कोरोना काल: भूख, पलायन और घरेलू हिंसा की अविरल पीड़ा से जुझती महिलाएँ

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कल्याणी सिंह

स्त्री, समाज का एक अभिन्न अंग है, ऐसा कुछ लोग समझतें है, शायद उसमें आप, हम और मैं भी शामिल हो सकते हैं, लेकिन क्या हमारी ये स्त्रियों वाली तस्वीर सब देखना पसंद करेंगे, जिसमें वों स्त्रियाँ भी शामिल हैं जिनके नहीं आने से बड़ी स्त्रियाँ, कहने का अर्थ है कि वो स्त्रियाँ जो हमारी अर्थव्यवस्था को संभालती है, जो बिल्डर है, बिज़नेस वीमेन है जिनसे ये समस्त इकॉनमी धड़ल्ले से चलती हैं, वो स्त्रियाँ जो हमें परदे पर हँसाती और गुदगुदाती हैं, वो जिन्हें देखकर हम भी उन्हीं की तरह बनना चाहते हैं, वो तमाम औरतें जिनके घर उन स्त्रियों के बिना चलना बिलकुल ही नामुमकिन है, क्योंकि यदि “वो” स्त्रियाँ नहीं होंगी तो शायद “ये” भी नहीं होंगी.  आज उन्हीं स्त्रियों की कहानी मैं आपको दिखाने और सुनाने जा रही हूँ.

यही, स्त्रियाँ समाज के पिछड़े और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग से आकर समस्त देश और दुनिया को बनाती हैं. परन्तु हम उन्हें देख क्यों नहीं पाते, ये समाज उनको क्यों भूल जाता है, जो इस समाज को बनाने में अपना जी जान तक लगा देती हैं, फिर भी उनकी अस्मिता तार-तार क्यों होती रहती हैं, खासकर महिला मजदूरों की जो उन तमाम सामाजिक मुश्किलों को उठाते हुए इस कार्य को पूरा करती हैं.

यदि हम वास्तविकता को देखने का प्रयास करें, तो हमें यह स्पष्ट दिखता है कि महिला मजदूरों की तादाद कम नहीं है और ना ही इनकी पलायन क्षमता. लगातार इनका पलायन होता रहा है छोटे शहरों से बड़े शहरों में, जिसके कारण इन्हें काफी मुसीबतों का सामना करना पड़ता हैं; और जिसे वो कभी सोच भी नहीं पाती है.

गरीबी और लाचारी इस पलायन का सबसे बड़ा कारण है. देखा जाए तो, भारत, जैसे देश में इस पलायन को बहुत बड़ा माना भी नहीं जाता हैं. कुछ विद्वान इसे पलायन तो कहते हैं, लेकिन आम तौर पर ये पलायन की शक्ल में, आधी आबादी का एक जगह से दूसरी जगह विस्थापन होता है जिसमे उनके घर बार, खेत खलिहान यहाँ तक की कृषि आधारित जिंदगी भी समाप्त हो जाती है जिसे ये औरतें चाह कर भी वापस नहीं याद कर पाती हैं. साथ ही उसमें जा भी नहीं पाती क्योंकि वापस जाने को उनके पास कुछ बचा नहीं होता हैं.

तो इस प्रकार, मजदूर मर्द हो या औरत, मजदूर-मजदूर है, जिसके बिना पर हमारी समस्त अर्थव्यवस्था खड़ी है और हमेशा खड़ी रहेगी. अगर, इसी अर्थव्यवस्था पर कोई आपदा आ जाए तो क्या मजदूर इसे छोड़कर भाग जायेंगे? क्या ऐसा है, नहीं ऐसा नहीं होता है, लेकिन, वही जब आपदा मजदूर वर्गों या कहे कि उन मजदूर स्त्रियों पर आती है, तो अर्थव्यवस्था उनसे लगातार पीछा छुड़ाने की कोशिश करती है.

बड़ी-बड़ी कम्पनियां इन्हें काम से निकाल बाहर करती हैं, क्योंकि उनके पास इन्हें रोकने या रखने की कोई व्यवस्था नहीं होती है. इसे, मैं उदहारण के साथ समझाना बेहतर समझूंगी.

