पहला पन्ना: 12वीं बोर्ड की परीक्षा का हाल, बैठक रक्षा मंत्री कर रहे हैं! 

संजय कुमार सिंह संजय कुमार सिंह
काॅलम Published On :


बारहवीं बोर्ड की परीक्षा इस साल मार्च में होनी थी। इसकी जानकारी पिछले साल मार्च में सबको थी। उससे पहले से थी। सरकारी तैयारियों के नाम पर यह परीक्षा मई-जून में होना निर्धारित की गई पर हो नहीं पाई। 14 महीने हो गए अभी सरकार तय नहीं कर पाई है कि परीक्षा कब कैसे होगी। दिलचस्प यह है कि इससे संबंधित मीटिंग रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह कर रहे हैं। जी हां, शिक्षा मंत्री नहीं, रक्षा मंत्री परीक्षा लेने का इंतजाम कर रहे हैं। हालांकि, युद्ध नहीं तो चिन्ता क्या? की तर्ज पर परीक्षा नहीं कराने का सुझाव नहीं माना गया है और शिक्षा मंत्री ने कहा है कि परीक्षा तो जरूरी है। इससे आप सरकार और बच्चों की हालत तो समझ ही सकते हैं। शिक्षा मंत्री के बारे में मैं कुछ नहीं कह सकता। उधर स्कूलों ने पढ़ाई ऑनलाइन कराई, जो पढ़ पाया पढ़ा, नहीं पढ़ पाया उसकी किसी ने चिन्ता नहीं की। अब ऑनलाइन बैठकों में चर्चा हो रही है कि परीक्षा ऑफलाइन ही होगी। आज कई अखबारों में 12वीं की परीक्षा से संबंधित यह खबर लीड है। परीक्षा अभी तक हुई नहीं है और सरकार की अभी तक कोई तैयारी नहीं है। ऑनलाइन पढ़ाई हुई है तो ऑनलाइन परीक्षा हो सकती है। लेकिन उसके बारे में नहीं सोचा जा रहा है क्योंकि बहुत सारे बच्चों ने ऑनलाइन पढ़ाई नहीं की। 

कहने की जरूरत नहीं है परीक्षा होनी है इसका पता तो सबको वर्षों-महीनों से था। पर तैयारी कुछ नहीं की गई। उस सरकार ने नहीं की जो चुनावी भाषण के लिए एलईडी स्क्रीन लगवा देती है। इंडियन एक्सप्रेस की खबर के अनुसार दिल्ली के शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया ने मांग की है कि परीक्षा से पहले बच्चों को टीका लगवाया जाए। दूसरे अखबारों में यह खबर नहीं है या छोटी सी है। सबको पता था कि परीक्षा होनी है – पर टीका लगवाने के बारे में किसी ने नहीं सोचा। यहां तक कि जब पोस्टर लगाकर पूछा गया कि बच्चों की वैक्सीन विदेश क्यों भेज दी तो पोस्टर चिपकाने और ऑटो वालों को गिरफ्तार कर लिया गया। दूसरी ओर, सरकार के समर्थक कहते रहे कि बच्चों के लिए तो टीका है ही नहीं। उन्हें 18 साल के बच्चे, बड़े लग रहे हैं और उनकी परीक्षा की चिन्ता नहीं है। ये तो हुई बच्चों की बात। 

आज के हिन्दू में एक खबर है, कोवैक्सिन को डब्ल्यूएचओ, ईयू की मंजूरी दिलाने के लिए जोर लगाएगा भारत। आप जानते हैं भारत में लोगों को दो कंपनियों के भारत में निर्मित और प्रचारित टीके लग रहे हैं। शुरू से सवाल रहा है कि दोनों में कोई अंतर तो नहीं है। पर इसका जवाब बहुत साफ तो नहीं लेकिन नहीं के रूप में ही आता रहा है। हालांकि एक की दो खुराक में अंतराल बढ़ना और दूसरे में नहीं बढ़ना अंतर होने का बड़ा संकेत है फिर भी चलता रहा। अब पता चल रहा है कि दो में से एक को डब्ल्यूएचओ, ईयू की मंजूरी नहीं है। ऐसे में अगर कभी-कहीं नियम बना कि कोई देश बिना टीका लगवाए दूसरे देश के नागरिकों को अपनी सीमा में नहीं घुसने देगा तो कोवैक्सिन वाले विदेश नहीं जा पाएंगे। सरकार अब सक्रिय हुई है। हालांकि, प्रधानमंत्री ने यही टीका लगवाया है। इसलिए मंजूरी मिल ही जाएगी या फिर विकल्प का पता लग जाएगा। पर प्रधानमंत्री ने वो टीका लगवाया जो डब्ल्यूएचओ से मंजूर नहीं है। तो इसके अलग मायने हैं। पर यह अलग मुद्दा है।   

 

 

