बिसात-1952 : इस तरह हुई थी ख़ुदमुख़्तारी के सफ़र की शुरुआत

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General Election Scenes in Delhi (Jan. 1952). View of the Congress Party election procession. The placard shows Shri Jawaharlal’s portrait with a pair of bullocks, the election symbol of the Congress Party.


अनिल जैन

सोलहवीं लोकसभा का कार्यकाल पूरा हो चुका है और देश अब सत्रहवीं लोकसभा चुनने के लिए तैयार है। चुनाव आयोग ने आम चुनाव का बिगुल फूंक दिया है। आयोग ने लोकसभा की कुल 543 सीटों पर 7 चरणों में चुनाव का ऐलान किया है। अगर 1952 से लेकर अब तक पांच बार विभिन्न कारणों से मध्यावधि चुनाव नहीं हुए होते और हर लोकसभा ने अपना कार्यकाल पूरा किया होता तो इस समय चौदहवीं लोकसभा चल रही होती और पंद्रहवीं लोकसभा के लिए 2021 में चुनाव होता। बहरहाल सत्रहवीं लोकसभा चुनाव की पूर्व वेला में यह जानना रोचक होगा कि पहला आम चुनाव किन स्थितियों में और किस तरह संपन्न हुआ था।

15 अगस्त 1947 को जब भारत बरतानवी हुकूमत की दासता से आजाद हुआ था तब किसने कल्पना की होगी कि संसदीय लोकतंत्र अपनाकर हम दुनिया की सबसे बडी चुनाव प्रक्रिया वाला देश बन जाएंगे। 16वीं लोकसभा के चुनाव के लिए करीब 81 करोड मतदाताओं का निबंधन समूची दुनिया को सुखद आश्चर्य मे डालने वाला है। लगभग हर आम चुनाव के समय हम सबसे बडे मतदाता समूह और चुनावी ढांचा वाले देश के रूप में चिन्हित किए जाते हैं। आज हम अपनी चुनाव प्रणाली और लोकतंत्र की चाहे जितनी खामियां निकालें, लेकिन जब अतीत मे लौटकर विचार करते हैं तो इसे अविश्वसनीय उपलब्धि के रूप में पाते हैं।

हम अपनी सरकार खुद चुन सकते हैं, यह भाव तब रोमांच पैदा करने वाला रहा होगा। वास्तव में आजादी के बाद हमारा पहला आम चुनाव इसी रोमांचकता के सामूहिक मनोविज्ञान में संपन्न हुआ था। उस समय के समाचारों, नेताओं के भाषणों ने आदि को देखे तो इस मनोविज्ञान का अहसास हो जाएगा। नव-स्वतंत्र देश का लोकतंत्रीकरण यानी पूरा उत्सव का माहौल! खुदमुख्तारी के भाव से सराबोर समूचा भारतीय समाज मानो अंग्रेजों को झुठलाते हुए दुनिया के समक्ष लोकतंत्र के लिए अपनी काबिलियत साबित कर रहा था। वह समाज जिसे अंग्रेजों ने ऐसा समाज कहा था यह न तो लोकतंत्र को पचा पाएगा और न ही इसे संभालकर आगे बढ़ा पाएगा।

पहले आम चुनाव में लोकसभा की 497 तथा राज्य विधानसभाओं की 3283 सीटों के लिए भारत के 17 करोड 32 लाख 12 हजार 343 मतदाताओं का पंजीयन हुआ था। इनमें से 10 करोड 59 लाख लोगों ने, जिनमें करीब 85 फीसद निरक्षर थे, अपने जनप्रतिनिधियों का चुनाव करके पूरे विश्व को आश्चर्य में डाल दिया था।

25 अक्टूबर 1951 से 21 फरवरी 1952 तक यानी करीब चार महीने चली उस चुनाव प्रक्रिया ने भारत को एक नए मुकाम पर लाकर खड़ा किया। यह अंग्रेजों द्वारा लूटा-पीटा और अनपढ बनाया गया कंगाल देश जरुर था, लेकिन इसके बावजूद इसने स्वयं को विश्व के घोषित लोकतांत्रिक देशों की कतार मे खड़ा कर दिया। 25 अक्टूबर, 1951 को जैसे ही पहला वोट हिमाचल प्रदेश की चिनी तहसील मे पड़ा, नए युग की शुरुआत हो गई। आजादी के संघर्ष के कारण देश के आम जनमानस में तो कांग्रेस का ही नाम बैठा था। इसलिए कांग्रेस ने 364 सीटें जीतकर प्रचंड बहुमत प्राप्त किया। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी 16 सीटें जीतकर दूसरी सबसे बडी पार्टी के रूप में उभरी। आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश और डॉ. लोहिया के नेतृत्व वाली सोशलिस्ट पार्टी को 12, आचार्य जे.बी. कृपलानी के नेतृत्व वाली किसान मजदूर प्रजा पार्टी को नौ, हिंदू महासभा को चार, डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में भारतीय जनसंघ को तीन, रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी को तीन और शिड्यूल कास्ट फेडरेशन को दो सीटें मिलीं। कांग्रेस ने कुल 4,76,65,951 यानी 44.99 वोट हासिल किए। उस वक्त एक निर्वाचन क्षेत्र में एक से अधिक सीटें भी हुआ करती थीं, लिहाजा 489 स्थानों के लिए 401 निर्वाचन क्षेत्रों में ही चुनाव हुआ। 1960 से इस व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया। एक सीटों वाले 314 निर्वाचन क्षेत्र थे। 86 निर्वाचन क्षेत्रों में दो सीटें और एक क्षेत्र में तीन सीटें थीं। दो सदस्य आंग्ल-भारतीय समुदाय से नामांकित हुए थे।

