सावधानियों के साथ सत्र मुमकिन था, फिर संसद को ख़ामोश क्यों किया गया?

कृष्ण प्रताप सिंह कृष्ण प्रताप सिंह
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आइये, हिन्दी के बहुचर्चित कवि सुदामा पांडेय ‘धूमिल’ की एक बेहद लोकप्रिय कविता से बात शुरू करें: एक आदमी/रोटी बेलता है/एक आदमी रोटी खाता है/एक तीसरा आदमी भी है/जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है/वह सिर्फ रोटी से खेलता है/मैं पूछता हूँ-/‘यह तीसरा आदमी कौन है?’/और…मेरे देश की संसद मौन है।

धूमिल ने यह कविता रची तो देश का श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा 1975 में थोपी गई इमर्जेंसी के अंधेरे दिनों से गुजरना बाकी था। 10 फरवरी, 1975 को ही इस संसार को अलविदा कह गये धूमिल इमर्जेंसी की उन यातनाओं को सहने से भी बच गये थे, जो उनके जैसे अभिव्यक्ति के खतरे उठाने वाले अनेक कवि-साहित्यकारों ने झेलीं। अलबत्ता, इस बचाव से उनका एक बड़ा नुकसान भी हुआ: संसद को निरर्थक कर दिये जाने के उस दौर में वे अपनी इस कविता का नये सिरे से सार्थक होना नहीं देख पाये।

इस लिहाज से देखें तो सवाल उठता है कि धूमिल आज हमारे बीच होते तो कठिन कोरोना काल में संसद के लम्बे होते मौन के बीच अपनी कविता को हासिल हो रही नई प्रासंगिकता को किस रूप में लेते? खासकर जब वे जानते कि उसका यह मौन एक ऐसे प्रधानमंत्री की देन है, जिसने 20 मई, 2014 को संसद भवन की सीढ़ियों पर माथा टेककर अपने प्रधानमंत्रित्व का आगाज किया था, उनको समाजवादी विचारक डाॅ. राममनोहर लोहिया का यह कथन याद आता कि नहीं कि जब सड़कें सूनी हो जाएं तो संसद बांझ और सरकार निरंकुश हो जाती है?

यह तथ्य तो खैर उनके जैसे कवि को कौन कहे, किसी हृदयहीन को भी विचलित ही करेगा कि कोरोनाकाल में अन्य किसी भी देश की संसद हमारे देश की संसद की निष्क्रियता की बराबरी नहीं कर पाई। हमारी संसद कोरोनाकाल की शुरुआत से ही ठप पड़ी है और अब उसकी सक्रियता के जो आसार दिख रहे हैं, उनके पीछे भी उसके प्रति सरकार के सम्मान या सदाशयता की भावना नहीं, इस संवैधानिक प्रावधान की बाध्यता है कि एक वर्ष में उसके तीन सत्र होने अनिवार्य हैं- दो सत्रों के बीच छः महीने से कम का अंतराल भी।

साफ है कि कोरोना संकट के बहाने संसद को ठपकर देने वाली सरकार अब भी उसे ‘सर्वोच्च नीति निर्धारक संस्था’ और ‘सबसे बड़े राजनीतिक मंच’ के तौर पर जरूरी नहीं मजबूरी ही समझ रही है। गत जनवरी में भी जरूरी नहीं ही समझा था, जब उसके बजट सत्र के दौरान संकट पर चर्चाकर उसे विश्वास में लेने के बजाय 23 मार्च को खासी हड़बड़ी में दस दिन पहले ही सत्र का आकस्मिक समापन कर दिया था। बाद में उसने इस उम्मीद को भी नाउम्मीद करके ही दम लिया कि संकट से निबटने के लिए आवश्यक कदम उठाने के बाद उस पर विचार के लिए संसद का विशेष सत्र आयोजित करेगी। एलएसी पर चीनी घुसपैठ के कारण संकट दोहरा हो गया, तब भी उसने इस लोकतांत्रिक तकाजे को नहीं ही पूरा किया।

लोकसभा में निरंकुश बहुत होने के बावजूद संसद के प्रति जवाबदेही को लेकर सरकार के मन में जानें कौन-सा डर समाया हुआ था कि वह इस दलील का रामबाण की तरह इस्तेमाल करती रही कि सोशल या फिजिकल डिस्टेंसिंग की अपरिहार्यता की वजह से संसद का चल पाना संभव नहीं है। हैरत यह कि लोकसभा के अध्यक्ष व राज्यसभा के सभापति भी उसकी इस दलील के सामने नतमस्तक रहे। उन्हें भी इसमें कुछ बुरा नहीं लगा कि इतनी बड़ी वैश्विक मानवीय त्रासदी के दौरान लाॅकडाउन के नाम पर संसद को भूमिकाहीन बना दिया गया और सारे नीतिगत फैसले सिर्फ और सिर्फ सरकार व नौकरशाह करने लगे, जबकि इस दौरान दूसरे देशों की संसदें न सिर्फ अपनी जनता की तकलीफों में शरीक और सक्रिय रहीं, बल्कि सरकारों को जवाब-तलब करके जताती रहीं कि किसी भी लोकतंत्र में संसद जनता के सुख-दुख का आईना होती है। उनके उलट हमारा देश दुनिया का एकमात्र ऐसा लोकतांत्रिक देश बना रहा, जहाँ व्यवस्था तंत्र की सारी शक्तियां सरकार ने अपने हाथों में ले लीं और कोरोनाकाल में लोकतंत्र के सिकुड़ने की भविष्यवाणी को सच साबित करती रही। अभी भी कर रही है।

