न कोरोना ख़त्म हो रहा है, न लॉकडाउन! मज़दूर कहां जाए?

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फ़ाइल फ़ोटो


वैश्विक महामारी कोरोना का भारत में सबसे ज्यादा असर असंगठित क्षेत्र के मजदूरों पर पड़ा है। असर का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि विभाजन के बाद भारत का यह दूसरा सबसे बड़ा पलायन माना जा रहा है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार सिर्फ रेलवे ने 30 लाख भारतीयों को एक जगह से दूसरे जगह तक पहुंचाया है। बाकी सड़क पर और रेलवे पटरियों पर चलते लोगों को जोड़ दिया जाये तो, एक अनुमान के मुताबिक यह संख्या करोड़ों में पहुंच सकती है।

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार पलायन करने वाले अधिकतर लोग बिहार, झारखंड, बंगाल और यूपी के हैं। अकेले बिहार और झारखंड में ही 25 लाख से ज्यादा प्रवासी मज़दूर हैं। जीडीपी में इन राज्यों की भागीदारी बहुत ही कम है। वहीं दूसरी ओर जहां से ये प्रवासी भारतीय पलायन कर रहे हैं, उन राज्यों का भारत की जीडीपी में अधिक योगदान है।

मजदूरों के पलायन का सबसे बड़ा कारण सरकार का अदूरदर्शी नीति और लॉकडाउन पर लिया गया त्वरित फैसले को माना जाता है। भारत में कोरोनावायरस की सबसे पहली दस्तक 30 जनवरी को हुई, जिसके बाद भी सरकार एहतियात तौर पर सतर्क नहीं हुई।

लेकिन 22 मार्च को जब मरीजों की संख्या बढ़ने लगी तो, केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय लॉकडाउन की घोषणा कर दी। इसी कारण कारण महाराष्ट्र, गुजरात, दिल्ली, तमिलनाडु जैसे प्रदेशों में अधिक संख्या में उद्योग धंधे बंद हो गए, जिसकी वजह से ये मज़दूर अपने घरों की ओर लौटने की मजबूर हो गए। हालांकि अब उद्योग धंधों को चालू करने के लिए सरकार ने छूट दे दी है लेकिन बीते दिनों में उद्योगपतियों और अपने मालिकों की संवेदनहीनता से नाराज़ मज़दूर अब अपने घर लौटना चाहते हैं।

देशवासियों को संबोधित करते पीएम मोदी

इकोनॉमिक सर्वे ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार देशभर में प्रवासी मजदूरों की अनुमानित संख्या 10 करोड़ हैं। इंडियन एक्सप्रेस की खबर के मुताबिक पश्चिम बंगाल के 2.5 लाख, छत्तीसगढ़ के 2.69, उत्तर प्रदेश के 10 लाख, राजस्थान के 5.5 लाख और बिहार के 2.7 लाख प्रवासी मजदूर अभी भी कहीं ना कहीं किसी किराए की जगह ,शेल्टर होम या फिर रोड पर हैं।

2019 में जारी हुए इकोनॉमिक सर्वे की रिपोर्ट के अनुसार देश की कुल वर्क फ़ोर्स में से 93 फीसदी हिस्सा असंगठित क्षेत्र का है। एक अनुमान के अनुसार देश में कुल वर्कफोर्स (किसी क्षेत्र में या किसी विशेष कंपनी या उद्योग में काम करने वाले लोग) की संख्या 45 करोड़ हैं। इनमें से 93 प्रतिशत यानी देश के असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले लोगों की संख्या लगभग 41.85 करोड़ है। इस असंगठित क्षेत्र में निर्माण कार्यों में लगे मज़दूर, रेहड़ी-पटरी और खोमचे वाले, रिक्शा-ऑटो चलाने वाले, सफाई करने वाले, सिक्योरिटी गॉर्ड, कूड़ा उठाने वाले, घरों और दुकानों में नौकर के रूप में काम करने वाले लोग हैं।

असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे ज्यादातर लोगों को न किसी तरह की पेंशन मिलती है और न ही उन्हें कोई पेड लीव मिलती है। इन लोगों को किसी तरह का बीमा भी नहीं मिलता है। कई लोगों के तो आज भी बैंक अकाउंट्स तक नहीं हैं। ऐसी स्थिति में इनकी और इनके परिवार की ज़िन्दगी तो उसी पैसे पर टिकी होती है जो ये रोज़ कमा कर अपने घर लेकर जाते हैं।

