बिसात-1971 : जब देश ने देखा इंदिरा गांधी का मोहिनीअट्‌टम

अनिल जैन
काॅलम Published On :


बरतानवी हुकूमत से देश के आजाद होने के साथ ही जिस तरह महात्मा गांधी की कांग्रेस अनौपचारिक रूप से समाप्त हो गई थी, ठीक उसी तरह जवाहरलाल नेहरू की कांग्रेस भी उनकी मौत के चंद साल बाद यानी 1969 में आते-आते खत्म हो गई और उसकी जगह इंदिरा गांधी की कांग्रेस ने ले ली। 1971 के आम चुनाव से कोई डेढ़ साल पहले एक ऐसी घटना हुई जिससे कांग्रेस के विभाजन पर आधिकारिक मुहर लग गई। यह घटना थी अगस्त 1969 में हुआ राष्ट्रपति चुनाव। इस चुनाव में इंदिरा गांधी बाबू जगजीवन राम को कांग्रेस का उम्मीदवार बनाना चाहती थीं लेकिन लेकिन कांग्रेस संसदीय बोर्ड की बैठक में उनकी नहीं चली। निजलिंगप्पा, एस.के. पाटिल, कामराज और मोरारजी देसाई जैसे दिग्गज कांग्रेसी नेताओं की पहल पर नीलम संजीव रेड्डी राष्ट्रपति पद के लिए कांग्रेस के आधिकारिक उम्मीदवार बनाए दिए गए। यह एक तरह से इंदिरा गांधी की हार थी। संसदीय बोर्ड के फैसले के बाद इंदिरा गांधी भी नीलम संजीव रेड्‌डी की उम्मीदवारी की एक प्रस्तावक थीं लेकिन उन्हें रेड्डी का राष्ट्रपति बनना गवारा नहीं था। इसी बीच तत्कालीन उपराष्ट्रपति वराहगिरी व्यंकट गिरि (वीवी गिरि) ने अपने पद से इस्तीफा देकर खुद को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया। स्वतंत्र पार्टी, समाजवादियों, कम्युनिस्टों, जनसंघ आदि सभी विपक्षी दलों ने वीवी गिरि को समर्थन देने का एलान कर दिया। चुनाव के ऐन पहले इंदिरा गांधी भी पलट गईं और उन्होंने कांग्रेस में अपने समर्थक सांसदों-विधायकों को रेड्डी के बजाय गिरि के पक्ष में मतदान करने का फरमान जारी कर दिया। इंदिरा गांधी के इस पैंतरे से कांग्रेस में हड़कंप मच गया। वीवी गिरि जीत गए और कांग्रेस के अधिकृत उम्मीदवार संजीव रेड्डी को दिग्गज कांग्रेसी नेताओं का समर्थन हासिल होने के बावजूद पराजय का मुंह देखना पड़ा। वीवी गिरि की जीत को इंदिरा गांधी की जीत माना गया।

निर्धारित समय से एक साल पहले हुए चुनाव

 

