अनिल यादव
हमने युगों तक पदाघात और कठोर भावनात्मक प्रयास किए कि हमारी स्त्रियां गाय जैसी हों. गुनाहों के देवता के चंदर की सुधा तो एकदम गऊ है, यह कहने में उसकी निरीहता के प्रति संतोष और अपनी पितृसत्ता के प्रताप का बोध था. जब हम बचपन में पिता द्वारा-यौवन में पति द्वारा-वृद्धावस्था में पुत्र द्वारा रक्षित होने का फार्मूला बोलते थे तब एक खोखलापन महसूस होता था. कोई विशेषण का मजबूत खूंटा नहीं था. तभी भारतीय बुद्दिजीवियों की नजर खूंटे से बंधी, सबकुछ समझती सी आंखों वाली गाय पर पड़ी और काम हो गया. स्मार्ट पुण्यात्मा थी, यदाकदा भावना, लाठी और निरंतर भूसे के बदले दूध, बैल, मोक्ष के सपने दे रही थी. इतनी उपयोगी थी कि विवाह के अगले दिन दामाद के हाथ में उसका पगहा थमाते हुए आंखे भीग जाया करती थीं. इस रस्म को बाद में, सिमटते आंसुओं के अनुपात मे ‘भीगी पलकें’ कहा जाने लगा.
बहुत इंतजार किया लेकिन गाय के अब और अधिक आज्ञाकारी होने की संभावना नहीं थी इसलिए हमने कभी नहीं कहा कि फलाने की गऊ तो औरत जैसी हैऔर हमने उसे माता मान लिया. तभी ट्रैक्टर, मोबाइल, हर क्षेत्र में भैंसों का दबदबा और देहातियों में भी सरकारों के दुलारे, चमकदार शहरियों जैसा स्मार्ट होने का बोध आया और गाय के प्रति हमारी सोच बदल गई. खेती के लिए बैलों की जरूरत रही नहीं, ज्यादा आसानी से वैतरणी पार कराने वाले नए बाबा लोग आ गए थे लिहाजा गाय जब तक पाव-छटांक दूध दे, खूंटे पर बंधी रहती थी अन्यथा बछड़े-बछिया समेत खदेड़ी जाने लगी. इन उपेक्षित गाय-बैलों उर्फ गोवंश ने बड़े समूह बना लिए हैं. हमारी स्तुति, लाठी और नियंत्रित प्रजनन से वंचित रहने के कारण उनका जंगलीपन वापस लौट आया है. वे समूचे काऊ-बेल्ट में किसानों की फसलें तबाह कर रहे हैं, सड़क पर दुर्घटनाएं प्रायोजित करने में उन्होंने नीलगायों को पीछे छोड़ दिया है. गऊ माता ने हमारी मोहमाया छोड़ कर आदिशक्ति के रूप में जीना सीख लिया है.
इन गायों की अनजाने में सबसे अधिक मदद हिंदुत्व की राजनीति ने की जिसके कारण त्राहिमाम करता किसान उन्हें छूना तो दूर आंख उठाकर देख भी नहीं सकता. असली गाय को भगाकर एक नकली गाय का अविष्कार किया गया जो व्हाटसैप में योगेश्वर कृष्ण की बांसुरी से बांधी जाती है, आक्सीजन छोड़ती है, उसके मूत्र में सोना है, गोबर से परमाणु बम को बेअसर किया जाता है. इस गाय को कटने से बचाने बहाने मुसलमानों को मारकर, कायरता दूर करने का प्रशिक्षण देते हुए, हिंदू युवाओं को शेर बनाया जा रहा है. यह बहुत सुविधाजनक गाय है और हिंदुत्व की राजनीति कमाल है. वह बीफ खाने वाले मतदाताओं को खुश रखने के लिए गोवा, मेघालय, मणिपुर में इसके मांस की अबाध सप्लाई सुनिश्चित करती है और जो नहीं खाते उन्हें पीने के लिए मुसलमानों का खून देती है.
बिडंबना देखिए कि गाय औरत नहीं बनी तो फिर से अपनी मूल प्रकृति की ओर लौट गई, तब राजनीति उसे आदर देने लगी. वह ज्यादा उपयोगी हो गई क्योंकि दूध और मोक्ष नहीं, सत्ता देने लगी. औरत गाय बन गई तो उसकी अनाथ, नाबालिग बेटियों को सरकारी संरक्षण में संरक्षण गृहों से नेताओं, अफसरों, ठेकेदारों और नवधनिकों के पास भेजा जाने लगा ताकि वे उनके अछूते यौनांगों के टोटके से दोबारा पौरूष प्राप्त कर अधिक दिनों तक भोगने में सक्षम बने रह सकें. जो अनाथ नहीं हैं उनका भारतीय संस्कृति की शिक्षा देने के लिए घर और बाहर बलात्कार किया जाने लगा. जो अबोध थी, उनके अवचेतन में गाय की निरीहता बिठाने का प्रबंध किया गया. जिन्होंने अपनी मर्जी से प्रेम या विवाह जैसा कुछ करने की कोशिश की उन्हें मार डाला गया. ध्यान दिया जाना चाहिए कि उन्हें गाय बन जाने के बावजूद कभी गाय के बराबर का दर्जा नहीं दिया गया वरना गौ-हत्या के पाप के डर से बख्श दिया जाता. जिन्होंने खुद को पितृसत्ता का पालतू बनाने का विरोध किया उन्हें गाय नहीं रंडी कहा जाने लगा और हर क्षेत्र में भेदभाव और शोषण का सामना करने के लिए छोड़ दिया गया.
दोनों का संबंध ‘गाय और गोरी’ फिल्म से भी बहुत पुराना है लेकिन औरत और गाय की भूमिकाएं आपस में कभी अदल-बदल नहीं सकतीं. ऐसा हो भी जाए तो औरत को हमेशा गोमूत्र से भी कम सम्मान मिलेगा क्योंकि गाय मोक्षदायिनी है और शास्त्रों के हिसाब से नारी नरक का द्वार है. लेकिन…गाय, आजकल उसे उपेक्षित करने वाले किसान की रौंदी फसल के बीच में प्रेरणा के ऐसे मोड़ पर खड़ी है कि औरत कुछ सीख सकती है. अगर वह भी किसी तरह अपनी मूल प्रकृति की ओर लौट जाए तो राजनीति उसे सम्मान देने लगेगी.