दिल्ली में जंग लोकशाही बनाम बाबूशाही की है !

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काॅलम Published On :


 

रामशरण जोशी

 

देश की आला  अदालत के  साफ़ फैसले  के  बावजूद  दिल्ली  की निर्वाचित  लोकप्रिय सरकार और  करियर-अधिकार  प्रिय  अफसरों के  बीच  जंग  ज़ारी है।  उम्मीद तो थी कि विगत  दिनों  सुप्रीम कोर्ट के दो टूक फैसले के बाद  निर्वाचित सरकार के  आदेशों-निर्देशों  का  परिपालन होगा। जन प्रिय योजनाओं-कार्यक्रमों को  द्वार -द्वार पहूंचाया जाएगा, लेकिन, अफसरी हठधर्मिता ने  फिर से जनादेश के  अमल के मार्ग में कानूनी नुक्ताचीनी  के कांटे  बो  दिए हैं। बहरहाल, आला अदालत ने  इस मसले पर अगले सप्ताह  सुनवाई की दरख्वास्त को स्वीकार कर लिया है,यह स्वागत योग्य है।

लोकतंत्र में  जनादेश से निर्वाचित सरकार सर्वोपरि होती है। बाबूशाही  उसके अधीन होती है। सरकार जन भावनाओं -आकंक्षाओं  का  प्रतिनिधित्व करती है। किसी भी पार्टी की  सरकार रहे, नौकरशाही की लगाम उसके पास ही रहेगी। उसे मनमानी कारने की इज़ाज़त  नहीं  दी जा सकती। यदि बेलगाम हो कर उसने काम करना शुरू किया तो निर्वाचित सरकार का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। दूसरे शब्दों में, लोकतंत्र बेअसर-बेसबब  हो जाएगा। जनता के प्रति जनप्रतिनिधियों की ज़िम्मेदारी  ख़त्म हो जायेगी। इस समय सवाल  आप पार्टी की  केजरीवाल -सरकार का है, कल  सवाल  कांग्रेस या  भाजपा का भी हो सकता है  क्योंकि वर्तमान सरकार ‘अमर’ नहीं है; 2020  के  चुनावों में यह प्रतिपक्ष में भी हो सकती है।

आज  का  अहम सवाल है लोकतंत्र की रक्षा। इसमें कोई संदेह नहीं कि आप पार्टी की सरकार सत्ता में है। तमाम कोशिशों-साजिशों के  बावजूद यह पार्टी सत्ता में बनी हुई है। याद रहे, राजधानी दिल्ली चार साल में दो -दो चुनावों को  भुगत चुकी है।  तीनों ही पार्टियाँ 2014 और 2015  के  अल्पावधि चुनावों की खिलाड़ी थीं। इस खेल में  कांग्रेस अखाड़े से बाहर हो गयी और भाजपा का कद सिकुड़ता चला गया। इसके लिए  आप सरकार ज़िम्मेदार नहीं है। दिल्ली के उपराज्यपाल  जो कि  केंद्र की  भाजपा सरकार के प्रतिनिधि हैं, निर्वाचित सरकार की उपेक्षा नहीं कर सकते।

आला अदालत के फैसले में साफ़-साफ़ कहा गया है कि  ‘पुलिस, कानून -व्यवस्था और  भूमि ‘ को छोड़ कर दिल्ली की विधानसभा सभी क्षेत्रों के लिए  कानून बनाने में सक्षम है और उपराज्यपाल  अपनी मनमानी नहीं चला सकते. सरकार की सलाह से ही काम करना होगा। इसका अर्थ यह हुआ कि  दिल्ली की ‘बॉस’ निर्वाचित सरकार है, न  कि  केंद्र द्वारा नियुक्त ‘उपराज्यपाल।’ दिल्ली की जनता स्वयं अपनी बॉस है, केंद्र द्वारा तैनात  शक्ति संपन्न  एक व्यक्ति नहीं  है। यह सच है , देश की राजधानी होने के कारण दिल्ली की स्थिति  विशेष है, राज्य होते हुए भी  ‘पूर्ण राज्य ‘ नहीं है, लेकिन  अब  दिल्ली की विधान सभा है, जिसकी  भूमिका को  नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता।

यह ठीक है कि दिल्ली में कभी महानगर परिषद् हुआ करती थी। उसके सीमित अधिकार थे। तब  मुख्यमंत्री के स्थान पर  ‘मुख्य कार्यकारी पार्षद ‘ हुआ करता था।  मंत्रियों को  ‘कार्यकारी पार्षद ‘कहा जाता था। पर आज की व्यवस्था में में स्थिति बिलकुल विपरीत है। विधानसभा ,मुख्यमंत्री और मत्री हैं जो जनता के प्रति जवाबदार हैं। इस  स्तम्भ लेखक ने छठे दशक की महानगर परिषद् और  सरकारों को काफी कवर किया है। इसलिए  अधिकारों,कार्यशैली और जन आकंक्षाओं के अंतर को  समझा जा सकता है। स्वाभाविक चिंतन का  विषय है कि यदि सरकार कोई आदेश देती है,जन कल्याणकारी योजनाओं को लागू करवाना चाहती है लेकिन कतिपय अड़ियल बाबू उसे  पटरी से उतार देते हैं,तो कौन ज़िम्मेदार होगा ? जनता किसके कान  उमेठेगी ? उपराज्यपाल और बाबू,दोनों ही सुरक्षित रहेंगे, दूसरी तरफ  जन-आक्रोश का सामना जन प्रतिनिधियों को ही करना पड़ेगा.वे ही दण्डित होंगे।

ऐसी  स्थिति में  नियुक्ति,तबादला,दण्डित करने के अधिकार से सरकार को  कैसे वंचित रखा जा सकता है ? यदि रखा जाता है तो  यह  ‘पंगु सरकार’ ही कहलाएगी। राजधानी के सवा करोड़ नागरिकों का शतप्रतिशत प्रतिनिधित्व नहीं कर सकेगी। जनता के प्रति ज़वाबदार बने, उसके प्रति न्याय करे,जन कल्याणकारी योजनाओं का लाभ जनता तक पहुंचे,इसके लिए ज़रूरी है कि निर्वाचित सरकार को  पूर्ण रूपेण सक्षम  बनाया जाए। उम्मीद की  जानी चाहिए,सुप्रीम कोर्ट का नया फैसला इसकी  ‘पंगुता ‘ को  दूर करेगा और  नागरिकों के साथ न्याय होगा।

वास्तव में, यह  लोकशाही  बनाम  बाबूशाही जंग  है। इस  जंग में  लोकशाही की  विजय को  सुनिश्चित करने से ही लोकतंत्र  व संविधान की  रक्षा -सुरक्षा होगी। यही  इस वक़्त की  अहम् चुनौती भी  है।

 

( देश के वरिष्ठ पत्रकार और लेखक रामशरण जोशी मीडिया विजिल सलहाकार मंडल के सम्मानित सदस्य हैं।)

 

तस्वीर लाइव लॉ.इन से साभार।