क्या हमारे समाज को, अब दुःख का नया व्याकरण नहीं तलाशना चाहिए?

सौम्या गुप्ता सौम्या गुप्ता
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हम तारों की धूल हैं…

दो दिनों से मन में, जॉनी मिशेल एक अंग्रेज़ी गाने के बोल गूँज रहे हैं, रह रहकर बार बार उन्ही को गुनगुनाने का मन कर रहा है। वो बोल कुछ इस तरह हैं 

“ हम सब तो तारों की धूल हैं,

अरबों साल पुराने कार्बन सरीखे,

थोड़े सुनहरे से,

शैतान से सौदा कर यहाँ उलझे पड़े हैं,

और हाँ शायद इसलिए हमें ख़ुद लौटना होगा धूल बन,

इस बग़ीचे में वापिस” (*We are stardust..)

1970 में जब ये गीत लिखा गया था, तो शायद ही इसकी गीतकारा को अंदाज़ा होगा कि, आने वाले वक़्त में उनके बोल विज्ञान का एक ठोस सच बन जाएँगे। ग्रहों, उल्काओं और तारों के एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक कार्ल सेगन कहते थे कि ”ब्रह्मांड हमारे अंदर हैं। हम तारों से बने हैं। हम एक ज़रिया हैं जिस से ये ब्रह्मांड ख़ुद को समझ सकता है।“ मतलब वैज्ञानिकों के अनुसार ब्रह्मांड और पृथ्वी में जहां कहीं भी जीवन है, वो सब तारों की धूल से है। मरते हुए तारों या मरे हुए तारों के अंश से ही हम सब बने हैं। तो जब बॉलीवुड की फ़िल्मों में कहा जाता है कि मरने के बाद सब तारे बन जाते हैं, तब शायद सच ये होता है कि जब तारे मर जाते हैं तो हम बनते हैं। और इसी बॉलीवुड का एक और तारा, फिर धूल बन गया है। 

हमको अचानक से सुशांत की फ़िक़्र क्यों हो गई?

सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या पर लिखना बहुत मुश्किल है, क्योंकि शायद ही कुछ ऐसा होगा जो अभी तक महसूस नहीं किया गया होगा या कहा नहीं गया होगा। परसों से लगातार क़यास लगाए जा रहे हैं कि क्यों सुशांत ने ऐसा किया? इसके जवाब, कारण, सम्भावनाओं की अनेकों थेओरीज आप लोगों के पास पहुँच गयी होंगी। इन सवालों में हम सुशांत के जीवन से ज़्यादा, उसकी मृत्यु को महत्व दे रहे हैं। पर, एक ख़ास सवाल ये है कि, हम सब सुशांत की आत्महत्या की वजह क्यों जानना चाहते हैं? वजह जानकर, क्या हम किसी को दोषी ठहराना चाहते है, या सुशांत मरने से पहले किस तरह का जीवन व्यतीत कर रहे थे, क्या हम उसे समझना चाहते है, या ऐसा हमारे आस पास ना हो उसको रोकने का प्रयास है। या फिर हम सिर्फ़ इसलिए जानना चाहते हैं ताकि हमें एक क्लोज़र मिलें और हम इस ख़बर या शोक से अगली ख़बर की तरफ़ बढ़ सकें। ये एक अप्रत्याशित घटना थी इसलिए हम सब बहुत बेचैन थे, मुमकिन है इसलिए भी हम कारण ढूँढकर फिर से नॉर्मल या सहज महसूस करना चाहते हैं। इस नॉर्मल तक पहुँचने के लिए हम अपनी याददाश्त को, मुश्किल और बुरी चीज़ों को लगातार भूलने या उनसे दूर होने के लिए मजबूर करते हैं। पर ये तो बहुत बनावटी नॉर्मल है।

फ़िल्म इंडस्ट्री ने भी एकाएक सुशांत को अपना लिया है, अनेकों भावनात्मक पोस्ट्स शेयर किए जा रहे हैं। गेब्रीयल गार्सीआ मारकेज की किताब “100 years of solitude” या “एकाकीपन के सौ साल” ,में एक बेहतरीन पंक्ति हैं “एक व्यक्ति का किसी जगह से रिश्ता तब तक नहीं बन पाता, जब तक उस ज़मीन पर किसी अपने की मृत्यु नहीं हुई होती है।“ शायद इसीलिए इंडस्ट्री ने सुशांत को उनकी मौत के बाद अपना लिया है। इसलिए ये ज़रूरी है कि हम मृत्यु या मौत को अलग ढंग से समझ सकें। इस दौर में जहाँ एक तरफ़ कोरोनाग्रस्त पीड़ितों की मौत की संख्या लगतार बढ़ रही हैं, जहाँ दूसरी ओर प्रवासी मज़दूरों से लेकर आईटी कर्मचारी से लेकर सिनेमा के सितारों तक की आत्महत्या की ख़बरें आ रही हैं और जहाँ सरहद पर भी जवानो की शहादत चर्चे में है, वहाँ मृत्यु, दुःख, पीड़ा और सांत्वना के बारें में बात करने के लिए एक नए व्याकरण और एक नयी भाषा की ज़रूरत ज़रूर है। 

दुःख के व्याकरण की तलाश

प्राचीन मिस्र में मृत्यु को अंत नहीं, एक बाधा या व्यवधान माना जाता था। इसलिए वो मृत शरीर के साथ आगे की यात्रा के लिए पूरा सामान लाद देते थे। चीन में भी मृत्यु को अंत नहीं, जीवन का ही  विस्तार माना जाता था। रोम के निवासियों को भी मृत्यु एक बहुत ही मनहूस और अशुभ शब्द लगता था। इसलिए वो कोशिश करते थे कि कहें “जिसने जीवित रहना बंद कर दिया हो” या फिर “जो जीवन जी चुका हो।“ उनका मानना था कि ऐसा कहने से जीने या जीवन का ज़िक्र ज़्यादा होता है और एक उम्मीद बरक़रार रहती है। इन सब बातों में कहीं ना कहीं अन्धविश्वास का भी स्वाद है, परंतु मृत्यु को अलग ढंग से समझने का जो नज़रिया है उससे हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। इसके कुछ हिस्से हैं, पहला ये कि जो चला गया उसके बारें में किस तरह से बात करें, दूसरा, कैसे मृत्यु को ही जीवन के बारें में गहरायी से सोचने के लिए एक अवसर माना जाए, और तीसरा कैसे मृतक के परिजन-प्रियजन सिर्फ़ उसकी मौत के कारणों और अंतिम पलों में ही नहीं उलझ कर रह जाएँ।

पिछले कुछ दिनों में लगातार जो कहा गया, ऐसा कहना कि किसी ने आत्महत्या की या “committed suicide”, एक तरह से मृत व्यक्ति पर सारा इल्ज़ाम लगा देना है। इसको यूँ समझ सकते हैं जैसे हम कह दें कि फ़लाँ व्यक्ति को कैन्सर हुआ नहीं, उन्होंने कैन्सर किया या उनको दिल का दौरा पड़ा नहीं ,उन्होंने दिल का दौरा किया। इस तरह की भाषा से आत्महत्या जैसी सामाजिक समस्या की सारी ज़िम्मेदारी मृतक पर डाल दी जाती है। जैसे क़ानूनी तौर पर साल 2014 तक, भारत में आत्महत्या को अपराध माना जाता था और इसके प्रयास के लिए एक व्यक्ति को एक साल तक की सज़ा हो सकती थी। लेकिन, साल 2017 में मानसिक स्वास्थ्य के लिए क़ानून लाया गया और आत्महत्या को ग़ैर-अपराधिक घोषित कर दिया गया। 

जाने वाले के बारें में कैसे बात करें?

सुशांत के ट्विटर अकाउंट पर, वैन ग़ॉग की “तारों की रात” नाम की पेंटिंग लगी हुई है। वैन गॉग के जीवन का भी अंत, आत्महत्या से ही हुआ था। उस पेंटिंग और वैन गॉग के बारें में डॉन मक्लीन का एक मशहूर गाना हैं  

“शायद अब मैं समझ सकता हूँ,

तुम क्या कहने की कोशिश कर रहे थे,

तुम कैसे अपने विचारों की वजह से इतना कुछ झेल रहे थे,

कैसे तुम कोशिश कर रहे थे कि इन सब धारणाओं से आज़ाद हो पाओ,

वो नहीं समझ रहे थे, वो अब भी नहीं समझ पा रहे हैं,

वो शायद कभी नहीं समझ पाएँगे” (*Starry Starry Night)

ये पंक्तियाँ सिर्फ़ मीडिया पर नहीं, बल्कि हम सब पर भी लागू होती हैं। क्या हम सुशांत के बारें में मुनासिब तरीक़े से बात कर पा रहे हैं? कुछ लोग इल्ज़ाम लगाने में मशगूल हैं, तो कुछ लोग तरस खाने में, कुछ लोग वो रस्सी के निशान वाली तस्वीर फ़ॉर्वर्ड करने में व्यस्त हैं, तो कुछ लोग कई तरह की कन्स्पिरसी थियरी बनाने में बिज़ी हैं। 

इन सब में हम बार-बार सुशांत की मौत और मौत के तरीक़े को महत्व दे रहे हैं, पर उनके जीवन को नहीं। क्या उनकी मृत्यु उनके जीवन से ज़्यादा रोमांचक है हमारे लिए?

सुशांत ने अपने सपनो की एक फ़ेहरिस्त बनायी थी। उनके सपने थे जैसे चाँद, मंगल, शनि की ट्रजेक्टरीज़ को समझना, 1000 पेड़ लगाना, बच्चों को इसरो और नासा की वर्क्शाप में भेजना, मोर्स कोड सीखना इत्यादि। ये किसी साधारण दिमाग़ की परिकल्पनाएँ नहीं हो सकती हैं। तो फिर क्यूँ नहीं, सुशांत के बारें में बात करते हुए हम ये सवाल पूछते हैं -कौनसी किताब पढ़ते थे सुशांत? कौनसी डॉक्युमेंटरी देख कर वो ख़ुश होते थे? उन्होंने टेलिस्कोप कब और क्यों ख़रीदा? इन सबके बारें में वो किस से बात करते थे? ऐलन ट्वुरिंग, जिन्हें आधुनिक कम्प्यूटर विज्ञान का पिता कहा जाता है, और जिन्होंने ख़ुफ़िया नाज़ी कोड को सुलझाया था, उन्होंने अपने प्रेमी क्रिस के देहांत के बाद, उनकी माँ को एक ख़त लिखा था। जिसमें उन्होंने कहा था, 

“क्रिस एक तरह से अब भी ज़िंदा हैं। बहुत लालसा होती है ये मान लेने कि, वो ज़िंदा तो हैं पर उनसे मुलाक़ात सिर्फ़ आने वाले वक़्त में ही हो पाएगी। पर इससे ज़्यादा मददगार ये साबित होगा कि ये मान लें कि क्रिस हमसे सिर्फ़ वर्तमान में कुछ वक़्त के लिए अलग हुए हैं”

अगर ऐसा ही हम सुशांत के जीवन के लिए माने तो हम उनके ख़यालों, सपनो और ख़्वाहिशों को निरंतरता दे पाएँगे और जो जगह उन्हें नहीं मिली वो उनके विचारों को दे पाएँगे। 

कहीं मृतक के परिजन-प्रियजन सिर्फ़ उसकी मौत के कारणों और अंतिम पलों में न उलझ कर रह जाएँ?

दर्द और पीड़ा का अहसास शायद सबके जीवन में आता है। ये भले ही अनिश्चित हो कि, कब होगा ऐसा अहसास, पर होगा ये बात तो तय है। इसलिए किसी को सांत्वना देना भी एक बहुत मुश्किल और ज़रूरी कला है। कभी कभार किसी के मरने का दुःख जीवन ले भी सकता है, इसलिए सम्भव है कि सांत्वना भी एक जीवनदायी संजीवनी साबित हो सकती है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन का जीवन त्रासदियों से ग्रस्त था। जब वो नौ साल के ही थे उनकी माँ का देहांत हो गया था और उन्होंने अपने जीवनकाल में अपने दो बेटों की मृत्यु भी देखी थी। निजी जीवन में इतना दुःख झेलने की वजह से उनकी संवेदनशीलता बहुत सहज और स्वाभाविक थी। इसलिए उन्होंने जब अपने दोस्त की मृत्यु पर उनकी बेटी को ख़त लिखा, तो लगा शायद इस तरह से मृतक के प्रियजनों का ढाढ़स बँधाया जा सकता है। उस ख़त का अनुवाद कुछ इस प्रकार है 

 

प्रिय फ़ैनी,

तुम्हारे दयालु और साहसी पिता की मौत की ख़बर सुनकर मुझे गहरा सदमा पहुँचा है।और ये जानकर कि उनकी मृत्यु का तुम्हारे ऊपर गहरा प्रभाव है इसका भी मुझे बेहद खेद है। इस दुखी दुनिया में, पीड़ा और दर्द सबके हिस्से में आते हैं। और जवान लोगों के लिए तो ये दुःख बेहद कड़वा और कष्टदायी भी सिद्ध होता है। क्योंकि ऐसा शोक उनके जीवन में, अधिकतर अचानक अनपेक्षित तरीक़े से ही आ धमकता है। उम्र के साथ लोग सीख जाते हैं, मृत्यु और मृत्यु के दुःख के लिए तैयार रहना। मैं बहुत बेचैन हूँ कि किसी भी तरह तुम्हारा दुःख कम कर सकूँ। पर समय के अलावा कोई और तरीक़ा नहीं बेहतर महसूस करने का। तुम्हें अभी अहसास नहीं होगा कि तुम वापिस ख़ुश हो सकती हो। ऐसा ही है ना?पर ये सरासर ग़लत है।ये निश्चित है कि, तुम फिर से ख़ुश हो पाओगी। और अगर ऐसा मानोगी तो शायद दुःख से भी जल्दी उबर पाओ। मुझे इतना अनुभव है कि मैं जानता हूँ कि मैं क्या कह रहा हूँ;  तुमको सिर्फ़ एक बार ये मानने की देरी है की तुम फिर ख़ुश हो सकती हो और इससे तुम बेहतर महसूस करने लगोगी। तुम्हारी पिता की यादें तुम्हें कष्ट नहीं पहुँचाएगी, बल्कि एक खट्टा मीठा एहसास बनकर रह जाएँगी। 

[..]

तुम्हारा दोस्त, 

अब्राहम लिंकन 

शायद हमें मृतकों के प्रियजनो और परिजनो को, सांत्वना देना सीखना होगा। हम फिर से ख़त लिखना भी शुरू कर सकते हैं। आने वाले वक़्त में इतिहासकार शायद अतीत को दो भागों में बाँट सकते हैं, एक वो जब लोग ख़त लिखते थे और एक वो जब लोग ख़त नहीं लिखते थे। मुमकिन है कि सिर्फ़ ईमेल के कलेक्शन या ट्वीट या फ़ेसबुक को खँगालने पर नहीं, लेकिन पुरानी संदूक़ों, किताबों, अलमारियों को टटोलने पर हमें वो ख़त मिलें जिनमें डेटा नहीं, लेकिन वो आत्मीयता मिलें जिससे ऐसा लगे कोई वाकयी हाथ पकड़कर या कंधा सहलाकर दुःख दूर कर रहा हो।