कोरोना का कहर पूरी दुनिया पर गहरा होता जा रहा हैं, इसकी शुरुआत चीन के वुहान प्रान्त से हुई थी यही कारण है कि इसे वुहान वायरस के नाम से भी जाना जाता हैं. वैसे तो इसके कई नाम है कोविड-19 भी इसी का नाम हैं. परन्तु हमें नाम से नहीं, इससे फैले, सामाजिक और आर्थिक वैमनस्यता तथा सामाजिक दुर्भावना को देखने का प्रयास करना हैं.

कहीं न कहीं इस वायरस ने समाज कि छुपी हुई वास्तविकता को बहार आने दिया हैं, जिसे हम शायद कभी नहीं देख पाते. वैसे तो इस वायरस के कारण समस्त विश्व में ही लॉकडाउन है और उसका सीधा असर उन औरतों पर हो रहा है, जो घरों में बंद होने से पीड़ित हैं या जो मजदूरी करके अपना और अपने परिवार का पेट पालती हैं.  दोनों ही हालत में औरतों की ही स्थिति ख़राब है, लेकिन यदि हम उन मजदूर औरतों की बात करें तो हमें यह यकीन हो जाएगा कि ये औरतें उन तमाम औरतों से अलग और सबसे ज्यादा पीड़ित हैं.

पीड़ा मापने का कोई पैरामीटर नहीं होता, सबकी पीड़ा अपनी अपनी जगह उतनी ही महत्वपूर्ण और भयावह है, जितना हम शायद कभी सोच भी नहीं सकतें हैं.  इस “कोरोना वायरस” के प्रहार ने इन गरीब औरतों को दोहरे रूप से प्रताड़ित किया है, जिसे ये कभी नहीं भूल सकतीं, और न ही हम कभी भूल पाएंगे.

“मजदूरी” और “पलायन” का गहरा रिश्ता है जिसपर कई कहानियाँ और कई गीत बन चुके हैं और बनते रहेंगे. जैसे बिहार में या कहे तो समस्त पूर्वांचल में पलायन का यह गीत बहुत ही प्रचलित है,“रेलियाँ बैरन पिया को लिए जाए रे, रेलियाँ बैरन” इसमें भी कहीं न कहीं औरतों के अपने पति से बिछड़ने वाले दर्द को दिखाया गया है. इस तरह, पलायन, गरीबी के उस दर्द को प्रस्तुत करता है, जिसे औरतें आज से नहीं कब से देखती आ रही हैं. चाहे वो खुद के काम से संबंधित हो या फिर अपने पति के काम से. पलायन और मजदूरी का इतिहास उतना ही पुराना है, जितना अमीरी और गरीबी का, राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद का, शिक्षित और अशिक्षित का, जितना जाति और जातिवाद का, महिला और पुरुष का, युद्ध और शान्ति का, सभी एक दूसरे से जुड़े हुए है और हमेशा रहेंगे.

पलायन का मुद्दा उस दौर में भी था जब हम गुलामी की जंजीरों में जकड़े थे और ब्रिटिश साम्राज्य की गुलामी करते थे, फर्क बस इतना है कि तब मजदूरों और औरतों के लिए कोई सुविधायें नहीं थीं, और अब भी नहीं हैं, सिर्फ हम अब गुलाम नहीं रहे. पूंजीवाद की मशाल अब भी जल रही है जिसमें क्या औरत क्या मर्द सभी मजदूरी के नाम पर पिस रहे हैं और पिसते रहेंगे.

अंग्रेजों के समय महिला मजदूरों की स्थति बहुत ही ख़राब थी, वो आज भी नहीं सुधरी है. यदि हम उन दिनों चाय बागानों की हालत देखें तो पता चलता है कि किस तरह ये महिलायें राजमहल और छोटानागपुर के जंगलो से निकलकर अपने परिवार और खेत खलिहान को छोड़कर असम के चाय बगानों में आती थीं तथा जीने के लिए काफी मसक्कत करती थीं.

