अयोध्या में विवादित स्थल पर मंदिर और मस्जिद, दोनों ही बनाने होंगे !

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कृष्ण प्रताप सिंह


अयोध्या में एक अंतरराष्ट्रीय ख्याति के पखावजवादक हुआ करते थे-स्वामी पागलदास। 1997 में 20 जनवरी को उनका निधन हुआ तो हिन्दी के उन दिनों के युवा और अब महत्वपूर्ण कवि बोधिसत्व ने ‘पागलदास’ शीर्षक से एक बड़ी ही मार्मिक कविता लिखी थी। कविता की कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं-जैसे अयोध्या में बसती है दूसरी अयोध्या/ सरजू में बहती है दूसरी सरजू/ वैसे ही पागलदास में था दूसरा पागलदास/और दोनों रहते थे अलग-अलग और/ उदास! 
कहना अनावश्यक है कि उनका यह अलगाव और उदासी छः दिसम्बर, 1992 के बहुप्रचारित ध्वंस की ही सौगात थी और उस ध्वंस के 26 सालों बाद भी इस कदर अयोध्या की नियति बनी हुई है कि बेचारी निजात की गुहार तक नहीं लगा पा रही। तिस पर, जहां तक उसकी सरजू में दूसरी सरजू बहने की बात है, विडम्बना यह कि इसका रहस्य न उन तीर्थयात्रियों व पर्यटकों को समझ आता है, जिनका उससे बसों व रेलों की खिड़कियों का रिश्ता है और न उन महानुभावों को जो जब भी किसी ‘पुण्यलाभ’ की अभिलाषा से पीड़ित होते हैं, उसकी ओर चल पड़ते हैं। कारण यह कि जब तक वे इस ठोस वास्तविकताओं वाली अयोध्या में पहुंचते हैं, पीठ पर लदी अपने सपनों (अब तो ‘अरमानों’ भी) की अयोध्या को ढोते-ढोते इतने थक चुके होते हैं कि अपनी भावनाओं से इतर कुछ देख ही नहीं पाते।

फिर भी वे अयोध्यावासी, जो मन्दिरों की इस नगरी में ही अपनी ढेर सारी मानव सुलभ वासनाओं की तृप्ति की अजीबोगरीब मायाएं फैलाने को ‘अभिशप्त’ हैं और इस कारण ‘जीवन से मोक्ष’ की चाह लेकर आए तीर्थयात्रियों व पर्यटकों को ‘मोक्ष से जीवन’ की ओर घुमाने का ‘द्रविड़ प्राणायाम’ करते रहते हैं, कहते हैं कि ये सबके सब छः दिसम्बर के उन कारसेवकों से बहुत भले हैं, जो न अपनी दुर्भावनाओं से इतर कुछ देख पाये थे और न ध्वंस को नया धर्म बनाने की कोशिश में कुछ उठा रखा था।

लेकिन क्या कीजिएगा, उस ध्वंस धर्म से जुड़ी उनकी वेदनाओं या कि अंतर्धाराओं को वह मीडिया भी नहीं ही देख पाता, संचारक्रांति के दिये उपकरणों ने जिसे कई अतीन्द्रिय शक्तियों से सम्पन्न कर दिया है। यह तक नहीं कि अयोध्या का रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद से परे भी कोई अस्तित्व है या कि उसे ‘अयोध्या’ यानी ‘बलपूर्वक न जीती जा सकने वाली’ इसलिए कहा जाता है कि अपने अंतःप्रवाहों में ही मगन रहने वाली उसकी अजस्र धाराएं उसके भीतर जय और पराजय के भाव को घर ही नहीं करने देतीं।

फिर वे सत्ताधीश ही अयोध्या का वह सच क्योंकर देखें, जिन्हें लगता है कि अयोध्या के नाम पर सत्ता में आ जाने के बाद उन्हें उससे हर तरह के खेल का हक हासिल हो गया है। इस खेल के तहत उन्होंने अयोध्या की दीपावली तक को सरकार और हिन्दू मुस्लिम गुत्थियों के हवाले कर दिया है-इस दावे के साथ कि उसे भव्य और दिव्य बना रहे हैं।

जो अयोध्या पहले से ही सप्तपुरियों-अयोध्या, मथुरा, द्वारका, काशी, हरिद्वार, उज्जैन और कांचीपुरम-में अग्रगण्य है और अनेक श्रद्धालुओं की निगाह में न सिर्फ देश बल्कि दुनिया की सबसे बड़ी नगरी है, इसलिए कि वहां ‘राम लीन्ह अवतार’, उनका कहना है कि उसे मंडल और जिला बनाने के लिए उसके निर्दम्भ जुड़वां शहर फैजाबाद की बलि लेकर उन्होंने उसकी प्रतिष्ठा बहुत बढ़ा दी है। वे समझते ही नहीं कि अयोध्या अपने अतीत में हमेशा राजधानी, नगरी या कि पुरी ही रही है, जनपद नहीं। गोस्वामी तुलसीदास ने अपने ‘रामचरितमानस’ में भी भगवान राम के मुंह से उसे ‘जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि’ ही कहलवाया है। इस पुरी का जनपद कोशल हुआ करता था और उसे उसके जिले की जगह फैजाबाद काटकर अयोध्या लिखने को आतुर सत्ताधीशों से कम से कम इतनी अपेक्षा तो थी ही कि वे अयोध्या और कोशल का फर्क समझेंगे।

