प्रशांत भूषण को तथाकथित अवमानना के लिए, एक रुपये अथवा तीन महीने कैद की सजा मुकर्रर की गई और श्री भूषण ने एक रुपये भुगतान कर कोर्ट की सजा भुगत भी ली. लेकिन फेसबुक पर इसे लेकर जो ज्यादातर टिप्पणियां आईं, उसे देख कर मैं केवल शर्मिंदगी ही अनुभव कर सकता था. हमारी सामान्य भारतीय मनीषा इतनी खस्ता-हाल है, मुझे इसका अनुमान नहीं था. ओह! कोफ़्त अनुभव करने के अलावे मैं क्या कर सकता था!
प्रसंग समाप्त हो चुका है. उपरांत-वार्ता में मैं इस मसले को उठा रहा हूँ, तो केवल इसलिए कि हम अन्य विषयों पर विचार-विमर्श की एक सुचिंतित और वैज्ञानिक प्रणाली विकसित करें. मैं समझ सकता हूँ कि लोगों के दिमाग में यह बात क्यों आई कि प्रशांत को एक रूपया भुगतान नहीं कर, तीन महीने जेल में ही रहना चाहिए था. क्यों रहना चाहिए था? यदि ऐसा प्रशांत करते तो यह उनकी मूर्खता के सिवा और कुछ नहीं होता. दरअसल लोगों ने यह समझने की कोशिश नहीं की कि गड़बड़ी कोर्ट के फैसले में है. प्रशांत ने उसका लाभ उठा कर अपनी बुद्धि का इस्तेमाल किया है और कुछ नहीं. तीन महीने की कैद और एक रुपये में कोई समानता या तालमेल है क्या?
आर्थिक दंड इसलिए दिए जाते हैं कि उसे भुगतान करने में सजायाफ्ता तकलीफ का अनुभव करे. तीन महीने की सजा के मुकाबले आर्थिक दंड इतना तो होना ही चाहिए था, जितनी प्रशांत की तीन महीने की औसत आमदनी हो. यदि कोर्ट ने यह किया होता और प्रशांत ने पांच-दस लाख रूपये भुगतान किये होते तो सब चुप रहते. फिर यदि एक रुपये का आर्थिक दंड था, तो इसके मुकाबले कोर्ट को अधिक से अधिक दस मिनट कोर्ट में खड़े होने की सजा देनी चाहिए थी. लेकिन कोर्ट तो अपनी इज्जत बचाने में लगा था. एक बार जब गाडी पटरी से उतर जाती है, तो फिर लुढ़कने पर कण्ट्रोल नहीं रह जाता. कोर्ट ने खुद अपनी अवमानना की कीमत तय कर दी. इसे चुकता कर प्रशांत ने उसे रेखांकित कर दिया. अधिक स्पष्ट कर दिया.
आश्चर्य मुझे उन लोगों की टिप्पणियां पढ़ कर हो रही है, जो अपने सुरक्षित आरामगाहों में प्रशांत से तीन महीने सजा भोगने की उम्मीद और उत्कंठा पाले बैठे थे. मैं मनोवैज्ञानिक तो नहीं हूँ कि जिम्मेदारी पूर्वक इस मुद्दे पर कुछ कहूं; लेकिन जितना मनोविज्ञान जानता-समझता हूँ उसके आधार पर कह सकता हूँ कि यह हमारे समाज में व्याप्त नसमझी और कायरता है. हम गांधी और भगत सिंह को शहीद होते देख संतुष्ट होते हैं, दुखी नहीं होते. प्रशांत को यदि इसके लिए कोई और बड़ी सजा होती, तो क्या ये फेसबुक राइटर जुडिसियरी के खिलाफ कोई क्रांति करते? बिलकुल नहीं. ये अपने ड्रॉइंग रूमों में कुछ देर फ़ुनफ़ुनाते और कोई सुन नहीं ले का इत्मीनान कर इंडियन जुडिसियरी को कुछ समय तक गलियां देते.
प्रशांत ने एक रुपये भुगतान कर सजा भुगत ली है. तीन महीने की सजा का विकल्प चुनना मूर्खता के सिवा कुछ नहीं था. जब सौ रोज जेल (एक लोककथा में सौ जूते भी हैं) के एवज में एक रुपये का प्रावधान है, तब कोई क्यों सौ रोज जेल जाए.
हाँ, इस पूरे मामले में भारतीय न्यायपालिका की सार्वजनिक अवमानना हुई और इसके लिए जिम्मेदार केवल हमारी न्यायपालिका है. एक छोटा सा ट्वीट अब इतिहास का हिस्सा हो गया. उसे सदियों याद किया जायेगा. ब्रेख्त की एक कविता है कि किसी कैदी ने जेल की अपनी कोठरी में अपने नाखून से लेनिन जिंदाबाद लिख दिया था. जेलर ने देखा और आग बबूला हुआ. उसने हुक्म जारी किया कि उस पर कालिख पोत दी जाय. कालिख पोतने वाले ने जब कालिख पोती तो वह इबारत बन गयी. साफ़-साफ़ दिखने लगी. आखिर उसे मिटा देने का फैसला हुआ. मिस्त्री आया और उसने छेनी से इबारत को काट कर निकाल दिया. लेकिन नतीजा यह हुआ कि दीवाल पर खुद गया- लेनिन जिंदाबाद.
इस मामले में भी कुछ ऐसा ही हुआ.
प्रेमकुमार मणि
कथाकार प्रेमकुमार मणि 1970 में सीपीआई के सदस्य बने। छात्र-राजनीति में हिस्सेदारी। बौद्ध धर्म से प्रभावित। भिक्षु जगदीश कश्यप के सान्निध्य में नव नालंदा महाविहार में रहकर बौद्ध धर्म दर्शन का अनौपचारिक अध्ययन। 1971 में एक किताब “मनु स्मृति:एक प्रतिक्रिया” (भूमिका जगदीश काश्यप) प्रकाशित। “दिनमान” से पत्रकारिता की शुरुआत। अबतक चार कहानी संकलन, एक उपन्यास, दो निबंध संकलन और जोतिबा फुले की जीवनी प्रकाशित। प्रतिनिधि कथा लेखक के रूप श्रीकांत वर्मा स्मृति पुरस्कार(1993) समेत अनेक पुरस्कार प्राप्त। बिहार विधान परिषद् के सदस्य भी रहे।