बिहार चुनाव 2020 में जो नहीं हो सका वो बंगाल विधान सभा के आने वाले चुनाव में हो जाये तो भारत में चुनावों पर और खास कर लोक सभा चुनाव 2014 के बाद से पैनी नज़र रखने वाले जानकार लोगो को बहुत अचरज नही होगा. उनमें करीब तीन बरस से जारी इस कॉलम का स्तम्भकार भी शामिल है।
वैसे भी, राजधानी के कोलकाता अवस्थित राइटर्स बिल्डिंग से राष्ट्रीय तिरंगा इतना जल्द नहीं उतरने वाला है। 2014 के लोक सभा चुनाव के बाद केंद्र में नरेन्द्र मोदी सरकार के काबिज हो जाने के इतने बरस गुजर जाने के बाद भी दिल्ली के लाल किला से राष्ट्रीय तिरंगा उतार कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का भगवा ध्वज नहीं लहराया जा सका है। आरएसएस के सर्वश्रेठ प्रचारक होने का रुतबा हासिल कर चुके मोदी जी को भारत के स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष्य में लाल किला पर पारंपरिक रूप से तिरंगा ध्वजारोहण के लिये मन मार के ही सही, लेकिन जाना ही पडता है। वह प्रधानमंत्री पद पर भारत के संविधान के तहत काबिज हैं जिसके तहत तिरंगा भी 16 अगस्त 1947 से लाल किला पर लहराता रह्ता है। ये दीगर बात है कि मोदी सरकार ने स्वघोषित धनाभाव में लाल किला को भी उसकी देखरेख के बहाने डालमिया उद्योग समूह की एक कम्पनी को ठेका पर दे दिया है।
हम सिफोलॉजिस्ट या भविष्यवक्ता नहीं है। न ही हम सुप्रीम कोर्ट के रिटायर हो चुके स्वनामधन्य जस्टिस मार्कंडेय काटजू की तरह ऐलानिया कह देंगे कि इस बार के बंगाल चुनाव में मोदी जी की भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की जीत निश्चित है। लेकिन हम इस सम्भावना से साफ इंकार भी नहीं कर सकते कि इस बिल्डिंग पर आरएसएस के भगवाध्वज वाहक अभी या कभी भी काबिज हो ही नहीं सकते हैं।
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की आल इंडिया तृणमूल कान्ग्रेस (टीएमसी) ने राज्य विधान सभा के 2016 में हुए पिछले चुनाव में कुल 295 सीट में से 211 सीटें जीती थी। भाजपा को इस चुनाव के जरिये सदन में स्पष्ट हासिल करने के लिये 143 सीट ही जीतने की जरुरत है। बंगाल के मौजूदा सामाजिक – राजनीतिक परिदृश्य में ये कठिन लक्ष्य हो सकता है, लेकिन इस लक्ष्य की प्राप्ति असम्भब कतई नहीं कही जा सकती है।
हम इस कॉलम के पिछले ही अंक में इस तथ्य को रेखांकित कर चुके हैं कि टीएमसी ने 2011 के विधान सभा चुनाव में कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था। इस गठबंधन की बदौलत टीएमसी ने मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के जादुई नेता ज्योति बसु की अगुवाई में 1977 के विधान सभा चुनाव के बाद कायम ‘ लाल राज ‘ का 34 बरस का सिलसिला खात्म कर दिया था। यही नहीं टीएमसी को विधान सभा में अपने बूते बहुमत हासिल हो गया। उसको कांग्रेस के समर्थन की बैशाखी पर टिकने की जरुरत नहीं रही। तब से अभी तक राइटर्स बिल्डिंग पर लगातार टीएमसी ही काबिज है। बंगाल में लाल राज खत्म होने पर कांग्रेस, भाजपा और अमेरिका की पूंजीवादी निज़ाम समेत बहुतों को अंदर से बहुत खुशी हुई थी.
पुलवामा कांड बाद पूरे देश में उठी राष्ट्रवाद की चुनावी लहर बंगाल में भी चली। 2019 के चुनाव में राज्य में भाजपा के 18 लोक सभा सदस्य निर्वाचित हुए थे। भाजपा के तब के अध्यक्ष अमित शाह ने 42 में से 22 लोक सभा सीटों पर अपनी पार्टी की जीत का लक्ष्य निर्धारित किया था। 2014 में मिली दो सीटों के मुकाबले यह बड़ी सफलता थी और पार्टी के सरकार बना लेने के दावे का यही आधार भी बना है।
वाम मोर्चा
वामपंथी मोर्चा ने तब दो ही सीट जीती थी. पर उसका वोट शेयर कांग्रेस और भाजपा से भी बहुत ज्यादा करीब 29 प्रतिशत था. इस बार के चुनाव के लिए वाम मोर्चा ने कांग्रेस के साथ पहली बार औपचारिक गठबंधन करने की घोषणा की है। संभव है कि यह बिहार में सभी संसदीय कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा समर्थित महागठबंधन का भी रूप ग्रहण कर ले। जाहिर है तब इस महागठबंधन का वोट शेयर टीएमसी से बढ़ सकता है।
फिल्मकार आनंद पटवर्धन ने राज्य में भाजपा को सत्ता पर काबिज होने से रोकने के लक्ष्य की प्राप्ति सुनिश्चित करने के लिए इस महागठबंधन में टीएमसी को भी शामिल करने का सुझाव दिया है। उनके अनुसार बिहार चुनाव का यही पैगाम है कि सभी धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक पार्टियों को चुनाव में एकजुट हो जाना चाहिए. उन्होंने कहा तो नहीं है पर इशारा साफ़ है कि बिहार में भाजपा को अपने दम पर सत्ता में आने में कामयाबी नहीं मिली और उसे जनता दल यूनाइटेड ( जदयू ) के विधायक अपने से कम होने के बावजूद नीतिश कुमार को ही मुख्यमंत्री बने रहने देना पड़ा। उनको शायद लगता होगा कि बंगाल में भाजपा अपने बूते पर भी राज्य की सत्ता में दाखिल हो सकती है।
हम इस कॉलम के अगले अंक में इसका परीक्षण करेंगे कि टीएमसी वाकई में कितनी ताकतवार, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष रह गई है। फिलहाल इतना जरूर कह सकते है कि बंगाल चुनाव के कार्यक्रम की निर्वाचन आयोग ने अभी घोषणा नहीं की है। चुनाव कार्यक्रम की घोषणा के बाद ही राज्य में किसी भी गठबंधन के कागजी ताकत से जमीनी ताकत के रूप में उभरने का मौक़ा मिल सकता है।
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*मीडिया हल्कों में सीपी के नाम से मशहूर चंद्र प्रकाश झा 40 बरस से पत्रकारिता में हैं और 12 राज्यों से चुनावी खबरें, रिपोर्ट, विश्लेषण के साथ-साथ महत्वपूर्ण तस्वीरें भी जनता के सामने लाने का अनुभव रखते हैं।