बिसात-2004: कांग्रेस के नेतृत्व में पहली गठबंधन सरकार बनी, ‘इंडिया शाइनिंग’ हुआ ध्‍वस्‍त

अनिल जैन
काॅलम Published On :


चौदहवीं लोकसभा के लिए आम चुनाव 1999 में सितंबर-अक्टूबर के दौरान हुए थे। इस लिहाज से 14वीं लोकसभा के चुनाव 2004 में सितंबर-अक्टूबर के दौरान होना थे, लेकिन भाजपा और राष्‍ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के रणनीतिकारों ने प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को निर्धारित समय से पांच महीने पहले ही चुनाव कराने की सलाह दे डाली। वाजपेयी को समझाया गया कि ‘फील गुड फैक्टर’ और अपने प्रचार अभियान ‘इंडिया शाइनिंग’ की मदद से एनडीए सत्ता विरोधी लहर को बेअसर कर देगा और स्पष्ट बहुमत प्राप्त कर लेगा।

इस सोच का आधार यह था कि राजग शासन के दौरान अर्थव्यवस्था मे लगातार वृद्धि दिखाई दी थी और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के विनिवेश को पटरी पर लाया गया था। इसके अलावा भारतीय विदेशी मुद्रा भंडार भी बेहतर हालत में। उसमें 100 अरब डॉलर से अधिक राशि जमा थी। यह उस समय दुनिया मे सातवां सबसे बड़ा विदेशी मुद्रा भंडार था और भारत के लिए एक रिकॉर्ड था। सेवा क्षेत्र मे भी बड़ी संख्या मे नौकरियां पैदा हुई थीं। इसी सोच के बूते समय से पूर्व चुनाव कराने की घोषणा कर दी गई। 20 अप्रैल से 10 मई 2004 के बीच चार चरणों में लोकसभा के लिए चुनाव संपन्न हुआ।

दो व्यक्तित्वों के बीच हुआ टकराव

1990 के दशक के अन्य सभी लोकसभा चुनावों की तुलना में इस चुनाव के दौरान दो व्यक्तित्वों (वाजपेयी और सोनिया गांधी) का टकराव अधिक देखा गया क्योंकि कोई तीसरा ठोस विकल्प मौजूद नहीं था। अधिकांश क्षेत्रीय दल भाजपा के साथ एनडीए के कुनबे में शामिल थे, हालांकि द्रमुक और रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी गुजरात में मुसलमानों के नरसंहार के मुद्दे पर एनडीए से अलग हो चुकी थीं।

दूसरी तरफ कांग्रेस की अगुवाई में भी राष्‍ट्रीय स्तर पर विपक्षी मोर्चा बनाने की कोशिश हुई, लेकिन यह कोशिश परवान नहीं चढ पाई। कुछ राज्यों में हालांकि स्थानीय स्तर पर कांग्रेस और क्षेत्रीय पार्टियों में चुनावी तालमेल हो गया। बिहार में उसने लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल और रामविलास पासवान लोक जनशक्ति पार्टी के साथ, तमिलनाडु में एम. करुणानिधि की द्रमुक और आंध्र प्रदेश तेलंगाना राष्ट्र समिति के साथ मिलकर चुनाव लड़ा। यह पहला अवसर था जबकि कांग्रेस ने संसदीय चुनाव में इस तरह के तालमेल के साथ चुनाव लड़ा।

वामपंथी दलों, विशेषकर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) ने अपने प्रभाव वाले राज्यों पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और केरल में अपने दम पर कांग्रेस और एनडीए दोनों का सामना करते हुए चुनाव लड़ा। पंजाब और आंध्र प्रदेश में उन्होंने कांग्रेस के साथ सीटों का तालमेल किया। तमिलनाडु में वे द्रमुक के नेतृत्व वाले जनतांत्रिक प्रगतिशील गठबंधन में शामिल थे। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने कांग्रेस और भाजपा में से किसी के भी साथ न जाते हुए अकेले ही चुनाव लड़ा।

भाजपा ने सोनिया के विदेशी मूल का मुद्दा उठाया

अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए ने इस चुनाव में अपनी सरकार की उपलब्धियों को तो लोगों के सामने पेश किया ही, साथ ही सोनिया गांधी के विदेशी मूल को भी कांग्रेस के खिलाफ मुख्य मुद्दे के तौर पर जोर-शोर से उठाया। दूसरी ओर कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने सूखे से निबटने में सरकार की नाकामी, किसानों की आत्महत्या, महंगाई आदि के साथ-साथ 2002 के गुजरात नरसंहार को एनडीए के सरकार के खिलाफ मुद्दा बनाया।

भाजपा-एनडीए सत्ता से बेदखल, वाजपेयी का करिश्मा नाकाम रहा

एनडीए का नेतृत्व और उसके चुनावी रणनीतिकार सत्ता विरोधी लहर को थामने में नाकाम रहे। गुजरात के नरसंहार का दाग तो उसके दामन पर था ही, उसे सरकारी कर्मचारियों की पेंशन बंद करने, श्रम कानूनों में सुधार के नाम पर मजदूर और कर्मचारी विरोधी कानूनों को लागू करने और मुनाफा कमाने वाले सरकारी उपक्रमों को निजी हाथों में सौंपने जैसे अपने जनविरोधी फैसलों का भी खामियाजा भुगतना पड़ा। अटल बिहारी वाजपेयी का करिश्माई नेतृत्व भी काम नहीं आया।

13 मई को आए चुनाव नतीजों में भाजपा और एनडीए की हार हुई, हालांकि किसी भी पार्टी या गठबंधन को स्पष्ट बहुमत हासिल नहीं हुआ, लेकिन कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। वह अपने सहयोगी दलों तथा वाम मोर्चा, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बाहरी समर्थन के साथ सरकार बनाने में कामयाब हुई। कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों को 218 सीटें प्राप्त हुईं, जबकि भाजपानीत राजग को महज 181 सीटें मिलीं।

कांग्रेस को अकेले इस चुनाव में 141 सीटें मिलीं, जबकि भाजपा को महज 138 सीटें ही हासिल हो सकीं। इस चुनाव में इन दोनों ही पार्टियों को मिले वोटों के प्रतिशत में पिछले चुनाव के मुकाबले समान रूप से 1.60 प्रतिशत की गिरावट आई। कांग्रेस को कुल 13,83,12,337 (26.70) प्रतिशत वोट मिले जबकि भाजपा को मिले वोटों की संख्या 12,89,31,001 (22.16) प्रतिशत रही।

सोनिया गांधी का प्रधानमंत्री बनने से इनकार

कांग्रेस ने चुनाव के बाद अपने सहयोगी दलों के साथ मिलकर औपचारिक रूप से संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) का गठन किया और वामपंथी मोर्चा, समाजवादी पार्टी तथा बहुजन समाज पार्टी के बाहरी समर्थन से लोकसभा में कुल 335 सदस्यों का समर्थन जुटा कर सरकार बनाईं। यह पहला अवसर था जब कांग्रेस ने केंद्र में गठबंधन सरकार बनाई। चुनाव पूर्व कांग्रेस की ओर से सोनिया गांधी को ही प्रधानमंत्री पद का दावेदार माना जा रहा माना जा रहा था, चुनाव नतीजों के बाद राष्‍ट्रपति ने भी सोनिया को ही सरकार बनाने का न्योता दिया, लेकिन सोनिया गांधी ने अप्रत्याशित रूप से प्रधानमंत्री बनने से इंकार कर सभी को हैरान कर दिया। उन्होंने इस पद के लिए डॉ. मनमोहन सिंह का नाम प्रस्तावित किया। कांग्रेस और यूपीए के अन्य दलों ने भी सोनिया गांधी की इच्छा का सम्मान करते हुए मनमोहन सिंह को अपना नेता चुना और इस तरह वे प्रधानमंत्री बने।