चुनाव में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ओर से प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ही स्टार प्रचारक थे। उन्होंने अपने चुनाव प्रचार अभियान के तहत 40 हजार किलोमीटर की यात्रा करते हुए करीब साढे तीन करोड लोगों को संबोधित किया था। यह तब असाधारण एवं अभूतपूर्व कार्य था। हालांकि विपक्षी पार्टियों के लिए काम करने के अवसर थे, उनके पास तेजस्वी नेता भी थे लेकिन उनके पास संगठन, संसाधन और कार्यकर्ता ऐसे नहीं थे कि वे इतना व्यापक अभियान चला सकते। उस समय मीडिया का भी इतना विस्तार नहीं था कि उसके माध्यम से अपनी बात लोगों तक पहुंचाई जा सके। तब भी अलग-अलग क्षेत्रों और राज्यों में कांग्रेस से इतर पार्टियां आजाद भारत के पुनर्निर्माण, जीवनयापन, आम नागरिकों के अधिकार, राजनीतिक पार्टियों के ढांचे, अर्थव्यवस्था, समाज, संस्कृति आदि मुद्दों को लेकर जनता के बीच गईं इसी का परिणाम था कि करीब 31 फीसद वोट इन पार्टियों को मिले।

आज इस बात की कल्पना करना कठिन है कि लोकसभा और विधानसभाओं के लिए पहला आम चुनाव सम्पन्न कराना कितना बडा कार्य था। घर-घर जाकर मतदाताओं का निबंधन करना ही अपने आप में इतिहास बनाना था। बहुमत मतदाता की निरक्षरता का ध्यान रखते हुए ही पार्टियों और उम्मीदवारों के लिए चुनाव चिन्ह की व्यवस्था की गई। किंतु तब मतपत्र पर नाम और चिन्ह नहीं थे, हर पार्टी के लिए अलग-मतपेटी थी, जिन पर उनके चुनाव चिन्ह अंकित कर दिए गए थे। इसके लिए लोहे की दो करोड बारह लाख मतपेटियां बनाई गई थीं और करीब 62 करोड मतपत्र छापे गए थे। इन मतपेटियों और मतपत्रों को संबंधित मतदान केंद्रों तक पहुंचाना भी उस समय एक चुनौतीपूर्ण कार्य था। आवागमन के साधन भी आज की तरह विकसित नहीं हुए थे। सडक मार्गों का विकास भी नहीं हो पाया था। रेलवे के नक्शे में देश के कई इलाके जगह नहीं पाए थे। ऐसी स्थिति में पहाडों, जंगलों, मैदानी इलाकों में नदी-नालों को पार करते हुए, पगडंडियों से गुजरते हुए नियत स्थान तक पहुंचने के लिए चुनाव कार्य में लगे अधिकारियों-कर्मचारियों को कितनी मशक्कत करनी पड़ी होगी, इसकी आसानी से कल्पना की जा सकती है। इस सबके दौरान कई लोग बीमार पड गए, कुछ की मृत्यु भी हो गई और कुछ लूट के शिकार भी हुए।

कहा जाता है कि पूर्वोत्तर में म्यांमार की सीमा से लगे मणिपुर के पहाडी क्षेत्रों में तो स्थानीय लोगों को यह कहकर तैयार किया गया कि आप इस मतदान सामग्री को नियत स्थानों पर पहुंचाने में मदद करें, बदले में आपको एक-एक कंबल तथा बंदूक का लाइसेंस दिया जाएगा। इस तरह अलग-अलग क्षेत्रों में अलग तरीके अपनाए गए।

Mr. Sukumar Sen, Chief of the Election Commission in which is vested the superintendence, direction and control of India’s colossal General Election.