इस घटना के बाद औपचारिक तौर पर कांग्रेस दोफाड़ हो गई। बुजुर्ग कांग्रेसी दिग्गजों ने संगठन कांग्रेस नाम से अलग पार्टी बना ली। इंदिरा गांधी के लिए यह बेहद मुश्किलों भरा दौर था। उनकी सरकार अल्पमत में आ गई थी। अपने समक्ष मौजूदा राजनीतिक चुनौतियां का सामना करने के लिए इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने और पूर्व राजा-महाराजाओं के प्रिवी पर्स के खात्मे जैसे कदम उठाकर अपनी साहसिक और प्रगतिशील नेता की छवि बनाने की कोशिश की। अपने इन कदमों से वे तात्कालिक तौर पर कम्युनिस्टों को रिझाने में भी कामयाब रहीं और उनकी मदद से ही वे अपनी सरकार के खिलाफ लोकसभा में आए अविश्वास प्रस्ताव को भी नाकाम करने में सफल हो गईं। लेकिन इसी दौरान उन्हें यह अहसास भी हो गया था कि बिना पर्याप्त बहुमत के वे ज्यादा समय तक न तो अपनी हुकूमत को बचाए रख सकेंगी और न ही अपने मनमाफिक कुछ काम कर सकेंगी, लिहाजा उन्होंने बिना वक्त गंवाए नया जनादेश लेने यानी निर्धारित समय से पहले ही चुनाव कराने का फैसला कर लिया। दिसंबर, 1970 में उन्होंने लोकसभा को भंग करने का एलान कर दिया। इस प्रकार जो पांचवीं लोकसभा के लिए चुनाव 1972 में होना था, वह एक साल पहले यानी 1971 में ही हो गया। इस चुनाव में इंदिरा गांधी ने अपनी गरीब नवाज की छवि बनाने के लिए ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया। बैंकों के राष्ट्रीयकरण और प्रिवी पर्स के खात्मे के कारण उनकी समाजवादी छवि तो पहले ही बन चुकी थी। विपक्षी दलों के पास इस सबकी कोई काट नहीं थी। गैर-कांग्रेसवाद का नारा देने वाले डॉ. राममनोहर लोहिया के निधन के बाद इंदिरा गांधी का मुख्य मुकाबला बुजुर्ग संगठन कांग्रेसियों से था। चूंकि राज्यों में संविद सरकारों का प्रयोग लगभग असफल हो चुका था, लिहाजा देश ने इंदिरा गांधी में ही अपना भरोसा जताया। चुनाव में कम्युनिस्टों को छोड़कर संगठन कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों की बुरी तरह हार हुई।

‘गूंगी गुड़िया’ ने सबके दांत खट्टे कर दिए

1971 के लोकसभा चुनाव को बतौर मतदाता 27 करोड़ 42 लाख लोगों ने देखा। इनमें 14.36 करोड़ पुस्र्ष और और 13.06 करोड़ महिलाएं थीं। मतदान का प्रतिशत 55.27 रहा यानी करीब 15 करोड़ लोगों ने मताधिकार का उपयोग किया। जिन इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनने के बाद विरोधियों ने ‘गूंगी गुड़िया’ कहा था, उन्हीं इंदिरा गांधी ने इस चुनाव में अपने आक्रामक अभियान से विपक्ष के दांत खट्टे कर दिए। उनकी पार्टी कांग्रेस को दो-तिहाई से भी ज्यादा यानी 352 सीटों पर जीत मिली। वोटों में भी करीब तीन फीसदी का इजाफा हुआ। कांग्रेस को 43.68 फीसदी वोट हासिल हुए। उसके कुल 441 उम्मीदवार चुनाव मैदान में थे जिनमें से सिर्फ चार की जमानत जब्त हुई। इस चुनाव में संगठन कांग्रेसियों के पैरों तले जमीन खिसक गई। उनके 238 उम्मीदवारों में से मात्र 16 जीते ओर उसमें भी 11 गुजरात से जीते थे। संगठन कांग्रेस के 114 उम्मीदवारों को जमानत गंवानी पड़ी। पार्टी को प्राप्त मतों का प्रतिशत 10.43 रहा। जनसंघ को भी झटका लगा लेकिन वह 1967 के चुनाव में मिली 35 में से 22 सीटें जीतने में कामयाब रहा। उसे 7.35 प्रतिशत वोट मिले। उसके कुल 157 उम्मीदवार चुनाव मैदान मे थे जिनमें से 45 की जमानत जब्त हो गई थी। सोशलिस्टों और स्वतंत्र की पार्टी हालत तो और भी खराब रही। प्रजा समाजवादी पार्टी, सोशलिस्ट पार्टी और स्वतंत्र पार्टी तीनों को मिलाकर मात्र 13 सीटें मिली। तीनों का वोट प्रतिशत भी करीब 6.5 रहा। इनके 215 उम्मीदवारो में से 132 की जमानत जब्त हो गई थी। इन सबके विपरीत कम्युनिस्टों की सीटों में जरूर इजाफा हुआ। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) को 25 सीटों पर जीत मिली जबकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) भी अपनी 23 सीटें बचाए रखने में सफल रही। इन दोनों को मिलाकर करीब 10 फीसदी वोट मिले। माकपा के 85 में से 31 की और भाकपा के 87 में से 33 प्रत्याशियों की जमानत जब्त हुई। इस चुनाव की खास बात यह रही कि आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु मे दो क्षेत्रीय शक्तियो ने असरदार उपस्थिति दर्ज की। आंध्र में तेलंगाना प्रजा समिति को 10 सीटों पर जीत मिली जबकि तमिलनाडु में द्रविड़ मुनेत्र कषगम (द्रमुक) के खाते में 23 सीटें आई। इस चुनाव में 14 निर्दलीय भी जीते। चुनाव में कुल 2784 उम्मीदवारों ने अपना भाग्य आजमाया था जिनमें से 1707 की जमानत जब्त हो गई थी।