उसकी इस करनी की विडम्बना देखिये: उसने बजट सत्र को बीच में ही खत्म किया तो देश में कोरोना के कुल 471 संक्रमण ही सामने आये थे और उनसे कुल नौ ही जानें गई थीं। लेकिन अब जब वह देर से ही सही, मानसून सत्र बुलाने की सोच रही है तो हर दिन 50 से 70 हजार तक नये संक्रमण सामने आ रहे हैं और हजार के आस-पास जानें जा रही हैं। ऐसे में विपक्ष के नेता वर्चुअल माध्यम से संसद सत्र की कार्यवाही में शामिल होने की अनुमति मांग रहे हैं तो सरकार से प्रतिक्रिया तक देते नहीं बन पा रहा, क्योंकि वह इसके खिलाफ स्टैंड प्रदर्शित कर चुकी है। भले ही प्रधानमंत्री डिजिटल इंडिया की बात कहते और अयोध्या में भूमिपूजन को छोड़कर अपनी अति महत्वपूर्ण बैठकें व सम्मेलन भी वर्चुअली संपन्न करते रहे हैं।

इस बीच कहा जा रहा है कि महामारी की स्थिति को देखते हुए संसद के नये सत्र के दौरान पूरी सतर्कता बरती जाएगी और सांसदों को दूर-दूर बैठाने के लिए दोनों सदनों की वीथिकाओं और अन्य कक्षों का भी इस्तेमाल होगा। सदन में चर्चा सुचारू रूप से चले, इसके लिए आडियो-वीडियो कनेक्टिविटी की व्यवस्था भी की जा रही है। लेकिन ये सारी व्यवस्थाएं भी सरकार को कठघरे में ही खड़ी कर रही हैं। सवाल पूछा जा रहा है कि इन सावधानियों के साथ संसद का सत्र चल सकता था, तो वे पहले ही क्यों नहीं बरती गईं? क्यों सदी के सबसे बड़े संकट के बीच संसद को देश को संभालने व स्थितियों को सामान्य करने के लिए नीतियां बनाने के दायित्व निर्वहन के अधिकार से वंचित रखा गया? ऐसा तो 1962 में चीनी हमले के वक्त भी नहीं हुआ था।

यह विश्वास करने के कारण हैं कि संसद का मानसून सत्र यथासमय आयोजित हुआ होता या विशेष सत्र बुलाया गया होता तो लॉकडाउन, अनलॉक व राहत पैकेज और नई शिक्षा नीति जैसे अनेक फैसले पर्याप्त चर्चा के बाद लागू होते। तब शायद लाखों प्रवासी व दिहाड़ी मजदूरों को रातों-रात सड़कों पर नहीं आना पड़ता और गर्त में जा चुकी जीडीपी को बचाने के समुचित उपाय संभव होते। लेकिन चूंकि सत्ताधीशों के मनमानी के शासन के मोह को ससंद का सामना करना गवारा नहीं था, उन्होंने उसकी संसदीय समितियों तक को निष्क्रिय कर डाला।

अब वे जैसे-तैसे मानसून सत्र बुलाकर अपना चेहरा बचाने की कितनी भी कोशिशें क्यों न करें, इस इतिहास को बदल नहीं सकते कि उनके द्वारा न सिर्फ कोरोना की विपदा बल्कि सीमा पर संकट के विषम दौर में भी संसद को खामोश रहने को मजबूर किया गया। अभी भी उनकी ओर से मानसून सत्र की बाबत दोनों संसदीय सचिवालयों को कोई लिखित या अधिकृत सूचना नहीं दी गई है। लेकिन चूंकि बजट सत्र 23 मार्च को खत्म हुआ था, 22 सितंबर से पहले मानसून सत्र शुरू होने की उम्मीद की जा रही है, क्योंकि संविधान के आदेशपत्र के अनुसार, दो सत्रों के बीच अधिकतम छः महीने का ही अंतर हो सकता है और बजट सत्र के खात्मे को 22 सितंबर को छः महीने पूरे हो जायेंगे।

लेकिन सरकार की मजबूरी के कारण ही सही, एक बार फिर से संसद का मौन टूटने और उसके मुखर होने की गुंजाइश बनती दिख रही है, तो उसे किसी भी बहाने जाया नहीं होने देना चाहिए। विपक्ष का जिम्मा है कि वह इसके लिए न सिर्फ सरकार पर निरंतर नैतिक दबाव बनाये रखे बल्कि हर संभव प्लेटफार्म का इस्तेमाल करके जनमत भी तैयार करे। क्योंकि सत्तापक्ष संसद को दरकिनार कर उसके मौन को लम्बा करते जाने का अभ्यस्त हो गया तो देश के लोकतंत्र के समक्ष कोरोना से भी गम्भीर संकट खड़ा हो जायेगा।


 

कृष्ण प्रताप सिंह, लेखक और वरिष्ठ पत्रकार हैं। अयोध्या से निकलने वाले अख़बार जनमोर्चा के संपादक हैं।