इन चाय बागानों में किसी भी प्रकार कि कोई सुविधाए नहीं होती थी, जैसा आज भी नहीं है, कानून तो बहुत बने लेकिन इनका उन मजदूर औरतों को पता तक नहीं था. उस चाय बगान में इन औरतों को “नेटवर्क थ्योरी” के द्वारा लाया जाता था, जिसमें खुद उनके गाँव के लोग शामिल होते थे, जो उनसे बात करके उन्हें बहला फुसलाकर, नौकरी या कमाई की बात बताकर राजमहल के उस जंगल से असाम के चाय बागानों में लाते थे. चूँकि चाय की पत्तियां काफी मुलायम होती है, इसके लिए छोटी और मुलायम उंगलियों कि जरूरत होती थी जिससे तेजी से और आसानी से इनके पत्तों को निकाला जा सके. इस काम को औरते मर्दों की तुलना में काफी अच्छा करती थीं. यही कारण था कि इस काम के लिए बड़ी संख्या में औरतों को लाया जाता था. ये औरतें, अपने बच्चों को घर में बांधकर तथा भूखे प्यासे छोड़कर आती थीं और छुट्टी के बाद ही जाकर उन्हें खिलाती थीं, क्योंकि उन्हें बीच में कभी छुट्टी नहीं मिलती थी. गर्मी हो या बरसात उन्हें सालों भर काम करना पड़ता था, ये उनकी मज़बूरी भी थी और लाचारी भी.

आज इसका स्वरुप घर के कामों,बिल्डिंग्स बनाने इत्यादि के लिए इख्तियार किया जाता है, जहाँ औरतें दूर दराज़ से आती तो हैं बड़े बड़े महानगरों में ये सोचकर कि उनका ये पलायन उन्हें स्थापित कर देगा और वे माइग्रेट (अर्थात, जब एक शहर से कोई दूसरे शहर में 10 साल रह जाता है या वहां बस जाता तो उसे माइग्रेशन कहा जाता है) कहलायेंगी, लेकिन ऐसा कभी नहीं होता.  क्योंकि या तो उनके साथ कभी कोई हादसा हो जाता है या तो उन्हें वो जगह ही छोड़ना पड़ता है, तो कभी-कभी पलायन तो नहीं हो पता लेकिन इसमें उनकी जान या कहें तो उनकी इज्जतत तार-तार हो जाती है.  जिसके कारण उन्हें वापस अपने उसी शहर में लौटना पड़ता है जहाँ से वो काफी उम्मीद लगाकर इस सपनों कि महानगरी में आती हैं.

कोरोना के कहर ने भी उनके साथ कुछ ऐसा ही किया और उन्हें “रिवर्स माइग्रेशन” की तरफ मोड़ दिया. ऐसा पलायन जिसका न कोई अंत है और न शुरुआत, जो वो भी कभी समझ नहीं पाईं.

भारत में लॉकडाउन, 22 मार्च 2020, से शुरू हुआ था जिसे हमारे पीएम ने “जनता कर्फ्यू” का नाम दिया. कुछ दिनों तक सब कुछ ठीक रहा, जनता ने घंटी बजाई, शंख बजाया, दिए तक जला दिए लेकिन कुछ दिनों बाद ही इन सबका असर दिखने लगा जिसमें एक बड़ी संख्या सड़क पर आ बैठी.

ये असल में कौन थे ?

इसमें माहिलायें, पुरुष और बच्चे भी सभी शामिल थे. थाली तो “बुजुर्वा” ने बजाई लेकिन इसकी असली खनक उन “सर्वहारा” के दिमाग में ऐसे बैठी कि वो भूख से छटपटाते हुए सड़क की तरफ भागे.  इसमें सबसे अधिक हालत ख़राब महिलाओं की थी, क्योंकि उनका आधार उनके पति और बच्चे थे, जिनके साथ वो इतनी दूर भूख और प्यास को छोड़कर इस ख्वाब के साथ आईं थीं कि रोजगार मिलेगा और दोनों जन कमाकर अपना और अपने बच्चो का पेट पालेंगे. लेकिन इस लॉकडाउन ने सरकार की रही सही पोल पट्टी खोल कर रख दी, जिसमें सिवाए भूख और पलायन के कुछ बचा नहीं था.

अत: इन महिलाओं ने भी अपनी हिम्मत खो दी और अपने पति बच्चों के साथ “रिवर्स माइग्रेशन” की तरफ बिना सोचे समझे बढ़ती चली गईं, जो इन्होंने कभी नहीं सोचा था. इस पलायन का सीधा अर्थ यही है कि पलायन तो काम को या शहरी जनसंख्या को बढ़ावा देता है, वही “ रिवर्स माइग्रेशन” उस जनसंख्या को एक झटके में वापस वहीं भेज देता है जहाँ से वो आये हैं.  लेकिन इस पलायन का न कोई आदि होता है न अंत. क्योंकि इसमें कितने पहुचेंगे या कितने वापस आयेंगे इसकी न तो सूचना मिलती है और न ही कोई निश्चितता होती है. एक ऐसा पलायन जिसमें एक वर्ग अपनी स्थिति को न तो स्वीकार कर पता है और न ही अस्वीकार.