बात टीके की ही नहीं, प्रमाणन की भी है। फर्जी प्रमाणपत्रों वाले देश का प्रमाणन कौन मानेगा खासकर तब जब भारत से कोविड19 मुक्त होने का प्रमाणपत्र लेकर चले लोग विदेश पहुंचने पर संक्रमित पाए गए। ऐसे एक दो नहीं सैकड़ों मामले हैं। विमान सेवाएं रद्द होती रही हैं। हाल में विदेश मंत्री को भी विदेश में क्वारंटीन कर दिया गया था। ऐसे में भरोसेमंद प्रमाणन भी जरूरी है और ऐसा नहीं है कि देश भर का टीकाकरण होने के बाद ही इस बारे में सोचा जा सकेगा। अभी उसपर भी काम नहीं हुआ है। अगर मेरी याद्दाश्त सही है तो इस संबंध में मैंने एक प्रेस विज्ञप्ति या खबर पढ़ी है और बहुत पहले पढ़ी है इसलिए ठीक से याद नहीं है। पर वह यही था कि कुछ दिनों बाद प्रमाणन की आवश्यकता होगी और सरकार को हमारी यह डिजिटल व्यवस्था मंजूर करना चाहिए। इसमें फर्जीवाड़ा नहीं हो सकता है आदि। तो ऐसा नहीं है कि इस बारे में सोचा नहीं गया, कोशिश नहीं हुई। आपदा में अवसर वालों ने ही प्रस्ताव दिया हो पर भारत सरकार ने उस दिशा में क्या किया राम जाने। इलाज के बारे में तो आप जानते ही हैं, टीके और प्रमाणन के बारे में भी कुछ नहीं सोचा गया। 

कहने की जरूरत नहीं है कि यह बहुत नीचे के स्तर पर हो सकता था और जिसका भी काम था उसे करना चाहिए था। सिस्टम ठीक काम कर रहा होता तो आज उससे पूछा जा सकता था कि क्यों नहीं हुआ। पर आप जानते हैं कि देश में काम सब अकेले प्रधानमंत्री करते हैं। और एक आदमी क्या क्या करे? हालांकि, यहीं पीएम केयर्स का ख्याल आता है। देश के हजारों ट्रस्ट बंद करवाने के बाद सरकार ने पीएम केयर्स कुछ ही दिन में बना लिया था। और उसमें पैसे इकट्ठा करने के अलावा जनहित का कोई काम सफलतापूर्वक हुआ हो इसकी जानकारी नहीं है। पहले टीके के विकास के लिए पैसे देने का प्रचार हुआ और फिर वेंटीलेटर खरीदने का। कितने खरीदे गए क्या काम हुआ वह तो छोड़िए अब पता चल रहा है कि जरूरत ऑक्सीजन की थी। और इस संकट को ठीक करने में महीना लग गया। 

टीके की ही बात करूं तो आज टाइम्स ऑफ इंडिया में खबर है, आठ करोड़ खुराक प्रतिमाह का उत्पादन हो रहा है लेकिन मई अंत तक पांच करोड़ ही दिए जाएंगे। अखबार ने लिखा है कि इसमें कुछ ऐसा रहस्य है जिसे सरकारी आंकड़ों से नहीं समझा जा सकता है। ऐसे में आप मानकर चलिए कि  अखबार समझकर बता दें इसकी उम्मीद नहीं है। टीकों का गड़बड़झाला वाकई उलझता जा रहा है। सरकार की तरफ से ना कोई संतोषजनक जवाब है ना कोई अफसोस। अगर प्रधानमंत्री के गला रुंधने को आधिकारिक प्रतिक्रिया न मानें तो। आज जब टीकाकरण इतना जरूरी है, टीका केंद्र बंद हैं तब ऐसी खबरों पर सरकार की ओर से कोई प्रतिक्रिया न आना, वाकई चौंकाता है। आखिर यह सरकार किसके लिए काम कर रही है?     

द हिन्दू में आज सिंगल कॉलम की खबर है कि देश में कोरोना से मरने वालों की संख्या तीन लाख पार कर गई। द हिन्दू में आज सिंगल कॉलम की खबर है कि देश में कोरोना से मरने वालों की संख्या तीन लाख पार कर गई। कल मैंने लिखा था कि इसपर जनसत्ता में खबर थी, आज टाइम्स ऑफ इंडिया में यह खबर लीड है। इसके अनुसार इन तीन लाख मौतों में अंतिम 50,000 मौतें सिर्फ 12 दिन में हुई हैं यानी रोज 4,000 से ज्यादा। यह गंभीर मामला है और इसपर भी विचार होना चाहिए। इससे पहले की 50,000 मौतें 30 दिन में हुई थीं। बाकी की दो लाख मौतें करीब एक साल में हुई हैं। इससे अनुमान लगता है कि स्थिति कितनी भयावह है। पर बाकी अखबारों में इसकी चर्चा पहले पन्ने पर तो नहीं है।

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।


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