[मलूका इधर बहुत बिजी रहे। मंत्रियों को चार्ज-वार्ज दिलवाना था। कश्मीर पर शाह जी का भाषण कराना था। मोदी जी से उसको ट्वीट कराना था। न शाखा बाबू के घर जा सके, न चाय की अड़ी पर और न किसी चर्चा के अड्डे पर, लिहाज़ा फाइनल एंट्री बजट के बाद और कर्नाटक के क्राइसिस के बीच हो रही है तो लीजिए]
बजट वही अब बही हो गयाss
ब्रीफकेस का बस्ता बन गयाss
सारा आंकड़ा विजन हो गयाss
टीबी पर सब नर्तन हो गयाss
नर्तन हो गया…नर्तन हो गया…नर्तन हो गया…होssss
चाय की अड़ी पर बिन बारिश के असाढ़ में पसीने से उक् बिक जनता के बीच स्थानीय कवि निठल्ला ‘लुहेड़े’ अपनी ताज़ा कविता ठेले जा रहे थे। बंगाली बाबू गमछा हौंके जा रहे थे। समाजवादी जी बेमन से अखबार पढ़े जा रहे थे। भगत सबसे बेधियान बीटेक्स मरहम के टिनहे ढक्कन से जांघ का दाद खजुआए जा रहे थे… बरसात में परेशानी बढ़ जाती है उनकी।
निठल्ला को उम्मीद थी कि जनता वाह-वाह कहेगी। मगर यहां लोग ठीक है… बढिया है… कह के चुपा गए। रही-सही कसर दुकानदार ने पूरी कर दी।
“बंगाली बाबू उ सुरदसवा याद है आपको… अरे निरमलवा… गजबे आल्हा गाता था!”
“…हं, मर गया बेचारा… डोम था… लेकिन जब गाते-गाते तउवा जाता था तो ढोलकिया लेके खड़ा हो जाता था… जइसे ढोलकिये से महबा जीत लेगा…!”
“इस्सससससस… चढ़ महबा पर बोले उदल कहो भवानी कहवां जाएं…!!”
बंगाली बाबू की आवाज़ नकल करने में खसखसा गयी। चाय की दुकान के लउंडे ने बिना मांगे उनको एक कटिंग चाय पकड़ा दी। बंगाली बाबू ने बिना पूछे ले भी ली।
“कर्नाटक में ई का शुरू हो गया हो…?” आवाज़ उट्ठी।
“का शुरू हो गया… लबड़धोंधो होना ही था…।”
“कुमारस्वमिया का सरकार जाएगा का?”
“कुमारस्वमिया का कुछ नहीं जाएगा। उसको सब पता था जो होगा ’19 के बाद होगा। जब होना ही था तो अमेरिका भी घूम आया। कुछ दिन सीएम भी रह लिया… नयी में जोगाड़ भी देख रहा है।“
बंगाली बाबू के चेहरे की प्रश्नवाचकता देख कर समाजवादी जी ने शंका समाधान किया।
“सरकार में यार!”
“नहीं, हम सोचे फेर नयी ले आया का कौनो?”
ये बात बंगाली बाबू नहीं कोई और बोला। बंगाली बाबू की मुस्कियाती आंख केवल बोलने वाले को तलाशने लगी।
समाजवादी जी ने कान पर जनेऊ चढ़ाया और मूत्र विसर्जन के लिए निकलने लगे। मौका देख कर बंगाली बाबू ने भी वायु विमोचन किया। भगत जी ने जांघिये से हाथ निकाला। दुकानदार ने अपने ही लौंडे को बेवजह दुत्कारते हुए हांक लगाई-
“आइए बाबू जी आइए… हट बे लौंडे हट!”
लौंडा और ज़ोर-ज़ोर से बेंच-कुर्सी पोंछने लगा।
शाखा बाबू के घर का विमर्श गंभीर होता है। हो भी रहा था। एक भाई जी के मन में कुछ कुलबुला रहा था।
“बजट को भारती बना दिया ई बात तो सही है।”
“भारती… अर्थात?”
एक कठिन भाई जी ने कठिन हिंदी में पूछा।
“अरे, मतलब भारतीय… मतलब खाता-बही… लाल कपड़ा में लपेट दिया… यही सब… केतना वैभवशाली लग रहा था… नहीं!”
“अच्छा-अच्छा आपका आशय ये था…।”
“हां नई तो क्या!”
“हमने सोचा आजकल कुछ समुदाय अपने आप को भारती भी लिखने लगे हैं। हालांकि इसमें कुछ ग़लत नहीं। महाकवि सुब्रम्ण्यम भारती तो हमारी प्रेरणा हैं।“
अगले का प्रश्न ही ग़ायब हो गया और वो ‘प्रेरणा’ और ‘वैभव’ में डूबने-उतराने लगा। लेकिन डूबने से पहले एक लहर आयी और मुंह से सवाल निकल ही गया।
“मगर भाई जी, बजट में पहले केतना कुछ होता था… इसको एतना दिया, इससे इतना लेंगे, वहां एतना खर्च करेंगे। इस बार कुछ पते नहीं चला।”
“अगर बता ही देते तो आप कितना समझ लेते? पहले भी कितना समझते थे? लोग बताते थे और आप सुनते थे।”
“सो तो है…।”
“तो सरकार का विजन देखिए। सारे काम सरकार पर छोड़ दीजिए। भरोसा किया है तो बैलेंस शीट पांच साल बाद बनाइएगा।”
इस जवाब के बाद शाखा बाबू की महफ़िल में सन्नाटा छा गया।
सपूत सरकारी काम से हफ़्ते भर से बाहर हैं। पतोहू के भरोसे हैं तो हर बात हुलस के मान रहे हैं। पेंशन का पैसा खुले हाथ खर्च कर रहे हैं। तरकारी हो कि रात की आइसक्रीम। हालांकि आइसक्रीम रात में कैसे खायी जाती है वो खुद नहीं जानते… आती भी है तो अपने लिए मांगते नहीं हैं।
पतोहू ने भरी महफ़िल मांग उठा दी-
“मुनवा कहत है कौनो सनीमा आयल है का तो फिफ्टीन।“
शाखा बाबू ने पूछा- “सनीमाsss….?”
भाई जी ने जोड़ा-
“हां बाबू जी, फ़िल्म लगी है आर्टिकिल 15… परिवार देखने की इच्छा रखता है संभवत:।”
दूसरे भाई जी की आंख फैल गयी।
“ऊ तो बहुत विवादित सिनेमा बता रहे हैं। वर्ण व्यवस्था को गाली दिया है। और तो और ब्राम्हणों को गाली दिया है।“
बड़े वाले भाई जी ने फिर संत मुद्रा अख्तियार कर ली-
“महाराज ये सब कहने की बात है। ऐसा कुछ भी नहीं है सिनेमा में। फिर अंत भला तो सब भला…।”
“कैसे?”
“सिर्फ सुना मत करिए देखा भी कीजिए…।”
“सरयू पारीण ब्राम्हण एक दलित कन्या का उद्धार करता है। उद्धार की प्रेरणा उसे दिल्ली में बैठे शास्त्री जी ‘कूल’ करके देते हैं। जाटव दरोगा का हौसला बढ़ाता है। ड्राइवर खुद को सारथी कहने लगता है। मतलब अंत भला तो सब भला न।”
पृष्ठभूमि से संध्या की शंखध्वनि हुई। आंगन में तुलसी के आगे दीया जल चुका था। औरत किचन में जा चुकी थी। मर्द ठेके की ओर बढ़ चला था। अंत भला तो… सब भला।