अनिल यादव
जिन दिनों ऑक्सीटोसिन का इंजेक्शन नहीं ठोंका जाता था, गाय किसानों के काम आती थी. तब उसके दूध, बछड़े और गोबर के बिना कृषि और अर्थव्यवस्था के बारे में बात करना नामुमकिन था. ट्रैक्टर और आर्थिक उदारीकरण आने के बाद वह दौर गया. अब गाय राजनीति के काम आती है. वह गरीबी, बेरोजगारी और विकास जैसी चिरकुट चीजों से बड़ा मुद्दा है इसलिए उसका जिक्र अनिवार्य है.
अगस्त, 2016 में एक टाउनहाल कार्यक्रम में प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी सोच और राजनीति के बिल्कुल उलट, एक अपवाद जैसा भाषण दिया था जिसमें उन्होंने राज्य सरकारों से दिन में गोसेवा और रात में आसामाजिक गोरखधंधे करने वाले गिरोहों का डॉजियर (कच्चा चिट्ठा) तैयार कर दंडित करने के लिए कहा था. उन्होंने कहा था, गौरक्षा के नाम पर दुकानें चलाने वालों में से अस्सी प्रतिशत इसकी ओट में ‘कुछ और’ कर रहे हैं जो देश और समाज के लिए खतरनाक है. यह दादरी में मंदिर के लाउडस्पीकर से सुनियोजित ढंग से एक घर में बीफ होने की अफवाह फैलाकर अखलाक की मॉब लिंचिंग की पहली बहुप्रचारित घटना के लगभग एक साल बाद की बात है.
इस अपवाद के कोई एक साल बाद, उन्हें गांधी के साबरमती आश्रम की सौवीं सालगिरह के मौके पर फिर से गाय के बारे में बोलने की जरूरत पड़ी क्योंकि भाजपा ही नहीं विपक्षी पार्टियों की राज्य सरकारों में से भी किसी ने गोरक्षा की आड़ में अपराध करने वालों को पुलिस सर्विलांस पर नहीं लिया, उन्हें दंडित करने के लिए कुछ नहीं किया और इस बीच में मॉब लिंचिंग की घटनाएं बहुत बढ़ गई थीं. इस बार प्रधानमंत्री मोदी ने अपने बचपन की एक कहानी सुनाई जिसमें शायद पटाखे की आवाज से घबरा कर भागी गाय के खुर से कुचल कर एक तीन साल का बच्चा मर गया था. गाय ने प्रायश्चित करने के लिए चारा-पानी छोड़ कर आत्मबलिदान किया. इस बार उन्होंने तथाकथित गौरक्षकों पर कार्रवाई के लिए नहीं कहा, उनके हृदय परिवर्तन की कोशिश करते हुए महान और करूणामयी गाय का भविष्य कानून पर छोड़ देने को कहा. यह गाय के बहाने जारी मुसलमानों की मॉब लिंचिंग पर उनका आखिरी भाषण था.
पहले भाषण के बाद गले में भगवा गमछा लटकाए कई नाराज गौरक्षक टीवी पर आए जिन्होंने कहा, मोदी गलत बोल रहे हैं, उन्हें अपना बयान वापस लेना चाहिए. दूसरे भाषण के बाद सिर्फ तालियां बजीं. कहानी गुजरात में सुनाई गई थी लेकिन तालियां देश भर में बजती रहीं.
जिन दिनों मॉब लिंचिंग की घटनाओं की शुरुआत हुई थी, मोदी सरकार की हर विफलता की जिम्मेदार कांग्रेस थी. तीन साल तक ऊपर के ढाई नेता, कांग्रेस के सत्तर साल के कुशासन, वंशवाद, भ्रष्टाचार पर संसदीय भाषा में खीझ उतारते थे और नीचे ट्रालों और व्हाटसैप यूनिवर्सिटी के तालिबानों की अक्षौहिणी सेना नेहरू, सोनिया, राहुल की फोटोशॉप तस्वीरों के साथ गाली गलौज शुरू कर देती थी. इस बीच किसानों की जमीने हड़पने वाले, गांधी परिवार के दामाद राबर्ट वाड्रा को जेल भेजने का वादा सुविधाजनक ढंग से भुला दिया जाता था. अब चुनाव से सिर्फ आठ महीने दूर खड़ी सरकार के आखिरी साल में एक नया काल्पनिक शत्रु ‘अर्बन नक्सली’ पैदा किया गया है जो प्रधानमंत्री की हत्या करना चाहता है और हथियार बंद लोगों को देश में अराजकता फैलाने के लिए उकसा कर अपना रूटीन काम तो कर ही रहा है. डूबती अर्थव्यवस्था, कारपोरेट को फायदा पहुंचाने के लिए किए गए विपुल भ्रष्टाचार और असंभव वायदों से ध्यान भटकाने के लिए एक कांग्रेस काफी नहीं थी इसलिए नया पुतला गढ़ना पड़ा. इसका परीक्षण पहले ही काल्पनिक ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ की स्थापना और उसके उत्साहवर्धक नतीजों से किया जा चुका था.
दुश्मन बदल के कारणों से ज्यादा आरोप लगाने का तरीका गौरतलब है. किताबें, घर में लगी तस्वीरें, मंगलसूत्र और सिंदूर की अनुपस्थिति समेत आसपास का सबकुछ कहानी के उपादान बनकर वह साबित करने लगते हैं जो सरकार चाहती है. यह सब कहानी के तथ्य बन जाते हैं. हत्या करने वाली भीड़ भी हमला करने से पहले एक कहानी रचती है. आसपास गाय हो न हो लेकिन मरने वाले को गाय काटने के लिए ले जाया जाता चित्रित किया जाता है, किसी दुकान से चॉकलेट खरीदना बच्चा चोर साबित करने का पर्याप्त सबूत बन जाता है.
कहने का मतलब यह है कि पहले नेता भीड़ को अपने पीछे चलाता है लेकिन एक वक्त ऐसा भी आता है जब उसे अपनी विफलताओं के लिए कुछ नहीं सूझता और भीड़ इतनी विकराल हो चुकी होती है कि खुद आंख मूंदकर भीड़ के पीछे चलने लगता है.
बधाई हो! लोकतंत्र को भीड़तंत्र में बदलने की परियोजना पूरी हो चुकी है.