दूसरी ओर, यकीनन, भावनाओं के दोहन के लिए ही, भारी-भरकम योजनाओं के बड़े-बड़े एलानों की मार्फत प्रचारित किया जा रहा है कि अयोध्या में स्वर्ग उतार दिया गया है। कहा जा रहा है कि क्या हुआ, जो ‘वहीं’ राम मन्दिर नहीं बना पाये, भगवान राम की सबसे ऊंची मूर्ति तो लगाने जा रहे हैं। भले ही वाराणसी की धर्मसंसद ने इस सम्बन्धी फैसले की निन्दा कर डाली हो।

दूसरी धर्मनगरियां स्वाभाविक ही अयोध्या के इस ‘सौभाग्य’ को लेकर ईर्ष्यालु हैं, लेकिन जमीनी सच्चाई इसके एकदम उलट है और अयोध्यावासियों की जिन्दगी की दुश्वारियां बढ़ती ही जा रही हैं, जबकि छः दिसम्बर, 1992 को ध्वस्त किये गये विवादित ढांचे की भूमि का स्वामित्व विवाद भारत में न्याय मिलने में होने वाले भारी विलम्ब की भी कथा है।

फैजाबाद की निचली अदालतों में अरसे तक लटके रहने के बाद सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से यह विवाद इलाहाबाद हाईकोर्ट पहुंचा तो उसकी तीन सदस्यीय पीठ ने 2010 में तीस सितम्बर को दो एक के बहुमत से विवादित भूमि को उसके तीन दावेदारों रामलला, निर्मोही अखाड़े और सुन्नी वक्फ बोर्ड के बीच बराबर-बराबर बांटने का आदेश दे डाला। लेकिन कोई दावेदार इससे संतुष्ट नहीं हुआ। अब मामला सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन है और जनवरी में उसकी सुनवाई प्रस्तावित है। वह साफ कर चुका है कि मामले को भूमि के विवाद के रूप में ही देखेगा, आस्थाओं के नहीं।

इस बीच अनेक राममन्दिर समर्थक न्याय में विलम्ब को भी अन्याय बताकर सरकार पर कानून बनाकर या अध्यादेश लाकर मन्दिर निर्माण कराने का दबाव डाल रहे हैं। लेकिन ऐसा कोई कानून बना या अध्यादेश आया तो संवैधानिकता की परख के लिए उसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी जा सकेगी। संविधान का संरक्षक होने के नाते सर्वोच्च न्यायालय की मान्यता यह है कि संसद सर्वसम्मति या शतप्रतिशत समर्थन से भी संविधान की मूल आत्मा को नष्ट या खत्म करने वाला कानून नहीं बना सकती। न्यायालय का फैसला आ जाये तो भी ढेर सारी पेचीदगियों के कारण विवादित भूमि पर फौरन कोई निर्माण संभव नहीं है। क्योंकि किसी न किसी नुक्त-ए-नजर से उससे असंतुष्ट पक्षों के पास फैसला सुनाने वाली पीठ से बड़ी पीठ में पुनर्विचार की मांग करने का विकल्प उपलब्ध होगा।

विवादित 2.77 एकड़ भूमि अब वह 1993 के अयोध्या विशेष क्षेत्र अधिग्रहण कानून के तहत केन्द्र द्वारा अधिग्रहीत कोई सत्तर एकड़ भूमि का हिस्सा है और उसकी इस अवस्थिति के खिलाफ उठाई गई सारी आपत्तियां पूरी तरह दरकिनार की जा चुकी हैं।

संसद ने विवाद के सौहार्दपूर्ण समाधान के लिए उक्त कानून सर्वसम्मति से पारित किया था और नरेन्द्र मोदी सरकार को अपने समर्थकों के दबाव में राममन्दिर निर्माण का कानून बनाने से पहले इस कानून को रद्द करना होगा। राष्ट्रपति को बताये गये अधिग्रहण के उद्देश्यों के अनुसार अधिग्रहीत भूमि पर राममन्दिर, मस्जिद, संग्रहालय, वाचनालय और जनसुविधाओं वाले पांच निर्माण लाजिमी होंगे। इनकी बाबत सर्वोच्च न्यायालय का सुझाव है कि अंतिम फैसले के बाद विवादित भूमि के वास्तविक स्वामी या स्वामियों को उसके या उनके पूजास्थल के निर्माण के लिए उक्त भूमि का बड़ा हिस्सा दिया जाये। लेकिन इससे किसी पक्ष में जय और किसी में पराजय का भाव न उत्पन्न हो, इसके लिए भूमि का छोटा हिस्सा मुकदमा हारने वाले पक्ष के पूजास्थल के लिए भी दिया जाये। साफ है कि न्यायालय का फैसला किसी के भी पक्ष में हो, अधिग्रहीत भूमि में मन्दिर व मस्जिद दोनों बनाने होंगे।

फैसले के बाद यह सवाल भी उठेगा कि अधिग्रहीत भूमि पर सम्बन्धित मन्दिर या मस्जिद कौन बनाये? देश के धर्मनिरपेक्ष रहते सरकार स्वयं यह काम कर नहीं सकती और अधिग्रहण कानून के मुताबिक वह बाध्य है कि इसके लिए भूमि उन्हीं संगठनों को प्रदान करे जिनका गठन उक्त अधिग्रहण कानून बनने के बाद किया गया हो। इस कारण फैसला राममन्दिर के पक्ष में होने के बावजूद विश्व हिन्दू परिषद समेत किसी संघ परिवारी संगठन की उसके निर्माण में कोई हिस्सेदारी मुमकिन नहीं है। इससे अंदेशा है कि फैसले के बाद मन्दिर या मस्जिद निर्माण की दावेदारी को लेकर नये विवाद न्यायालय पहुंच जायें और उनकी सुनवाई में भी खासा वक्त लगे।

कृष्ण प्रताप सिंह अयोध्या के वरिष्ठ पत्रकार और वहाँ से प्रकाशित दैनिक जनमोर्चा के संपादक हैं।