उस समय सुकुमार सेन मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्त हुए थे। मतदाताओं के पंजीयन से लेकर, राजनीतिक दलों के चुनाव चिन्हों का निर्धारण एवं साफ सुथरा चुनाव कराने के लिए योग्य अधिकारियों के चयन का काम उन्होंने बखूबी किया। वे सरकारी खजाने के पैसे की कितनी चिंता करते थे इसका उदाहरण था- मतपेटियों को सुरक्षित रखना। उन्होंने जितना संभव हुआ मतपेटियों को सुरक्षित रखने की व्यवस्था की और 1957 के दूसरे आम चुनाव में इस कारण करीब साढे चार करोड रुपए सरकारी खजाने के बचाए। कुल मिलाकर कहने का आशय यह है कि जिस चुनावी ढांचे के जरिए संसदीय लोकतंत्र का जो लंबा सफर हमने अभी तक तय किया है उसके लिए स्वाधीनता संग्राम के दौरान ही नहीं बल्कि स्वाधीनता के बाद भी लाखों लोगों ने इसमें अपना योगदान दिया।

चुनाव मैदान में राजनीतिक पार्टियां

पहले आम चुनाव के समय कांग्रेस की सर्वोच्चता अवश्य थी, उसकी स्वीकार्यता भी व्यापक थी लेकिन विपक्ष भी वजूद में आ चुका था। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी तो पहले से थी ही, आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण और डॉ. राम मनोहर लोहिया के नेतृत्व में सोशलिस्टों का धडा भी कांग्रेस से बाहर आकर सोशलिस्ट पार्टी बना चुका था। इसके अलावा जवाहरलाल नेहरू के मंत्रिमंडल के ही दो पूर्व सहयोगियों ने भी कांग्रेस से अलग होकर अपनी-अपनी नई पार्टियों का गठन कर लिया था। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अक्टूबर, 1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना की थी तो डॉ. भीमराव आंबेडकर ने शेड्युल्ड कास्ट फेडरेशन को पुनर्जीवित कर लिया था, जो बाद में रिपब्लिकन पार्टी के नाम से जाना गया। वरिष्ठ स्वाधीनता सेनानी आचार्य जीवतराम भगवानदास (जेबी) कृपलानी ने किसान मजदूर प्रजा परिषद का गठन कर लिया था। भारतीय क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी, बोल्शेविक पार्टी, फारवर्ड ब्लॉक के दो समूह, रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी, हिंदू महासभा, अखिल भारतीय रामराज्य परिषद आदि पार्टियां भी अस्तित्व में थीं। चुनाव में कुल 53 पार्टियों ने भाग लिया था, जिनमें 14 राष्ट्रीय स्तर की और बाकी राज्य स्तर की पार्टियां थीं।

कौन-कौन प्रमुख नेता थे उस परिदृश्य में

पहले आम चुनाव में जवाहरलाल नेहरू का कद जरूर बडा था, उनके मर्मस्पर्शी मोहक नेतृत्व के चलते उनकी लोकप्रियता भी खूब थी, लेकिन 1942 के भारत छोडो आंदोलन के हीरो रहे जयप्रकाश नारायण और डॉ. राममनोहर लोहिया की भी विपक्षी नेताओं के रूप में प्रतिष्ठा थी। कांग्रेस से शुरुआत करके हिंदू महासभा के नेता बतौर भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध करने वाले श्यामा प्रसाद मुखर्जी का भी अपना स्थान था जो भारतीय जनसंघ के पहले अध्यक्ष बने थे। अपने-अपने क्षेत्रों में पूर्व राजाओं, जमीदारों, स्थानीय नेताओं आदि का भी सम्मान कायम था। इस कारण 38 स्थानों से 47 निर्दलीय जीते तो 10 स्थानों पर निर्विरोध निर्वाचन भी हुआ। इस चुनाव में निर्वाचित होने वालों में काका साहब कालेलकर भी थे, जो पहले पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष बने। लालबहादुर शास्त्री, गुलजारीलाल नंदा, मोरारजी भाई देसाई, जी.वी. मावलंकर, हुमायूं कबीर, ए.के. गोपालन, मौलाना अबुल कलाम आजाद, बाबू जगजीवन राम, रफी अहमद किदवई, केशवदेव मालवीय, सुभद्रा जोशी, चौधरी ब्रप्रकाश आदि नेताओं को पहले आम चुनाव ने ही संसद सदस्य बनाया। बाद में इनमें से पहले तीन नेता देश के प्रधानमंत्री बने। मावलंकर लोकसभा के पहले अध्यक्ष बने। इस चुनाव में डॉ. भीमराव आंबेडकर बॉम्बे सुरक्षित सीट से कांग्रेस के नारायण सादोबा से पराजित हो गए थे।


क्रमश: