हिंदी के महान कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा रचित महाकाव्य ‘हुंकार’ की दो पंक्तियां हैं, जो हमारे वक़्त में सच होनी थी, ये न तो कवि को पता था-न ही हम में से किसी को। लेकिन ये पंक्तियां सच हुई, वो भी उस समय में जब इनको बिल्कुल साकार नहीं होना चाहिए था। ये पंक्तियां हैं;
श्वानों को मिलता दूध वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं,
माँ की हड्डी से चिपक ठिठुर जाड़ों में रात बिताते हैं
ये पंक्तियां एक ख़बर के सिलसिले में हम लिख रहे हैं, ये ख़बर प्रकाशित होने से पहले एक ट्वीट की गई थी, ये ख़बर लिखे जाने तक वो ट्वीट डिलीट की जा चुकी थी – जो इस ख़बर को लिखे जाने की वजह है। ट्वीट की गई, दिल्ली ज़िलाधिकारी और ज़िला चुनाव अधिकारी के आधिकारिक ट्विटर हैंडल से और ट्वीट ने जब फ़जीहत कराई तो उसको डिलीट कर दिया गया। मामला है, दिल्ली डीएम के ऑफिशियल ट्विटर हैंडल से विदेश से आ रहे भारतीयों का स्वागत करती हुई ट्वीट्स में से एक का। @DMNewDelhiने 10 मई की शाम को एक ट्वीट किया गया, जो विदेश से लौटने वाले सबसे कम उम्र के यात्री के स्वागत में थी। ट्वीट का हिंदी अनुवाद है;
“हम ने, वंदे भारत मिशन के तहत उज़बेकिस्तान से लौटे सबसे कम उम्र के यात्री का स्वागत किया। ओरियो, एक साल का यॉर्कशायर टेरियर, जो घर आकर उत्साहित है और नई दिल्ली प्रशासन की ओर से इसका स्वागत पीयूष रोहनकर ने किया।”
जी, आप बिल्कुल सही देख रहे हैं, ट्वीट में जो तस्वीर आप को दिख रही है – उसमें 1 साल का केवल एक ही जीव हो सकता है और वो इसमें दिख रहे दो मनुष्य तो बिल्कुल नहीं हो सकते हैं। आपने सही समझा – ये ओरियो, जिसका स्वागत किया गया है, वह एक पालतू श्वान यानी कि कुत्ता ही है। हो सकता है कि इसके पालक को इसको कुत्ता कहे जाने पर आपत्ति हो, लेकिन जीव विज्ञान की भाषा में इस को यही कहते हैं। आपको स्वागत कर रहे शख्स का परिचय भी दे दें, ये हैं दिल्ली कैंट एरिया के एसडीएम पीयूष रोहनकर। पीयूष का ट्विटर बायो उनको नौकरशाह और सूफी बताता है।
निश्चित रूप से किसी पालतू या किसी भी पशु के प्रति प्रेम कोई बुरी बात नहीं, यह नैसर्गिक मानवता का गुण है। लेकिन जिस समय देश में करोड़ों लोग भूख से मर रहे हों। जिस वक़्त लाखों प्रवासी श्रमिक सड़कों पर पैदल, साइकिल से अपने गांव की ओर जाने को मजबूर हों और कभी ट्रेन से तो कभी सड़क हादसों में जान गंवा रहे हों। उस वक़्त में विदेश से लौटे प्रवासियों के पालतू पशु के साथ खड़े हो कर तस्वीर न केवल खिंचाना और उसको स्वागत के तौर पर ट्वीट करना, अपने आप में भयानक असंवेदनशीलता का संदेश हो सकता था। तिस पर इस तस्वीर को पीयूष रोहनकर ने अपने ट्विटर हैंडल से नहीं ट्वीट किया, बल्कि इसे दिल्ली डीएम के आधिकारिक हैंडल से न केवल ट्वीट किया गया बल्कि उसमें एलजी, सीएम और पीएमओ को भी मेंशन कर दिया गया।
इसके बाद वही हुआ, जिसके होने की सबसे ज़्यादा उम्मीद थी। ट्विटर पर हंगामा मचा और लोगों ने इस के विरोध में इस ट्वीट को रीट्वीट कर के रोष जताना शुरु किया। इसके बाद आनन-फानन में इस ट्वीट को डीएम के ट्विटर हैंडल से डिलीट कर दिया गया। लेकिन इंटरनेट पर कुछ भी, कभी भी पूरी तरह मरता नहीं है और ये ट्वीट भी बचा रह गया – आर्काइव कैश पेजेज़ पर। ट्विटर यूज़र्स ने वहां से इसका स्क्रीनशॉट और लिंक लेकर, इसको साझा करना शुरु किया और साथ ही डीएम ऑफिस की इस असंवेदनशीलता की भर्त्सना शुरु हुई, जो अभी तक चल रही है। इसके बाद एसडीएम साहब को तो ये नहीं सूझा कि ख़ुद क्या कहा जाए, लेकिन उन्होंने अपने ट्विटर हैंडल पर, अपना समर्थन करती एक-दो ट्वीट्स को रिट्वीट ज़रूर कर दिया।
And why should there be a priority? Both should be saved. Whoever can be helped, should be help. Again, this entitlement and sense of superiority is why we are in this mess today. Coz we think vre so much better, well mother earth has spoken and shown us our place.
लेकिन दरअसल प्रीविलेज की समस्या ये है कि उसे समयानुकूलता का तर्कसमझ नहीं आता। उसे समझ नहीं आता कि गरीबों की जान भी उतनी ही कीमती होती है, जितनी कि उसकी। उसको ये समझ नहीं आता कि ये शोक का समय है और इस समय ऐसा कुछ भी करना अश्लीलता ही है। उसको ये समझ नहीं आता कि कब वह केवल एक प्रीविलेज्ड व्यक्ति भर नहीं है, वह किसी ज़िम्मेदारी भरे पद पर भी बैठा है। जैसा सवाल हिंदी के ही एक और कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना पूछते हैं;
यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में आग लगी हो तो क्या तुम दूसरे कमरे में सो सकते हो? यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में लाशें सड़ रहीं हों तो क्या तुम दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो?
दरअसल यही सवाल और यही बात है, जो बिना किसी कविता को लिखे, ट्विटर पर इन एसडीएम साहब और इस तस्वीर के बाबत पूछा गया। हम सब सरकारों और प्रशासन की गरीब, प्रवासी मज़दूरों के प्रति उदासीनता देख रहे हैं। अच्छा ये है कि उन प्रवासी श्रमिकों तक शायद ये तस्वीर नहीं पहुंची है – जो तपती हुई सड़क और रेल की पटरियों पर सिर्फ इस उम्मीद के सहारे भूखे पेट, प्यासे होंठ और छालों से भरे पांव के साथ चले जा रहे हैं कि अगर घर पहुंच पाए तो बच्चे भूख से नहीं मरेंगे…दिनकर ने ये कविता पुराने भारत के लिए लिखी थी, जो बस आज़ाद हुआ ही था, हमने तय कर दिया कि ये कविता न केवल आज प्रासंगिक है, बल्कि हमारा रवैया इसे ज़िंदा रखेगा। दरअसल देश के करोड़ों गरीबों को नज़रअंदाज़ कर, अपने आनंद में झूमना अब, किसी ट्वीट को डिलीट करने से भी ज़्यादा आसान है।