भीमा कोरेगांव हिंसा के केस में सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को सामाजिक कार्यकर्ता गौतम नवलखा और प्रोफेसर आनंद तेलतुम्बडे की अग्रिम ज़मानत को खारिज करते हुए दोनों आरोपितों को तीन सप्ताह के भीतर एनआइए के सामने आत्मसमर्पण करने को कहा है। इससे पहले कोर्ट ने 6 मार्च को दोनों को गिरफ्तारी से 16 मार्च तक की राहत दी थी। इस मौके पर गौतम नवलखा ने सरेंडर के लिए तीन हफ्ते का वक्त दिए जाने के लिए अदालत को धन्यवाद देते हुए एक पत्र लिखकर कुछ मीडिया संस्थानों को जारी किया है। नीचे हम वह पत्र अविकल प्रकाशित कर रहे हैं।
मैं जस्टिस अरुण मिश्रा और एमआर शाह को धन्यवाद देता हूं कि उन्होंने एनआइए के समक्ष आत्मसमर्पण करने के लिए मुझे तीन हफ्ते का वक्त दिया है। मैं वरिष्ठ अधिवक्ताओं अभिषेक मनु सिंघवी और कपिल सिब्बल का आभारी हूं कि उन्होंने हमारा बचाव किया। अपने प्रिय वकील मित्रों का धन्यवाद देने को मेरे पास पर्याप्त शब्द नहीं हैं जिन्होंने मेरी पैरवी में अपना बहुमूल्य समय लगाया।
अब जबकि मुझे तीन हफ्ते में सरेंडर करना है तो मैं खुद से सवाल करता हूं− मेरा मुकदमा, जो षडयंत्रकारी मुकदमों की फेहरिस्त में मुझे एक और कड़ी जान पड़ता है, क्या उसके आरोप के बोझ से मुक्त होने की उम्मीद पालने की गुस्ताखी मैं कर सकता हूं? क्या सह-आरोपित और उनकी तरह के दूसरे अपनी आज़ादी वापस पा सकेंगे? ये सवाल मेरे मन में इसलिए आते हैं क्योंकि हम एक ऐसे वक्त में रह रहे हैं, जब तमाम किस्म की नागरिक स्वतंत्रताओं को धीरे-धीरे संकुचित किया जा रहा है, जहां केवल एक ही आख्यान का प्रभुत्व है, जबकि सार्वजनिक जीवन मूर्खताओं से परिपूर्ण है।
यूएपीए जैसा खतरनाक कानून किसी संगठन को प्रतिबंधित करने और उसकी विचारधारा को अवैध ठहराने की मंजूरी देता है। नतीजतन, सबसे अहानिकर और वैध संलग्नता व संवाद भी राज्य की नज़रों में आपराधिक हो सकता है। यह एक ऐसा कानून है जो खुद प्रक्रिया को ही दंड के औजार में तब्दील कर देता है, सुनवाई और उसके फैसले तक की प्रतीक्षा नहीं करता।
लिहाजा मैं इस बात से अवगत हूं कि मैं उन हज़ारों लोगों की पांत में शामिल होने जा रहा हूं जिन्हें अपनी आस्थाओं के कारण दंड भोगना पड़ता है।
मैं अपनी जिंदगी के टेस्ट मैच में उन्हीं गुणों की मांग खुद से करता हूं जिनकी दरकार मेरे खयाल से क्रिकेट के सबसे उम्दा संस्करण टेस्ट में होती हैः सहनशक्ति, धैर्य, निष्पक्षता, दृढ़ता और प्रतिदान। मेरे लिए अपने नाम के साथ लगे इस दाग को छुड़ाने से ज्यादा ज़रूरी काम कोई नहीं है।
मेरे दोस्तों, सहकर्मियों और परिजनों- इस दौरान आप मेरे साथ जिस तरह खड़े रहे, उसका जितना भी शुक्रिया मैं करूं कम ही है। मैं आप सब का ऋणी हूं।
इस मौके पर ल्योनार्द कोहेन का “एन्थम” सुना जाए और इन शब्दों को याद रखा जाएः
घंटी बजाओ
वो अब भी बज सकती है
भूल जाओ
अपनी बेशकीमती नेमतों को
हर चीज़ में दरार है
हर एक चीज़ में
लेकिन रोशनी वहीं से आती है!
गौतम नवलखा
16 मार्च, 2020
नयी दिल्ली
गौतम नवलखा ने यह पत्र कुछ मीडिया संस्थानों को सोमवार को जारी किया है। इसका अनुवाद अभिषेक श्रीवास्तव ने किया है।