सोमनाथ चटर्जी लोकसभा अध्यक्ष बने

वरिष्ठ माकपा नेता सोमनाथ चटर्जी लोकसभा अध्यक्ष चुने गए। भारत के संसदीय इतिहास में यह लगातार चौथा अवसर था जब लोकसभा के अध्यक्ष पद बैठने वाला व्यक्ति सत्तारूढ़ दल का सदस्य नहीं था। इससे पहले 11वीं लोकसभा के दौरान 1996 में एचडी देवगौड़ा और आइके गुजराल के नेतृत्व में बनी संयुक्त मोर्चा की सरकारों के समय भी लोकसभा अध्यक्ष का पद सरकार को समर्थन दे रही पार्टी को मिला था। उस वक्त कांग्रेस के पीए संगमा अध्यक्ष चुने गए थे। उसके बाद 12वीं लोकसभा के दौरान 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनी एनडीए सरकार के समय भी लोकसभा अध्यक्ष का पद सरकार को समर्थन देने वाली तेलुगू देशम पार्टी के जीएमसी बालयोगी को मिला था। यह सिलसिला 1999 में 13वीं लोकसभा के दौरान भी बना रहा। उस समय यह पद भाजपा की सहयोगी पार्टी शिवसेना को मिला था और मनोहर जोशी लोकसभा अध्यक्ष चुने गए थे। 2004 में 14वीं लोकसभा में भी यह सिलसिला जारी रहा। लोकसभा अध्यक्ष चुने गए सोमनाथ चटर्जी की पार्टी माकपा कांग्रेस के नेतृत्व में बनी यूपीए सरकार को बाहर से समर्थन दे रही थी।

यूपीए सरकार के महत्वपूर्ण काम

डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए की सरकार पूरे पांच साल चली। इस सरकार ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून जैसी महत्वाकांक्षी योजना लागू की, जिससे ग्रामीण क्षेत्र की बेरोजगारी दूर करने तथा ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूती देने में काफी हद तक मदद मिली। इसी सरकार ने सूचना का अधिकार कानून भी लागू किया जिसके जरिए स्थानीय स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक भ्रष्टाचार के कई मामले उजागर हुए। इस सरकार के कार्यकाल के दौरान अर्थव्यवस्था की गाड़ी भी कमोबेश पटरी पर रही और औद्योगिक एवं कृषि उत्पादन के क्षेत्र में भी संतोषजनक प्रदर्शन रहा। महंगाई भी कमोबेश नियंत्रण में ही रही।

आर्थिक सुधारों पर लगाम लगी रही

इस दौरान एक उल्लेखनीय बात यह भी रही कि पी.वी. नरसिंह राव सरकार में वित्त मंत्री के रूप में उदारीकरण की आधारशिला रखने वाले डॉ. मनमोहन सिंह अपने प्रधानमंत्रित्वकाल की इस पारी में अपने मनमाफिक आर्थिक सुधार लागू नहीं कर पाए। इसकी अहम वजह यह रही कि उनकी सरकार वामपंथी दलों के समर्थन से चल रही थी और वाम दलों ने आर्थिक नीतियों के मामले में सरकार पर पूरी तरह अपना अंकुश रखा। वाम दलों और मनमोहन सिंह सरकार के बीच टकराव की नौबत 2009 के चुनाव से कुछ महीने पहले तब आई, जब अमेरिका के साथ परमाणु ऊर्जा को लेकर समझौता होना था। वामपंथी दल इस समझौते के सख्त खिलाफ थे जबकि मनमोहन सिंह ने इस समझौते को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था। वे हर हाल में इस समझौते को मूर्तरूप देने पर आमादा थे। यहां तक कि समझौता न होने की स्थिति में वे प्रधानमंत्री पद छोडने के लिए भी तैयार हो गए थे। वे इस मामले में वाम दलों के दबाव में नहीं आए और आखिरकार वाम दलों ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया।

वामपंथी दलों के समर्थन वापस लेने के साथ ही मनमोहन सिंह की सरकार अल्पमत में आ गई, लेकिन उसने जोड़तोड़ के जरिए किसी तरह अपना बचा हुआ कार्यकाल पूरा किया। कांग्रेस के नेतृत्व में यह पहली गठबंधन सरकार थी और इसने अपना कार्यकाल पूरा किया था। इसी पूरी पृष्ठभूमि में हुआ पंद्रहवीं लोकसभा के लिए 2009 का आम चुनाव।


अनिल जैन वरिष्‍ठ पत्रकार हैं और मीडियाविजिल के लिए आम चुनावों के इतिहास पर श्रृंखला लिख रहे हैं