घर के लिए पैदल जाते प्रवासी मजदूर

पूरे देश में लॉकडाउन के कारण दो माह से हर सेक्टर में मज़दूरों के काम धंधे ठप पड़े हैं। ऐसे में इन मज़दूरों के पास आजीविका का संकट पैदा हो गया है। जो पैसे उनके पास थे, वो भी अब खत्म हो गए हैं। हालांकि लॉकडाउन की घोषणा के साथ सरकारों ने यह भी अपील की थी कि मकान मालिक लोगों पर किराया देने का दबाव न डालें, जहां तक हो सके उनकी मदद करें। लोगों से यह भी अपील की गई कि वे किसी को नौकरी से न हटाएं और न उनका वेतन काटें, पर इस अपील पर अमल नहीं हो रहा है। वैसे उद्योग-धंधों के सामने ये बहाना भी है कि जब उनके खुद के अस्तित्व का संकट पैदा हो गया हो, तो वे इस अपील पर कहां तक अमल करेंगे।

लॉकडाउन के दौरान देश में बेरोजगारी की दर लगातार काफी ऊंचाई पर बनी हुई है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) के अनुसार 17 मई को खत्म हफ्ते में बेरोजगारी की दर 24 फीसदी रही है। CMIE की रिपोर्ट में कहा गया है कि अर्थव्यवस्था को सुधरने में काफी समय लग सकता है और श्रमिकों के लिए अभी आने वाले दिन मुश्किल भरे ही रहेंगे।

लॉकडाउन के पहले सप्ताह में ही अपने गाँव लौटने को बेचैन लोग भारी संख्या में सड़कों पर दिखे। तब कुछ लोगों को दिल्ली, उत्तरप्रदेश, राजस्थान की सरकारों ने बस के माध्यम से घर पहुँचाया। ऐसी ही कुछ स्थिति मुम्बई के बांद्रा स्टेशन पर उत्पन्न हुई। इसके बाद सरकारों ने मज़दूरों से बाहर न निकलने की अपील की। विभिन्न राज्य सरकारों ने इन्हें आर्थिक सहायता देने की घोषणा भी की। लेकिन लॉकडाउन के दो महीने बीत जाने के बाद इन मज़दूरों की हिम्मत अब जवाब दे गई है।

सरकार की तरफ से कोई ठोस सहायता न मिलने पर ये लोग आज सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर घर पहुँचने को मजबूर हैं। हालांकि सरकारों ने जगह-जगह उनके भोजन वगैरह का इंतजाम किया, पर वो नाकाफी है, जिससे मजदूरों की मुश्किलें कम नहीं हुईं। पर्याप्त भोजन न मिल पाने, रहने का उचित प्रबंध न होने आदि की शिकायतें आम हैं। एक तरफ कोरोना का डर, पेट की भूख और दूसरी तरफ पुलिस की मार का डर। लेकिन फिर भी ये लोग अपने घर पहुंचना चाहते हैं।

दिल्ली में सब्ज़ी खरीदने निकले एक व्यक्ति को पीटती पुलिस

पूरे देश में आज प्रवासी मज़दूरों की स्थिति बहुत ही दयनीय है। घर पहुँचने की चाह में छोटे-छोटे बच्चे, बुजुर्ग, महिलाएं सभी मई की तपती धूप में पैदल चल रहे हैं। कोई साइकिल पर समान लादकर चल रहा है तो कोई बैलगाड़ी में एक बैल की जगह पूरी करने के लिए उसकी कमान संभाले है जिससे बैलगाड़ी आगे बढ़ सकें। कुछ लोग दिन में आराम करके रात-रात भर पैदल चल रहे है। कुछ ने तो पैदल चलते-चलते अपने गंतव्य स्थल तक पहुंचने से पहले ही प्राण त्याग दिए हैं। किसी को काफी जद्दोजहद के बाद खाना मिल गया तो कोई पानी और बिस्किट के सहारे चलने को मज़बूर है।

अनेक राज्यों के बॉर्डर पर प्रवासी मज़दूर की भारी तादाद देखी जा सकती है। सरकारें दावा कर रही हैं कि लॉकडाउन का कड़ाई से पालन हो रहा है, वहीं मजदूरों की लंबी भीड़ सड़क पर घिसट रही है। राज्यों और शहरों की सीमा पर तैनात पुलिस दिनभर मजदूरों को रोक कर रखती है। उनके ठहरने और रुकने का प्रबंध न करना पड़े इसलिए रात के वक्त उन्हें सीमा के दूसरी ओर खदेड़ देती है। मदद के नाम पर एक ही ट्रक में सैकड़ों लोगों को ठूंस कर भेजा जा रहा है।

इस मोर्चे पर सरकार रही विफल

राज्य सरकारों ने श्रमिकों के लिए जिन क्वारंटीन सेंटर की व्यवस्था की उनमें भी सिर्फ़ खानापूर्ति हो रही हैं। सरकारी अफसर सिर्फ अपनी जिम्मेदारियां टाल रहे हैं। ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार फैला हुआ है। क्वारंटीन सेंटर और श्रमिकों के नाम पर आ रहे पैसे में भी खेल हो रहा है। राजस्व विभाग में कार्यरत एक व्यक्ति ने अपना नाम न बताने की शर्त पर बताया कि “200 लोगों के रहने-खाने के लिए पैसा आता है। मात्र 20 लोगों पर खर्च किया जाता है। बाकी की लिस्ट फर्जी ढंग से बनाकर ऊपर भेज दी जाती है।” इसके अतिरिक्त दिल्ली सरकारों के प्रवासी कैंपो की हालत भी ठीक नहीं है।