दो राष्ट्रपति, चार प्रधानमंत्री और दर्जन भर मुख्यमंत्री

पांचवीं लोकसभा के चुनाव में जो दिग्गज लोकसभा पहुंचे उनमें से दो नेता ऐसे थे जो बाद में देश के राष्ट्रपति बने, जबकि उनमें चार नेताओं ने देश के प्रधानमंत्री का पद संभाला। कांग्रेस के टिकट पर असम की बारपेटा सीट से फखस्र्द्दीन अली अहमद और मध्यप्रदेश के भोपाल से डॉ. शंकरदयाल शर्मा की जीत हुई। तीसरी बार देश की प्रधानमंत्री बनीं इंदिरा गांधी तो रायबरेली से जीती ही, संगठन कांग्रेस के दिग्गज मोरारजी देसाई भी गुजरात की सूरत सीट से लगातार चौथी बार चुनाव जीतने में सफल रहे और 1977 के ऐतिहासिक सत्ता परिवर्तन के तहत देश के प्रधानमंत्री बने। कांग्रेस से बगावत कर 1989 में देश के प्रधानमंत्री बने विश्वनाथ प्रताप सिंह भी इसी चुनाव में उत्तर प्रदेश के फूलपुर से जीतकर पहली बार लोकसभा में पहुंचे थे। जनसंघ के दिग्गज नेता अटल बिहारी वाजपेयी इस बार मध्य प्रदेश की ग्वालियर सीट से जीतकर लोकसभा में पहुंचे और 1998 से 2004 तक देश के प्रधानमंत्री रहे। जवाहरलाल नेहरू और लालबहादुर शास्त्री के निधन के बाद थोड़े-थोड़े समय के लिए देश के कार्यवाहक प्रधानमंत्री रहे गुलजारी लाल नंदा भी हरियाणा की कैथल सीट से लोकसभा में पहुंचे। इंदिरा गांधी ने रायबरेली से चुनाव मशहूर समाजवादी नेता राजनारायण को मतों के भारी अंतर से हराया था लेकिन इंदिरा गांधी की यही जीत आगे चलकर उनके राजनीतिक पतन का कारण भी बनी। राजनारायण ने इंदिरा गांधी के निर्वाचन की वैधता को इलाहबाद हाई कोर्ट में चुनौती दी। कोर्ट ने राजनारायण के आरोपों को सही पाया था और इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध करार देते हुए उन्हें पांच वर्ष के लिए कोई भी चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य करार दे दिया था।

1971 के चुनाव में ही करीब एक दर्जन ऐसे नेता भी लोकसभा में पहुंचे जो बाद में विभिन्न राज्यों में मुख्यमंत्री बने। इलाहाबाद से कांग्रेस के टिकट पर जीतकर पहली बार हेमवती नंदन बहुगुणा भी लोकसभा में पहुंचे। कांग्रेस के ही टिकट पर मध्य प्रदेश की इंदौर सीट से प्रकाशचंद सेठी, बिहार की मधुबनी सीट से जगन्नाथ मिश्र, भागलपुर से भागवत झा आजाद, असम की जोरहाट सीट से तरुण गोगोई, ओडिशा की कटक सीट से जानकी बल्लभ पटनायक, मैसूर की मांडवा सीट से एसएम कृष्णा, पश्चिम बंगाल की रायगंज सीट से सिद्घार्थ शंकर राय, हिमाचल की मंडी सीट से वीरभद्र सिंह भी लोकसभा में पहुंचे और बाद में अपने-अपने राज्यों के मुख्यमंत्री बने। बिहार के मुख्यमंत्री रहे विनोदानंद झा भी बिहार के दरभंगा लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस के टिकट पर जीते थे।

