सपा-बसपा के परशुराम प्रेम के राजनीतिक मायने

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सपा और बसपा द्वारा ‘परशुराम’ के प्रतीक को महत्व देना उन विचारों को मान्यता देना है जिनकी हिंदी क्षेत्र में वर्चस्वता है। आज दोनों पार्टियों ने सीधे तौर पर ‘परशुराम’ के प्रतीक को मान्यता दे दी है। लग रहा है कि दोनों पार्टियां ने बराबरी, समता को मानने वाले प्रतीकों और सामाजिक न्याय के सिद्धांत का त्याग कर दिया है। सपा ने अभी हाल में ही अम्बेडकर को अपने तस्वीरों में जगह दी थी और बसपा तो अपनी शुरुआत से ही अम्बेडकर और फुले के विचारों को अपने कार्यक्रमों जगह देती रही है, लेकिन आज के हालत यह हैं कि आज दोनों पार्टियां समता और बंधुत्व के विचारों के विपरीत एक ऐसे व्यक्तित्व को अपने कार्यक्रम मे जगह दे रही हैं जो विरोधाभासी विचारों पर आधारित व्यक्तित्व हैं। यह सपा और बसपा के एक दूसरी ही दिशा मे जाने की तरफ इशारा करता है। आइये विश्लेषण करते हैं कि आखिर ऐसा क्यूं हुआ?

दरअसल समझने का विषय है कि पिछले कुछ सालों मे ऐसा क्या हुआ है कि इन पार्टियों को ऐसा करने पर मजबूर होना पड़ा। इनके कारणों कि पहचान दो सिद्धांतों के आधार पर की जा सकती है जिसमें पहला सिद्धांत है इटली के महान विचारक एंटोनियो ग्राम्सी का ‘वर्चश्वता का सिद्धांत’ जो बताता है कि समाज में सिर्फ आर्थिक शक्तियां ही शासन नहीं करती हैं बल्कि समाज अभिजनों की संस्कृति, उनके धर्म, विचारों और रहन सहन के तौर तरीकों से संचालित होता है। अपने सिद्धांत में वह अभिजनों कि संस्कृति को ‘सांस्कृतिक वर्चस्व’ के नाम से सम्बोधित करते हैं। सांस्कृतिक वर्चस्व वह प्रक्रिया होती है जिसमें समाज के अभिजन समुदाय के विचारों का निम्नतर समुदायों पर वर्चस्व होता है या निम्नतर समुदाय खुद ही अभिजनों की संस्कृति को अपने पर आरोपित कर लेता है। दूसरा सिद्धांत है ‘अवलोकन का सिद्धांत’ जिसमें समाज में प्रतिदिन के जीवन में दिखने वाले तौर तरीकों, बिम्बों, तस्वीरों, घटनाओं और प्रक्रियाओं के आधार पर समाज की दृश्य संस्कृति का मूल्यांकन किया जाता है।

इन दो सिद्धांतों के माध्यम से आज की राजनीति को आसानी से समझा जा सकता है। इसमें कोई शक नहीं है कि उत्तर भारतीय समाज विशेषकर हिंदी क्षेत्र पिछले कई हजार सालों से रूढ़िबद्ध समाज रहा है, जिसमें सामाजिक परिवर्तन की दर बहुत धीमी रही है। यहाँ तक कि संविधान लागू होने के बाद भी इसमें कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं आया है।ऐसा इसलिए हुआ क्यूंकि समाज के रूढ़िवादी बने रहने में उन विचारों कि वर्चस्वता रही है जो मानते रहे कि समाज में वर्ण विभाजन और जातिगत विभाजन रहना चाहिए। धर्म, जाति, लिंग, क्षेत्र के आधार पर ऊंच नीच की व्यवस्था कायम रहनी चाहिए, समाज को भाग्यवादी रहना चाहिए। यह विचार इस मान्यता पर आधारित रहे कि समाज में संविधान के ऊपर शास्त्रों कि वर्चस्वता होनी चाहिए। ऐसे कई रूढ़िवादी विचार हैं जो आज भी कायम हैं। अब दूसरे सिद्धांत के माध्यम से इसे आप दृश्य संस्कृति या लोकप्रिय संस्कृति कह सकते हैं’ में देख सकते हैं और समझ सकते हैं कि कैसे आज भी समाज में ऐसे रूढ़वादी विचारों की वर्चस्वता है, जो इधर कुछ वर्षो से तेजी से बढ़ा है। आपको आये दिन ऐसी खबरें देखने को मिल जाएंगी जो इन्हीं रूढ़िवादी विचारों पर चलकर फलीभूत होती हैं।

अब आइये इन विचारों के आधार पर सपा और बसपा को परखने की कोशिश करते हैं। यह ज्ञात है कि पिछले तीन चुनाव में सपा और बसपा को हार का सामना करना पड़ा है जिसका एक बड़ा कारण दोनों पार्टियों के सत्ता में होने के दौरान उन विचारों के खिलाफ सीमित कार्य कर पाना जो समाज में अभिजनों के लोकप्रिय विचार थे। बसपा का तो उदय ही अभिजनों कि इस गैर बराबरी की लोकप्रिय संस्कृति के प्रतिरोध स्वरूप हुआ था। वह ज़ब भी सत्ता में रही उसने समाज में विद्यमान ‘लोकप्रिय संस्कृति’ के समानांतर एक और ‘प्रतिरोध की संस्कृति’ को खड़ा करने का प्रयास किया, लेकिन उसकी वैचारिक को वह आम जनता की संस्कृति में समाहित करने मे असफल रही। बसपा ने जो भी कार्य किये अभिजन समुदाय ने उसके मूल विचार को उलटकर आमजन में प्रसारित किया। जैसे दलित बसावटों में अम्बेडकर की मूर्तियों को ज़ब बसपा ने लगाया तो अभिजन समुदाय ने इस विचार को आम जनता में फैलाया कि अम्बेडकर सिर्फ दलित और उत्तर प्रदेश में सिर्फ एक जाति विशेष के नेता हैं और यह विचार आज भी आमजन मे कायम है। हाँ कुछ हद तक विश्वविद्यालय और उच्च शिक्षण संस्थानों में पढ़ने वाले छात्रों ने इस विचार को तोड़ा है लेकिन यह बहुत सिमित है। मायावती ने लखनऊ में समता और मानवता के समर्थक रहे कई महापुरुषों की मूर्तियां लगवाई, कई जिलों के नाम उन्होंने ऐसे ही लोगों के नाम पर रखे, कई सारी योजनाएं ऐसे महापुरुषों के नाम पर चलाई और भी कई कार्य मायावती ने ऐसे लोगों के नाम पर किये, लेकिन इसके पीछे जो वैचारिकी थी उसको बसपा दलित जातियों को छोड़कर अन्य जातियों में प्रसारित करने में नाकाम रहीं और उसकी वैचारिकी लोकप्रिय संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाई।

विपक्षी पार्टी सपा ने इन कार्यों को लोकप्रिय संस्कृति के खिलाफ बताया और इसे एक प्रकार का भ्रष्टाचार और पैसों की बर्बादी कहा। सपा ने बसपा के इन कार्यों के खिलाफ अगले चुनाव में वोट मांगे और सपा ने बहुमत से चुनाव जीता। सत्ता में आने के बाद अखिलेश सरकार ने बसपा सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों को या तो बंद कर दिया या उनका नाम बदल दिया, जैसे जिलों के नामकरण पहले वाले नामों से कर दिया। सावित्री बाई फुले के नाम से चलने वाली योजना को बंद कर दी, यहाँ तक की सपा ने लोकसेवा आयोग में त्रिस्तरीय आरक्षण को भी वापस ले लिया, प्रमोशन में आरक्षण का विरोध किया। ऐसा कई योजनाओं के साथ किया गया। सपा ने समाज में विद्यमान लोकप्रिय संस्कृति में अपना विश्वास व्यक्त किया और सामाजिक परिवर्तन के लिए कोई बड़ा कदम नहीं उठाया। सपा सरकार ने अपना विश्वास विकास परियोजना में जताया। अखिलेश सोचते रहे कि सिर्फ आर्थिक विकास के द्वारा वह सभी समस्याओं का समाधान कर सकते हैं और सभी वर्गो को संतुष्ट कर सकते हैं, लेकिन संस्कृतिगत समस्याएं सिर्फ आर्थिक समाधानों से नहीं समाप्त हो सकती हैं यह बात समझने में सपा चूक गई। यही वह समय था ज़ब केंद्र में भाजपा नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सत्ता आती आई जो समाज में विद्यमान विचारों की लोकप्रिय संस्कृति की वाहक है और जो फिर से कई सालों बाद उत्तर प्रदेश की सत्ता मे आना चाहती थी।

यहीं से वह प्रक्रिया शुरू होती हुई जो अम्बेडकर और लोहिया से शुरू होकर परशुराम तक पहुंच गई है। बसपा ने ज़ब देखा कि अपने सत्ता मे रहने के दौरान लोकप्रिय संस्कृति के विचारों का प्रतिरोध करने के बाद भी उसे अगले विधानसभा चुनाव, 2014 लोकसभा चुनाव और 2019 के चुनाव में जो उसने सपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ा, जिसमें उनके साथ अम्बेडकर, लोहिया, फुले आदि महापुरुषों प्रतीक स्वरुप भी थे, लेकिन चुनाव मे बसपा को भयानक पराजय का सामना करना पड़ा। जिसके बाद गठबंधन से बसपा अलग हो गई और एक दूसरी विचारधारा की तरफ निकल गई जो सत्ता और लोकप्रिय संस्कृति की समर्थक है। सपा ने सत्ता में आने के बाद संरचनागत विकास पर अपना ध्यान केंद्रित किया और बड़ी बड़ी विकास परियोजनाओं के तहत अनेक कार्य किये और “काम बोलता हैं” के नारे के साथ चुनाव लड़ा, लेकिन भाजपा के सांस्कृतिक विकास के आगे आर्थिक विकास हार गया।

जिस विचार ने सपा को ज्यादा नुकसान पहुंचाया वो था समाज में अभिजनों द्वारा यह विचार प्रसारित करना कि सपा ‘यादवों’ की पार्टी है, सब पदों पर सिर्फ ‘यादव’ हैं। नौकरी सिर्फ ‘यादवों’ को मिल रही है और उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग की परीक्षा में एक साथ 52 यादव एसडीएम पद पर चयनित हुए हैं। इस अफवाह ने तो आग में घी का काम किया और जनता सामाजिक अभिजनों के फैलाये जाल मे फंस गई और सरकार द्वारा बड़े पैमाने पर किये गए आर्थिक विकास को भूल गई और चुनाव के वक्त आमजन को केवल संस्कृतिगत समस्याएं याद रहीं और सपा चुनाव बुरी तरह हार गई। 2019 के लोकसभा चुनाव ने सपा और बसपा इस उम्मीद से एक साथ आई कि इससे दलित और पिछडी जातियाँ एक हो जाएंगी। इसको अभिजनों द्वारा यह कहकर प्रसारित किया गया कि यह सिर्फ दो जातियों का गठबंधन है। इस विचार ने भी आमजन में आसानी पैठ बना ली और ज़ब चुनाव के नतीजे आये तो यह संभावना सही निकली। इस चुनाव में सपा और बसपा गठबंधन के बावजूद उम्मीद से बहुत कम सीटें जीत पायी।

यहाँ से इन दोनों पार्टियों को समझ में आना शुरू हो गया कि ऐसा कौन सा वर्ग या जाति है जो आमजन की राय तय करती है। पिछले तीन चुनावों में भाजपा के पक्ष में जिस अभिजन समुदाय ने आमजन की राय बनाई है वह समुदाय है उच्चजातियों का समुदाय, उसमें भी विशेषकर ब्राह्मण समुदाय, जो समाज की आम राय को तय करने में अहम् भूमिका निभाता रहा है। यहाँ यह ज्ञात है कि सपा और बसपा बहुमत के साथ सत्ता में तब आये जब ब्राह्मण समुदाय की निष्ठा इन पार्टियों के साथ रही और उस समय भाजपा विकल्प के रूप में मौजूद नहीं थी। जैसे ही भाजपा मजबूत हुई ब्राह्मण समुदाय ने अपनी निष्ठा बदल ली और सपा बसपा दोनों कमजोर जो गईं। वर्तमान में सपा और बसपा कोशिश कर रही हैं कि अगर उसने ब्राह्मण समुदाय को अपने पाले में कर लिया तो अगले विधानसभा चुनाव का नतीजा अपने पक्ष में किया जा सकता है।

अब इसके लिए सपा और बसपा को लोकप्रिय संस्कृति यानि आमजन में विद्यमान विचारों को आत्मसात करते हुए जनता के बीच जाना पड़ सकता है। जिसकी यह शुरुआत भर है। आगे दोनों पार्टियां ‘सामाजिक न्याय के सिद्धांत’  की बात को पीछे करते हुए ‘रामराज्य’ के भीतर ही बात कर सकती हैं। यह बात दोनों पार्टियां समझ चुकी हैं। चूंकि सपा और खासकर बसपा ने उन प्रतीकों पर कार्य करके देख लिया है जो दलित और पिछड़ी जातियों को प्रभावित करते हैं और उसका परिणाम भी देख लिया है। तत्कालीन परिस्थितियां ऐसी हैं कि वह एक मौका विपक्ष की पार्टियों को दे रही हैं कि वह ‘परशुराम’ के प्रतीक को आगे करके ब्राह्मण समुदाय को अपने से जोड़ सके। यही कारण है कि सपा और बसपा एक नई राह पर चलने की कोशिश कर रही हैं जहाँ अब वह एक ऐसे समुदाय का समर्थन हासिल करना चाहती हैं जिनके विचारों को आमजन में मान्यता प्राप्त है, समाज में जिनकी वर्चस्वता है, जो किसी के भी पक्ष में अनुकूल माहौल बना सकते हैं। ऐसे हालात में सपा और बसपा द्वारा परशुराम के प्रतीक के पीछे खड़ा होना ताज्जुब की बात नहीं है।


गोविंद निषाद

गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, प्रयागराज के ‘विकास अध्ययन’ (development Studies) में शोध छात्र हैं।