एक तरफ दिल्ली सरकार ये दावा कर रही है कि वो 10 लाख लोगों को भोजन खिला रही है। और उन्होंने अब तक 60 लाख लोगों को राशन उपलब्ध करवाया है तो फिर क्यों प्रवासी मज़दूर घर जाने को मज़बूर हैं? क्योंकि सरकार के इन कैम्पों में ना तो बिजली-पानी की सही व्यवस्था है। ना ही यहाँ के शौचालयों को सेनेटाइज किया जा रहा है। और इसके अलावा जो खाना लोगों को दिया जा रहा है, उसकी क़्वालिटी भी बेहद खराब है।

सरकार ने इन प्रवासी मज़दूरों के लिए श्रमिक ट्रेनें भी चलाई। ये ट्रेनें भी प्रवासी मज़दूरों के लिए नाकाफी रहीं। क्योंकि उसमें भी भ्रम की स्थिति रही कि टिकट का पैसा कौन देगा? अंततः तय हुआ कि राज्य सरकारें मज़दूरों के टिकट का खर्च उठाएंगी। लेकिन मजदूर अभी भी श्रमिक स्पेशल ट्रेनों में खुद ही किराया देने को अभिशप्त हैं। वहीं अब रेल मंत्रालय भी ट्रेनों की संख्या में भी वृद्धि कर रहा हैं। इसके अतिरिक्त सरकार के शेल्टर होम से स्क्रीनिंग के बाद मज़दूरों को बस से रेलवे स्टेशन भेजा जा रहा है लेकिन इसमें भी काफी समय लग रहा है। और मज़दूरों को बहुत परेशानी हो रही हैं।

ट्रेन से घर लौटते प्रवासी मजदूर

सरकार ने प्रवासियों को घर वापस लाने के लिए ट्रेनें शुरू की हैं, यह जानते हुए भी कि इससे गांवों में कोरोना संक्रमण के फैल जाने का खतरा है। लेकिन सरकार भी जानती है कि प्रवासी मजदूर अपने घरों को लौटने के लिए अधीर हैं। सरकार ने अपने बीस लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज में मज़दूरों को 2 महीने का राशन मुफ्त देने की घोषणा की। उनकी मनरेगा में मज़दूरी को भी 180रु. से बढ़ाकर 202 रु. कर दिया गया है। इसके अतिरिक्त अब मार्च 2021 से देश में एक राशन कार्ड चलेगा। लेकिन इसके अतिरिक्त सरकार को उनके लिए रोज़गार की व्यवस्था करनी होगी ताकि वे आने वाले महीनों में अपना पेट भर सकें। सरकारें घोषणा कर देती हैं लेकिन ये ज़मीनी स्तर पर कितनी कारगर साबित होंगी, ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा।

सरकार की क्या है तैयारी

असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों और कम आय वर्ग के लोगों की सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए भारतीय पेंशन निधि और विनियामक प्राधिकरण (पीएफआरडीए) ने सरकार को एक समग्र योजना का सुझाव दिया है। यह योजना पेंशन और बीमा दोनों के लाभ देगी। पीएफआरडीए के चेयरमैन सुप्रतिम बंधोपाध्याय ने कहा कि प्राधिकरण ने वित्त मंत्रालय को एक समग्र सामाजिक सुरक्षा योजना का सुझाव दिया है जो कम आय वर्ग के लोगों के लिए होगी।

सुप्रतिम बंधोपाध्याय ने कहा, ‘हमने सरकार को कुछ सुझाव दिए हैं। हम विचार कर रहे हैं कि अटल पेंशन योजना, प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा और सुरक्षा बीमा योजना को मिलाकर क्या एक समग्र पेंशन योजना बना सकते हैं।’ बंधोपाध्याय ने कहा कि इस योजना का प्रबंध इस तरह किया जा सकता है कि अटल पेंशन योजना का हिस्सा पीएफआरडीए के पास आ जाए और बीमा का हिस्सा बीमा कंपनी के पास चला जाए। उन्होंने कहा कि यह सब योजनाएं साथ आ सकती हैं। वैसे भी सरकार की इन योजनाओं की दरें बहुत कम हैं। ऐसे में हम मंत्रालय के साथ इन योजनाओं को मिलाकर एक समग्र योजना बनाने पर विचार कर रहे।

लेकिन क्या समय रहते इन सारे विचारों, इरादों और वादों को योजनाओं में बदल कर, लागू नहीं किया गया – तो देश के सामने क्या संकट होगा? ये एक बुरे सपने जैसा ख्याल है।


आँचल गुप्ता, भारतीय संचार संस्थान, नई दिल्ली से पत्रकारिता की पढ़ाई कर रही हैं और राजस्थान के अलवर जिले की रहने वाली हैं। 


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