चूंकि, भारत, एक विकाशील देश है तो यहाँ सस्ते मजदूरों कि माँग हमेशा रहती है और रहेगी, उसमें भी सस्ती महिला मजदूरों की माँग तो हमेशा ही रही है, भले ही क्षेत्र कोई भी हो, वो “संघठित” हो या “असंघटित” हो. सुविधाएँ तो कभी मिली नहीं लेकिन उनकी माँग हमेशा रही. यही कारण था कि उत्तर तथा मध्य भारत से बड़ी संख्या में महिलाएं अपने पति और बच्चों के साथ पश्चिम तथा दक्षिण की तरफ पलायन कीं. ये पलायन ऐसा हुआ कि इन औरतों का समस्त संसार यहीं बस गया परन्तु ये कभी उस संसार से खुश नहीं रहीं क्योंकि ये भी जानती थीं कि इसमें किसी प्रकार की कोई निश्चिंतता नहीं है.

इस प्रकार, भारत में लॉकडाउन का दौर चलता रहा 20 दिनों के अन्दर ही बड़ी दर्दनाक खबरें आने लगीं. जिसने कहीं ना कहीं मानवता को तार-तार कर दिया.

ऐसा कुछ लोग मानते हैं कि मानवता तार तार हुई, लेकिन वो ऐसा क्यों मानते हैं, कुछ का तो कहना है कि अगर कोई गरीब है तो उसमें हमारी क्या गलती है. हमने तो उसे गरीब या मजदूर नहीं बनाया. वहीं कुछ का मानना है कि लोग कुछ करते तो हैं नहीं केवल भाषण झाड़ना जानते हैं.

क्या ऐसा है?

नहीं, ऐसा नहीं है क्योंकि जो ऐसा कह रहे हैं उन्हें देखना होगा कि वो किस वर्ग से और कैसे माहौल से आते हैं, जिन्हें ये कहना तक गवारा नहीं गुजरता कि किसी का बच्चा सड़क पर मर रहा है और हम दिया जलाने में लगे हैं. इसे मैं कई उदाहरणों के साथ समझाने की कोशीश करुँगी;

बिहार की एक घटना है जो ठीक लॉकडाउन के 20 दिन बाद घटी, इसमें ये हुआ की एक माँ अपने बच्चे के इलाज के लिए बिहार के एक जिले, जहानाबाद, के सरकारी अस्पताल में गई, जहाँ के डाक्टर ने यह कह कर उस बच्चे को नहीं देखा कि उसे कोरोना है, और साथ ही वहां पर किसी तरह की व्यवस्था नहीं थी. उस बच्चे को निमोनिया की बीमारी थी और डाक्टर ने उसे कोरोना बताकर नहीं छुआ. इन हालातों में वो माँ अपने बच्चे को गोद में लेकर चारो तरफ सड़कों पर दौड़ती रही और अंत में उसके बच्चे ने वहीं दम तोड़ दिया.  उस माँ की हालत को हम कैसे बयां करें, जो अपने बच्चे को सामने मरता देखती रही और कुछ भी नहीं कर सकी.

दूसरी घटना, एक पत्नी की है जो अपने पति के साथ महाराष्ट्र से मध्य प्रदेश जा रही थी, रास्ते में उसके पति को गाड़ी ने कुचल दिया वो स्तब्ध रही वो कुछ नहीं कर पाई.

तीसरी घटना, फिर एक औरत की ही है जो इस लॉकडाउन में अपने पति को शराब पीने से रोक रही थी और पति ने उसे गोली मार दी. इस बीच मैंने शराब की बात क्यों की और किसलिए?.  इसका उत्तर भी है मेरे पास क्योंकि इसी लॉकडाउन में सरकार ने अर्थवयवस्था को बचाने के लिए शराब बेचने का फैसला किया है, न कि उन मजदूरों और मजबूर औरतों को बचाने का फैसला किया जिनकी वजह से अम्बानी का “एंटीलिया” या दिल्ली का “संसद भवन” खड़ा है, सरकार के लिए उनकी जान उतनी महत्वपूर्ण नहीं है जितनी शराब से अर्थव्यवस्था को बचाना.

मेरा मकसद यहाँ शराब या अर्थवयवस्था को तो समझाना था ही, साथ ही उन औरतों की दशा से भी था जिनके लिए ये लॉकडाउन एक अभिशाप से कम नहीं हैं. जहाँ इस लॉकडाउन में भी वो काम के साथ-साथ अपने पति की मार भी सहती है. इस लॉकडाउन ने घरेलू हिंसा को भी जन्म दिया है, जिसे हम चाहकर भी अनदेखा नहीं कर सकते हैं. और रही बात शराब की तो इसे आप अर्थव्यवस्था को बचाने वाली कुंजी न समझें बल्कि ये तो, मजदूरों की हालत पर रचा हुआ एक तमाशा था, जिसे सबने देखा पर बोला किसी एक ने. पूंजीवाद के इस खेल में सर्वहारा हार गया और बुर्जुआ जीत गया, जो हमेशा से जीतता आया है और आता रहेगा. अपने पूंजीवादी अर्थो और दावपेंचो से. जहाँ शराब बेचना, एक बच्चे की जिंदगी बचाने से और मजदूरों तथा मजलूम औरतों को अपने ठिकानों तक पहुचाने से बड़ा है उस देश के लिए मजदूरों और मजदूर औरतों की इज्जत कभी बड़ी नहीं हो सकती है.

जहाँ, इस दौर में भी मजदूर औरतें अपने दो-तीन बच्चों को काँधे पर लिए 500 किलोमीटर चल रही हैं और जिन्हें सुरक्षित पहुंचाने में सरकार टिकट के पैसे मांगती है, जिसकी वजह से मजदूर पैदल ही अपने उस न ख़त्म होने वाली यात्रा पर चल पड़ते हैं और थकान की हालत में ट्रेन के नीचे आकर अपनी जान गवां बैठते हैं. क्या कहें इस हालत को?

जहाँ सब्जी बेचना गुनाह और शराब बेचना शराफत या कहे तो अर्थवयवस्था को बचाने का अनोखा तरीका है,

“बच्चे का माँ के गोद में मर जाना सही है लेकिन उसका सही इलाज कराना गलत,

जहाँ के संविधान में काम का अधिकार सबको है लेकिन सही में काम करना गलत,

जहाँ ताली बजाना और दिया जलाना सही है लेकिन अपने हक के लिए बोलना सड़क पर आना गलत”.

ऐसी कई बातें है, जो हम इस लॉकडाउन में देख रहे और सदियों से देखते आ रहे हैं और न जाने कब तक देखेंगे. जहाँ, संविधान के अनुक्छेद 41 में काम का अधिकार तथा अनुक्छेद 42 में काम करने के बेहतर हालत और मजदूर औरतों के लिए मातृत्व लाभ की बात कही गई है, लेकिन ये सारी बातें बेईमानी हो जाती हैं जब एक औरत अपने 2-2 बच्चों को कंधे पर लेकर बम्बई से मध्य प्रदेश, बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे जगहों की तरफ बढ़ रहीं हैं बिना किसी सुरक्षा और सहायता के. इस लाकडाउन में जहाँ सड़के वीरान हैं और हाथ में दो बिस्कुट के पैकेट के साथ वो अपना मिलों का सफ़र तय करती हुईं चली जा रही हैं उस ना ख़त्म होने वाले सफ़र पर जिसे उसने सोचा तो था लेकिन इस तरह नहीं.  जिसका न तो अंजाम पता है और न ही आधार.

बस ये बात कहती हुई चलती है कि, “क्या करें यहाँ रहेंगे तो मरेगे, कम से कम अपने घर पहुंच जायेंगे तो कुछ भी खाकर रह लेंगे”.

लेकिन किसे पता है कि वो पहुँच पाएंगी भी की नही. उनका ये सफ़र कभी ख़त्म भी होगा या नहीं, इस सफ़र का अंत सुखद होगा भी या नहीं. ऐसे बहुत सवाल हैं जो मैं इस लोकतांत्रिक सरकार पर छोड़कर जा रही हूँ. मुझे नहीं पता ये कब, कैसे और कहा पूरा होगा. इन्हें इंसाफ मिलेगा या नहीं, ये कभी अपने घर पहुंच पाएंगे या नहीं, बहुत सवाल हैं जिसका जवाब सिर्फ और सिर्फ सरकार जानती है. हमारे बस में बस एक ही चीज है,वो है इंसानियत, जिसके आधार पर हम उन्हें जहाँ हो जैसे हो मदद करेंगे या सरकार से उसकी गुहार लगायेंगे.


कल्याणी सिंह जामिया की पूर्व छात्रा हैं


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