भारतीय जनता पार्टी की माननीय सांसद प्रज्ञा ठाकुर का ताज़ा उवाच है,”शूद्र को शूद्र कहे दो , बुरा लग जाता है। कारण क्या है ? क्योंकि न समझी , समझ नहीं पाते।” इससे पहले वे कह चुकी थी कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को जातिगत सम्बोधन से बुरा नहीं लगता है लेकिन शूद्र को जातिगत सम्बोधन से बुरा लग जाता है। वे यह भी कहती हैं कि आरक्षण आर्थिक आधार पर होना चाहिए , जाति के आधार पर नहीं।
प्रज्ञा जी के उवाच के अर्थ को विस्तार देते हुए मेरा प्रति तर्क है कि यदि तीनों सवर्ण जातियों को गांव बाहर सरहद पर बसाया जाये, शूद्रों को बस्ती के केंद्र में रखें तब ब्राह्मण ,क्षत्रीय और वैश्य को कैसा लगेगा? क्या भारत में ऊंची जातियों सामाजिक अलगाव का दंश झेला है। कभी वे मुख्यधारा से बहिष्कृत हुए हैं ? क्या उन्होंने कभी आंतरिक सांस्कृतिक -आर्थिक उपनिवेश का सामना किया है? जातिगत उत्पीड़न को झेला है?
दलितों के साथ कितना बर्बर व्यवहार सवर्ण करते रहे हैं, इतिहास को देखिये। केरल के त्रावणकोर राज में दलितों की स्त्रियों को अपना वक्ष ढकने की इज़ाज़त नहीं थी। दलित वर्ग के लोग सवर्णों की बस्ती से गुजर नहीं सकते थे, साफ़-सुथरा वस्त्र पहन नहीं सकते थे, ब्राह्मण या क्षत्रिय के सामने कुर्सी या मूढ़े पर बैठ नहीं सकते थे। पिछले ही दिनों ऊंची जाति के तीन युवकों ने अपनी बहन की हत्या इसलिए की थी क्योंकि उसने दलित लड़के से विवाह रचाया था। उसके शव को ज़मींदोज़ किया गया और 15 रोज़ के बाद ज़मीन से निकल कर उसकी शिनाख्त की जा सकी। क्या इसे ‘शूद्र जाति जेहाद’ कहें। आज भी दलित जाति के दूल्हा को घोड़ी पर चढ़ कर मुख्य मार्गों से निकलने नहीं दिया जाता है। पुलिस के संरक्षण में बारात निकलती है। यदि सवर्णों को ऐसी मानव विरोधी घटनाओं का सामना करना पड़े तो सम्भवतया उन्हें भी जातिगत सम्बोधन बुरे लगने लगेंगे।
पिछले दिनों मैं परिवार सहित गांव गया था। आज भी दलितों की बस्तियाँ गांव बाहर हैं। सत्तर साल पहले भी वहीँ थीं, ऐसा क्यों है ? डॉ. आंबेडकर ने सही कहा था कि राजनीतिक स्वतंत्रता से कहीं अधिक ज़रूरी है सामाजिक स्वतंत्रता। प्रज्ञा जी भूल जाती हैं कि वे व्यक्ति ही नहीं हैं, निर्वाचित माननीय सांसद भी हैं। संविधान की शपथ ली है। वे वर्ण व्यवस्था में कैसे विश्वास रखा सकती हैं? भारतीय नागरिकों को चार जातियों में कैसे विभाजित कर सकती हैं?
उन्हें मालूम होना चाहिए कि संविधान में आरक्षण के प्रावधान ऐतिहासिक कारणों से किये गए हैं। इतिहास के दौर में शूद्रों और आदिवासियों ने जिस प्रकार के सामाजिक बहिष्कार व अन्याय को झेला है उनके ऐतिहासिक जख्मों पर मरहम लगाने के लिए प्रावधान की व्यवस्था की गई है, इस सच्चाई को याद रखना चाहिए। यद्यपि आर्थिक आधार की भी व्यवस्था होनी चाहिए लेकिन वर्तमान आरक्षण प्रावधान को समाप्त नहीं किया जा सकता। क्या हज़ारों साल के अन्याय, जुल्म, अमानवीयता का निराकरण 70 -75 सालों में किया जा सकता है? यह सही है कि आरक्षण व्यवस्था के दुरूपयोग को रोकने और इसको अधिक न्यायसंगत बनाने की ज़रूरत हो सकती है। लेकिन सवर्ण वर्चस्व व हितों को ध्यान में रख कर इसे खत्म करने की मांग इतिहास विरोधी और अन्यायपूर्ण है।
प्रज्ञा जी ने माँग की है कि आबादी नियंत्रण उन लोगों के लिए होना चाहिए जोकि राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में लिप्त रहते हैं, लेकिन जो देश के लिए जीते हैं उन पर आबादी नियंत्रण क़ानून लागू नहीं होना चाहिए। कौन लोग राष्ट्र विरोधी हैं, सांसद का इशारा साफ़ है। उन्होंने यह भी उपदेश दिया कि क्षत्रियों को अपना कर्तव्य समझना चाहिए। अधिक से अधिक बच्चे पैदा कर उन्हें सेना में भेजना चाहिए जिससे कि वे राष्ट्र के लिए लड़ सकें। यह कितना स्त्री विरोधी उपदेश है। क्या स्त्रियां बच्चे पैदा करने के लिए बनी हैं ? देश के संसाधनों पर जनसंख्या का विस्फोट कितना भारी पड़ रहा है, इसका अनुमान है ? देश की शिशु मृत्यु दर कितनी भयावह है, कुपोषण से कितना लोग मर रहे हैं , प्रदूषण ने कितनी घातक बीमारियों को जन्म दे दिया है,क्या ज्ञान है सांसद को? मध्य प्रदेश आज भी क्यों ‘बिमारु राज्य़’ है, कारणों का पता लगाइए। नेटफ्लिक्स पर एक धारावाहिक देखा था ” लैला,. उसमें एक आर्यावर्त की कल्पना की गई है। प्रज्ञाजी उसकी सम्मानित नागरिक और माननीय प्रवक्ता प्रतीत होती हैं !