राघव बहल और संजय पुगलिया से बातचीत में राहुल गांधी ने कहा था कि हर आइडिया का एक टाइमफ्रेम होता है जिसके बाद वो काम करना बंद कर देता है. सात दशक तक हमारे लोकतंत्र जो जिस आइडिया ने पाला पोसा वो यूरोप के नैतिक मूल्यों पर आधारित समाज से आयातित था.
स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं की पीढ़ी पश्चिम के आइडियलिज़्म प्रभावित थी. इसी पीढ़ी ने एक प्रगतिशील संविधान दिया और आधुनिक मूल्यों से एक नये लोकतांत्रिक राष्ट्र और संसदीय संस्कृति की बुनियाद रखी. अंधविश्वास और सामंती व्यवस्था वाले समाज के लिये ये एक बिलकुल बेमेल कॉन्सेप्ट था. हमारे पुरखों की शायद ये सोच रही हो कि कुछ दशकों में संसदीय लोकतंत्र की मर्यादाओं और भारतीय समाज में मेलजोल हो जाएगा.
वो गलत भी नहीं थे. छ: दशक तक सब कुछ कमोबेश ठीक ठाक चला भी. कई चुनाव हुये. हार जीत हुई, सरकारें बदलीं, बीच में इमरजेंसी जैसी चुनौती भी आयी जिससे देश जल्द ही उबर गया. इस पूरे दौर में देश का नेतृत्व बिना किसी अपवाद के ऐसे लोगों के हाथ में रहा जो भारतीय समाज के मूल्यों से आगे की सोच रखते थे. जिनसे ये नेता चुनाव हारते रहे वो भी संसदीय मर्यादों के उन्ही मूल्यों मेँ पले बढ़े थे. हाल के दशकों में वीपी सिंह, राजीव गांधी, गुजराल, वाजपेयी से लेकर मनमोहन सिंह तक ये नेता एक दूसरे को चुनाव में हराते रहे लेकिन सार्वजनिक जीवन की मर्यादा को बनाए रखा.
2014 में ये कड़ी टूट गई. समाज को नरेंद्र मोदी के रूप में अपने जैसा ही नेता मिल गया. ये गांधी का बनाया समाज नहीं था, उसमे नेहरु जैसी शुचिता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं था. और अंबेडकर का बनाया संविधान भी जन्म के आधार पर गैरबराबरी मानने के लिये अभी भी अजूबा ही है. मोदी इस समाज का हीरो है – उसे मोदी में अपना अक्स दिखता है.
2019 में उसे लगा कि जिस पहले हीरो को उसने चुना है वो उससे छिन सकता है. इस समाज ने रोजगार, आर्थिक प्रगति, फसल की कीमत, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी सब ज़रूरी बातों को तिलांजली देते हुये अपने नेता को और भी बड़े बहुमत से जिताया.