रमुख से पूछताछ की। वैसे तो पूछताछ में कोई हर्ज नहीं है लेकिन शिकायत तो हो, कम से कम एफआईआर! मैंने अभी तक जितनी खबर पढ़ी है उनमें किसी एफआईआर की जानकारी नहीं है। हालांकि, दिल्ली पुलिस जिस ढंग से काम कर रही है उसमें किसकी एफआईआर है, बता देती तो उसकी छवि पुलिस जैसी बनी रहती। लेकिन इसकी परवाह किसे है। इस मुश्किल समय में राष्ट्रीय स्तर पर अगर किसी ने आम लोगों की मदद की है तो उसमें युवक कांग्रेस और उसके अध्यक्ष का नाम आएगा। उससे पूछताछ का पर्याप्त आधार होना चाहिए। बिना आधार के पूछताछ गलत हो या नहीं, समय जरूर गलत है। खुद (प्रचार छोड़कर) कुछ कर नहीं रहे जो कर रहा है उससे पूछताछ। इस पूछताछ में एक भी जान चली गई तो कौन जिम्मेदार होगा? इसलिए बेशक यह पहले पन्ने की खबर है। लेकिन नहीं के बराबर है।
- प्रधानमंत्री, टीकों के निर्यात के खिलाफ पोस्टर को लेकर दिल्ली पुलिस ने नौ लोगों को गिरफ्तार किया। यह शीर्षक इंडियन एक्सप्रेस में अकेला है। इसके साथ उपशीर्षक है, अपराध शाखा ने कोविड राहत के चेहरा, युवक कांग्रेस नेता से पूछताछ की। मुझे लगता है कि दोनों मामले बिल्कुल अलग है। इनमें एक सिर्फ दिल्ली पुलिस है और अगर एक साथ छापना ही था तो महत्वपूर्ण यह है कि इस समय युवक कांग्रेस अध्यक्ष से किस बात के लिए पूछताछ की जा रही है। दूसरी खबर इसके साथ यह सूचना हो सकती थी युवक कांग्रेस अध्यक्ष तो कुछ कर रहे थे, पोस्टर लगाने भर से नौ लोग गिरफ्तार हो गए। यह खबर अपनी इस प्रस्तुति से डराती है जबकि नागरिकों का अधिकार है प्रश्न पूछना। जो व्यक्ति चिट्ठी का जवाब नहीं देता, प्रेस कांफ्रेंस नहीं करता उससे अगर कुछ पूछना हो तो नागरिक क्या करे? पहले संपादक के नाम पत्र लिखने से काम हो जाता था। पर अबके तो संपादक ही नागरिक अधिकारों को कम करने की बात कर रहे हैं।
ऐसे में निश्चित रूप से यह एक तरीका है। लेकिन गिरफ्तारी और उसकी खबर यह तरीका अपनाने वाले को डराना है। और इस गिरफ्तारी की खबर को ऐसे छापना नागरिकों का नहीं, गिरफ्तार करने वालों का साथ देना है। इसमें मूल बात यह है कि पोस्टर लगाकर पूछा गया था, “मोदी जी हमारे बच्चों की वैक्सीन विदेश क्यों भेज दिया”। चूंकि यह गैर कानूनी नहीं है, इसलिए सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने का मामला बनाया गया है। यह कानून का सरासर दुरुपयोग है क्योंकि पोस्टर जैसे लगे दिख रहे हैं, हटाए जा सकते हैं और कायदे से मोदी जी या सरकार की तरफ से कोई भी जवाब देकर इसे हटाने के लिए कह सकता था। नहीं हटाने पर कार्रवाई होती तो अलग बात थी। हालांकि सार्वजनिक संपत्ति का नुकसान तब भी नहीं है। बदसूरत होने का मामला हो सकता है। तरीका यही होना चाहिए।
- टाइम्स ऑफ इंडिया में पहले पन्ने पर डबल कॉलम की एक खबर के शीर्षक का हिन्दी अनुवाद कुछ इस तरह होगा, “मेरे देशवासियों को जो नुकसान होता है उनमें से हरेक को मैं महसूस करता हूं : प्रधानमंत्री”। खबर के साथ उनकी फोटो और एक पैराग्राफ हाइलाइट किया हुआ है। यह कुछ इस तरह है, “सभी सरकारी विभाग महामारी से अपनी पूरी क्षमता के अनुसार लड़ रहे हैं। देश की तकलीफ कम करने के लिए दिन रात काम कर रहे हैं …. भारत ऐसा देश नहीं है जो मुश्किल समय में उम्मीद छोड़ दे। मुझे यकीन है कि अपनी शक्ति और समर्पण से हम इस चुनौतियों को परास्त करेंगे।” आज की कुछ खबरों से पता चलेगा कि सरकारी विभाग किस काम में लगे या लगा दिए गए हैं। और विभाग ही क्यों पश्चिम बंगाल के राज्यपाल भी। इसके बावजूद टाइम्स ऑफ इंडिया ने इसे इतना महत्व दिया है। हिन्दुस्तान टाइम्स ने तो पहले पन्ने पर पोस्टर लगा दिया है कि खबर पेज नौ पर है। और इंडियन एक्सप्रेस में यह लीड है। सबके अपने अंदाज हैं, स्तर है।
इंडियन एक्सप्रेस बनाम द टेलीग्राफ
ऊपर, पांचवी खबर को इंडियन एक्सप्रेस ने अगर लीड बनाकर सरकार या प्रधानमंत्री की सेवा की है तो कोलकाता के अंग्रेजी दैनिक, द टेलीग्राफ ने इस सूचना या शीर्षक के बाद अपने अंदाज में सवाल किया है, अगर आप इसे तकलीफ कहते हैं तो यह क्या है। दोनों तस्वीरें देखिए और समझिए कि पत्रकारिता ऐसे भी होती है और दीवार पर पोस्टर लगाकर सवाल पूछने के लिए भले कानून का दुरुपयोग कर मुकदमे दर्ज कर लिए जाएं पर अखबारों या संपादकों के खिलाफ ऐसा नहीं हो सकता है। नहीं हो रहा है। फिर भी संपादक डरे हुए हैं कि टाइम्स ऑफ इंडिया ने जग सुरैया का कॉलम छापने से मना कर दिया। यह एक काल्पनिक वार्तालाप है जिसका शीर्षक है, “सर्वोच्च नेता और उसके सर्वोच्च साइड किक के बीच वार्तालाप”।
दूसरी ओर टाइम्स ऑफ इंडिया सर्वोच्च नेता का एकतरफा बयान बगैर किसी चुनौती के छाप रहा है। कल मैंने लिखा था कि टीकों की खुराक के बीच अंतराल बढ़ाकर टीकों की कमी से निपटने की कोशिश की गई है। कायदे से इसपर खबर होनी चाहिए कि इस बारे में कब क्या कहा गया और आधार बनाया गया। लोगों ने की भी है। लेकिन बहुत कम। आज टेलीग्राफ में इस बारे में एक खबर है। इसमें बताया गया है कि भारत ने पहले ही सही अंतराल नहीं रखा था और इसमें हुई देरी महंगी है। कहने की जरूरत नहीं है कि टीके की विश्वसनीयत बनाए रकने और आम लोगों को परेशानी या तनाव से बचाने के लिए सही खबरें दी जानी चाहिए। पर वह भी शायद ही कोई अखबार कभी करता हो।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।