Historic cartoon on Emergency by Abu Abraham (Indian Express). President Fakhruddin Ali Ahmed from bathtub signing emergency orders

1967 में स्वतंत्र पार्टी से और उससे पहले कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा पहुंचती रहीं ग्वालियर राजघराने की विजयाराजे सिंधिया 1971 के चुनाव में जनसंघ के टिकट पर मध्य प्रदेश के भिंड क्षेत्र से लोकसभा में पहुंचीं। इसी चुनाव में उनके बेटे माधवराव सिंधिया मध्य प्रदेश के ही गुना संसदीय क्षेत्र से लोकसभा में पहुंचने में कामयाब रहे। माधवराव ने भी जनसंघ के टिकट पर ही चुनाव लड़ा था और यह उनका पहला चुनाव था। इंडियन एक्सप्रेस समूह के मालिक रामनाथ गोयनका भी मध्य प्रदेश के विदिशा संसदीय क्षेत्र से जनसंघ के टिकट पर चुनाव लड़े थे। उन्होंने कांग्रेस के मणिभाई पटेल को हराया था।

पश्चिम बंगाल के डायमंड हार्बर से भाकपा नेता ज्योतिर्मय बसु और अलीपुर सीट से इंद्रजीत गुप्त जीते तो बर्दमान से माकपा के सोमनाथ चटर्जी और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर महाराष्ट्र की राजापुर सीट से मधु दंडवते भी पहली बार लोकसभा में पहुंचे। महाराष्ट्र की ही सतारा सीट से कांग्रेस के यशवंतराव बलवंतराव चव्हाण भी चुनाव जीतने मे सफल हुए। कलकत्ता दक्षिण से जीतकर प्रियरंजन दास मुंशी लोकसभा मे पहुंचे। बिहार की सासाराम सीट से बाबू जगजीवनराम लगातार पांचवीं बार लोकसभा में पहुंचे। गुजरात की गोधरा सीट से स्वतंत्र पार्टी के टिकट पर पीलू मोदी जीते। रायपुर से एक बार फिर विद्याचरण शुक्ल विजयी हुए। माकपा नेता ए.के. गोपालन केरल की पालघाट सीट से चुनाव जीतने मे कामयाब रहे। नैनीताल से कांग्रेस के टिकट पर एक बार फिर कृष्णचंद्र पंत जीते। इसी चुनाव में कांग्रे्रस के के.पी. उन्नीकृष्णन भी केरल से लोकसभा में पहुंचे। पांडिचेरी से मोहन कुमार मंगलम भी कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीतकर लोकसभा में पहुंचे। कांग्रेस की ओर से ही उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ से राजा दिनेश सिंह और लखनऊ से शीला कौल भी चुनाव जीतीं। शाहजहांपुर से जीतेन्द्र प्रसाद फतेहपुर संसदीय क्षेत्र से विश्वनाथ प्रताप सिंह के बड़े भाई संतबख्श सिंह जीते। सुभद्रा जोशी इस चुनाव में दिल्ली की चांदनी चौक सीट से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीतीं। पूर्वी दिल्ली से कांग्रेस के एचकेएल भगत भी चुनाव जीतकर पहली बार लोकसभा में पहुंचे। मद्रास-दक्षिण से द्रमुक के मुरासोली मारन भी चुनाव जीते थे। इसी चुनाव में कांग्रेस के सीके जाफर शरीफ मैसूर की कनकपुर सीट से जीतकर लोकसभा में पहुंचे थे। पांचवीं लोकसभा में शरद यादव भी पहुंचे थे लेकिन 1974 में उपचुनाव के जरिए। यह उपचुनाव उन्होंने मध्य प्रदेश की जबलपुर सीट से जीता था जो सुप्रसिद्घ हिंदीसेवी सेठ गोविंददास के निधन से खाली हुई थी।