जीवन को समझने का मौक़ा देती है मृत्यु 

माइकेल डि मांतेन फ़्रांसीसी रेनेसां के सबसे प्रभावी लेखक थे। उनका मानना था कि “इस बात का शोक मनाना की हम सौ साल बाद ज़िंदा नहीं रहेंगे, ऐसी ही ग़लती है, जैसे कि ये मान लेना कि हम सौ साल पहले ज़िंदा नहीं थे।“ हम कितनी बार ज़िंदगी के पलों का त्याग कर मौत के बारें में सोचते हैं। ऐसा लगता है मानो कि भले ही मृत्यु में जीवन का अहसास ना हो, पर जीवन में मौत का आभास तो हमेशा रहता है। इसलिए ज़रूरी है कि हम किसी की मृत्यु के समय, मृत्यु के बारें में नहीं जीवन के बारें में सोचें। मृत्यु वक़्त को थोड़ा धीरे कर देती है और हमें चीज़ों की गहरायी तक भी धकेल देती है।तो शायद ये वो मौक़ा देती है कि हम ज़िंदगी के बारें में ठहर कर, समय लेकर और गंभीरता से सोच सकें। किसी की मृत्यु के तुरंत बाद कोई हड़बड़ी नहीं होती, किसी बात की किसी को भी कोई जल्दी नहीं होती। ये एक अवसर होता है आवश्यक और अनावश्यक चीज़ों में अंतर करने का।वक़्त लेकर ना केवल अतीत को समझने का पर भविष्य को भी एक दिशा देने का। लॉकडाउन और सुशांत की मृत्यु के बाद अब शायद बॉलीवुड के पास भी वक़्त है अंतरदर्शन करने का। ये ही मौक़ा है कि  वो लोग सोच सकें कि आने वाले दौर में वो कैसे पहचाने जाना चाहते हैं। 

ऐसा मान सकते हैं जैसे हम पक्षियों की तरह पुराने पंख झाड़ कर नए पंखों और उड़ानो के लिए जगह बना रहे हैं। 

तारों के पार से एक ख़त

जनवरी, 2016 में रोहित वेमुला की खुदख़ुशी की ख़बर सुर्खियो में थी। एक युवा दलित अध्येता की आत्महत्या की ख़बर बहुत कष्टदायी थी। पर उन्होंने अपने सूयसायड नोट में लिखा था 

“मैं हमेशा लेखक बनना चाहता था। विज्ञान का लेखक, कार्ल सेगन की तरह। अंत में मैं सिर्फ़ ये ही  ख़त लिख पा रहा हूँ।

[…]

एक इंसान को उसकी अगली पहचान या सम्भावना में सीमित कर दिया जाता है। एक वोट। एक संख्या। एक चीज़ बना दिया जाता है। कभी एक इंसान को उसके विचारों से नहीं समझा जाता। उसे कभी तारों की भव्य धूल नहीं माना जाता। हर क्षेत्र में उसको सीमित कर दिया जाता है, पढ़ाई में, सड़कों पर, राजनीति में और यहाँ तक जीने और मरने में भी।

मैं पहली बार ऐसा ख़त लिखा रहा हूँ। ये है मेरा आख़िरी ख़त पहली बार। माफ़ कीजिएगा अगर मेरी बात समझ में ना आए तो।“

सुशांत ने सूयसायड नोट तो नहीं लिखा, पर उनके आख़िरी कुछ इंस्टाग्राम पोस्ट चाँद, तारे, आकाश गंगा, औरोरा बोरियालिस के बारें में थे। रोहित भी कार्ल सेगन की तरह बनना चाहते थे। कार्ल सेगन तारों और ग्रहों के वैज्ञानिक थे। सुशांत भी ख़ुद को तारों में खोज रहे थे और रोहित भी। हम सब को भी तारों को समझने की कोशिश करनी चाहिए, शायद उनको समझने के प्रयास में ही ख़ुद को, जीवन को और मृत्यु को समझ जाएँ क्योंकि है तो हम भी तारों की ही धूल।


 

सौम्या गुप्ता, डेटा विश्लेषण एक्सपर्ट और मीडिया विजिल टीम का ताज़ा हिस्सा हैं। उन्होंने भारत से इंजीनीयरिंग करने के बाद शिकागो यूनिवर्सिटी से एंथ्रोपोलॉजी उच्च शिक्षा हासिल की है। यूएसए और यूके में डेटा एनालिस्ट के तौर पर काम करने के बाद, अब भारत में , इसके सामाजिक अनुप्रयोग पर काम कर रही हैं।
मीडिया विजिल का स्पॉंसर कोई कॉरपोरेट-राजनैतिक दल नहीं, आप हैं। हमको आर्थिक मदद करने के लिए – इस ख़बर के सबसे नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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