इंदिरा की आंधी में कई दिग्गज खेत रहे
Balasaheb-taking-a-dig-at-Indira-Gandhis-Garibi-Hatao-Slogan

इस चुनाव मे इंदिरा गांधी के करिश्मे के चलते विपक्ष के कई नेता बुरी तरह खेत रहे। जिन दिग्गज कांग्रेसियों ने इंदिरा गांधी के खिलाफ बगावत कर संगठन कांग्रेस नाम से अलग पार्टी बनाई थी उनमें से अधिकतर को हार का सामना करना पड़ा। मोरारजी देसाई को छोड़कर लगभग संगठन कांग्रेस के सभी बड़े नेता चुनाव हार गए। आंध्र प्रदेश की अनंतपुर सीट से दिग्गज संगठन कांग्रेसी नीलम संजीव रेड्डी को एक अदने कांग्रेसी ए.आर. पोन्नायट्टी ने हरा दिया। बिहार के बाढ़ लोकसभा क्षेत्र से संगठन कांग्रेस के टिकट पर चुनाव मैदान में उतरीं तारकेश्वरी सिन्हा को कांग्रेस के धर्मवीर सिंह ने हराया। अशोक मेहता, सुचेता कृपलानी और अतुल्य घोष ये सब के सब कांग्रेस छोड़ संगठन कांग्रेस के टिकट पर चुनाव ल़ड़े और पराजित हुए। अशोक मेहता को महाराष्ट्र की भंडारा सीट से कांग्रेस के ज्वाला प्रसाद दुबे ने हराया। सुचेता कृपलानी फैजाबाद से कांग्रेस के रामकृष्ण सिन्हा के हाथों पराजित हुई। अतुल्य घोष को आसनसोल से माकपा के राबिन सेन ने हराया। कई दिग्गज सोशलिस्ट नेताओं को भी हार का सामना करना पड़ा। बिहार की मुंगेर लोकसभा सीट से मधु लिमये को कांग्रेस के देवनंदन प्रसाद यादव ने हराया था। मणिराम बागड़ी हरियाणा की हिसार सीट से और रवि राय ओडिशा की पुरी सीट से हार गए। रवि राय को कांग्रेस के जेबी पटनायक हराया। ओडिशा की ही संबलपुर सीट से किशन पटनायक भी हारे।  राजस्थान के बाडमेर से जनसंघ के भैरोसिंह शेखावत भी हारे। उन्हें कांग्रेस के अमृत नाहटा ने हराया। भाकपा नेता एबी बर्धन भी 1971 का चुनाव हारे थे। उन्हें महाराष्ट्र की नागपुर सीट से फारवर्ड ब्लाक के जेबी भोटे ने हराया था। भाकपा की ही रेणु चक्रवर्ती और अरुणा आसफ अली भी चुनाव हार गई थी। रेणु को माकपा के मोहम्मद इस्माइल ने और अरुणा आसफ अली को बांग्ला कांग्रेस के सतीशचंद्र सामंत ने हराया था।

‘गरीबी हटाओ’ का नारा खूब चला और देश की राजनीति में इंदिरा गांधी का दबदबा कायम हो गया। देश में यह सवाल उठना बंद हो गया कि नेहरू के बाद कौन? सबको जवाब मिल गया कि सिर्फ और सिर्फ इंदिरा गांधी। लेकिन इंदिरा का गांधी का असली करिश्मा इस आम चुनाव के बाद तब दिखा जब पाकिस्तान के खिलाफ बांग्लादेश का मुक्ति संग्राम जीतकर वे दक्षिण एशिया में एक सशक्त नेता के तौर पर उभरीं। अटल बिहारी वाजपेयी जैसे मुखर विपक्षी नेता ने भी उन्हें ‘दुर्गा का अवतार’ कहा। लेकिन इन उपलब्धियों ने इंदिरा गांधी को थोड़े ही समय में निरंकुश बना दिया। वे चाटुकारों से घिर गईं। इसका नतीजा यह हुआ कि उनका करिश्मा 1977 में खत्म हो गया।


लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं