वैसे तो अंग्रेजों के द्वारा बनाई और उसी समय के पुलिस एक्ट से चल रही भारतीय पुलिस हर रोज अपनी क्रूरता, निरंकुशता एवं कानून विरोधी गतिविधियों के लिए खबरों एवं चर्चा में बनी रहती है. परन्तु हाल में यह अमेरिका में जॉन फ्लायड की पुलिस द्वारा निर्मम हत्या को लेकर भारत में भी पुलिस की दिल्ली में हुई हिंसा और घायल नवयुवकों के साथ अमानवीयता के सन्दर्भ में चर्चा में आई थी. तमिलनाडु के टूटीकोरन जिले के सथान्कुलम कस्बे में 62 वर्षीय जयराज तथा उसके 32 वर्षीय पुत्र बेनेक्स की पुलिस टार्चर द्वारा हुयी हत्या के मामले से भारतीय पुलिस की कार्यपद्धति एक बार फिर राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में है.
इस घटना के विवरण के अनुसार यह दोनों व्यक्ति मोबाईल मरम्मत की दुकान चलते थे. 19 जून को पुलिस उन्हें लाकडाउन समय के बाद दुकान खुला रखने के अपराध में पकड़ कर थाने पर ले गयी, जहाँ पर उनकी निर्मम पिटाई की गयी. रात में उनके घरवालों को नहीं मिलने दिया गया. अगले दिन जब उनकी हालत बिगड़ी तो उन्हें स्थानीय अस्पताल ले जाया गया. उस समय उनकी पेंट्स खून से लथपथ थीं. निरंतर खून बहने से उनकी लुंगियां लगातार बदलनी पड़ रही थीं. पुलिस ने घर वालों को गाढ़े रंग की लुंगियां लाने के लिए कहा. अस्पताल पर तीन घंटे के बाद उन्हें स्थानीय मैजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया.
मैजिस्ट्रेट ने उनको अपने सामने प्रस्तुत कराए बिना ही अपने मकान की पहली मंजिल से हाथ हिला कर रिमांड की स्वीकृति दे दी और उन्हें कोविलपट्टी सब जेल में न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया. उनके घर वालों को बाद में पिता-पुत्र को निकट के सरकारी अस्पताल में स्थानांतरित करने की कोई भी खबर 22 जून की शाम तक नहीं मिली. निरंतर रक्तस्राव तथा पुलिस अभिरक्षा में गंभीर आन्तरिक एवं बाहरी चोटों के कारण बेनिक्स की 22 जून की शाम तथा जयराज की 23 जून को सुबह मृत्यु हो गयी.
यद्यपि इस सम्बन्ध में थाने पर पुलिस वालों के खिलाफ प्रथम सूचना दर्ज की गयी है लेकिन उसमें किसी भी पुलिस वाले के विरुद्ध हत्या का आरोप नहीं लगाया गया, अभी तक पुलिस वालों को धारा 311 के अंतर्गत नौकरी से बर्खास्त नहीं किया गया है, यहां तक कि उनकी गिरफ्तारी भी नहीं हुई है. जनता के विरोध प्रदर्शन एवं हंगामे के बाद चार पुलिस वालों को निलंबित किया गया है और न्यायिक जांच के आदेश दिए गए हैं. राज्य सरकार नें पीड़ित परिवार को 20 लाख मुआवजा देने को घोषणा की है.
मुख्यमंत्री ने कल इस मामले की जांच सीबीआई से कराने की घोषणा की है. लेकिन सवाल यह है कि पुलिस कस्टडी में हत्या या पुलिस वालों द्वारा हत्या करने के बाद महज मुआवजा देने से न्याय पूरा हो जाता है. इससे पिछले माह में भी इसी प्रकार का एक मामला तिरनुरवेली जिले में भी हुआ था जिसमें कुमारसेन नाम के एक नवयुवक की पुलिस पिटाई से मौत हो गयी थी. कहा जाता है कि तमिलनाडु में पुलिस का ऐसा दुर्व्यवहार एक सामान्य प्रक्रिया है और इसे उच्च अधिकारियों एवं सरकार की मौन स्वीकृति है जैसाकि इस मामले में भी स्पष्ट दिखाई देता है.
पुलिस कस्टडी में पुलिस टार्चर की घटनाएँ केवल तमिलनाडु तक ही सीमित नहीं हैं. पुलिस का यह दुराचार पूरे देश में व्याप्त है. नैशनल कैम्पेन अगेंस्ट टार्चर की पुलिस टार्चर के सम्बन्ध में 2019 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार इस अवधि में टार्चर से 1,731 मौते हुयी थीं जिनमें से 1,606 न्यायिक हिरासत में तथा 125 मौतें पुलिस कस्टडी में हुयी थीं. इससे स्पष्ट है कि भारत में अभिरक्षा में हर रोज 5 मौते होती हैं. इस रिपोर्ट से यह भी निकलता है कि इन 125 मौतों में 7 गरीब और हाशिये के लोग थे. इनमें 13 दलित और आदिवासी तथा 15 मुसलमान थे जबकि 35 लोगों को छोटे अपराधों में उठाया गया था. इनमें 3 किसान, 2 सुरक्षा गार्ड, एक चीथड़े बीनने तथा 1 शरणार्थी था. कस्टडी में महिलाओं और कमजोर वर्गों का उत्पीडन एवं लैंगिक शोषण आम बात है. इस अवधि में 4 महिलायों की भी पुलिस कस्टडी में मौत हो गयी थी.
राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार 2017 में पुलिस कस्टडी में 100 मौते हुयी थी जिनमें 58 लोग पुलिस की अवैध कस्टडी तथा 42 न्यायिक हिरासत में थे. मौतों के मामले में सबसे आगे आंध्र प्रदेश 27, गुजरात तथा महाराष्ट्र में 15-15. इन 100 मौतों में अभी तक किसी भी पुलिस वालों को सजा नहीं हुयी है जबकि इनमें 33 पुलिस वाले गिरफ्तार हुए और 27 पर चार्जशीट दाखिल की गयी थी. इसी प्रकार 2017 में मानवाधिकार हनन के 56 मामलों में 48 पुलिस वालों पर आरोप तय हुए थे परन्तु सजा केवल 3 लोगों को ही मिली. इससे स्पष्ट है कि टार्चर के मामलों में दोषी पुलिस वालों के विरुद्ध बेहद कम कार्रवाही होती है.
पुलिस द्वारा उत्पीड़न का मेरा अपना भी अनुभव है. पिछले वर्ष जब पूरे देश में सीएए, एनआरसी का विरोध चल रहा था तो उस समय उत्तर प्रदेश में लगातार मेरे दल ऑल इंडिया पीपुल्स फ्रंट द्वारा लगातार ली गयी लोकतांत्रिक पहलकदमी से बौखलायी योगी सरकार ने राजनीतिक बदले की भावना से मेरी गिरफ्तारी कराई थी. जबकि जिस दिन 19 दिसंबर, 2019 को लखनऊ में हिंसा की घटना हुई मुझे पुलिस ने गैर कानूनी तरीके से मेरे घर पर ही नजरबंद रखा था. मैं खुद एक जिम्मेदार नागरिक होने के कारण इस हिंसा से चिंतित था और आधी रात को मैने फेसबुक पर शांति की अपील तक की. बावजूद इसके अगले दिन लखनऊ पुलिस मुझे दोपहर में मेरे घर से ले गयी और दिनभर गाजीपुर थाने में बिठाये रखा. मुझे दवा तक नहीं दी गयी. शाम को 6 बजे मुझे हजरतगंज थाने पर ले जाया गया. उसे शाम को 5.40 बजे मेरे घर से काफी दूर पार्क से दिखाई. उस दिन दिनभर मुझे खाना नहीं मिला. रात में थाने पर मुझे ठण्ड लगी तो मैंने कम्बल माँगा परन्तु मुझे कम्बल नहीं दिया गया.
मुझे अपने वकील को बुलाने की सुविधा भी नहीं दी गयी. अगले दिन 21 दिसंबर को मुझे शाम को करीब 7 बजे लखनऊ जेल पर मैजिस्ट्रेट के सामने रिमांड के लिए पेश किया गया परन्तु मैजिस्ट्रेट ने बिना मेरी कोई बात सुने रिमांड पेपर पर हस्ताक्षर करके मुझे जेल भेज दिया. अब जैसी कि सूचना है कि रामकथा जैसी कहानियां बनाने में दक्ष पुलिस ने झूठी कहानियों के बल पर मुझे ही लखनऊ में हुई हिंसा का मास्टर माइंड बना दिया. इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि मेरे जैसा व्यक्ति जो 32 साल आईपीएस में रहा हो और आई.जी. के पद से सेवानिवृत हुआ हो, उसके साथ पुलिस कस्टडी में ऐसा दुर्व्यवहार किया जा सकता है तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि आम नागरिक के साथ क्या होता होगा. जेल में मुझे मेरे साथ गिरफ्तार किये गए काफी लोगों ने बताया कि थाने पर उनके साथ वरिष्ठ अधिकारियों के सामने बुरी तरह से मारपीट की गयी जिनमें एक महिला भी थी. पता नहीं मारपीट से मुझे कैसे छोड़ दिया गया.
दरअसल हमारी पुलिस इतनी क्रूर, निरंकुश एवं कानून विरोधी क्यों है? इसे समझने के लिए कुछ मुख्य कारणों पर चर्चा करना चाहूंगा. पहला हमारी पुलिस को अंग्रेजों के बनाए कानून द्वारा असीम अधिकार दिए गए हैं जिनका खुल कर दुरूपयोग होता है. हमारी न्यायपालिका आँख मूँद कर पुलिस द्वारा एफआईआर में बनाई गयी कहानी पर विश्वास करके पुलिस रिमांड/ जेल रिमांड दे देती है जबकि मैजिस्ट्रेट का कर्तव्य होता है कि वह रिमांड हेतु पेश किये गए व्यक्ति का ब्यान ले और सन्तुष्ट हो कि उसकी पुलिस दुर्व्यवहार की कोई शिकायत तो नहीं है परन्तु प्रायः ऐसा नहीं होता है. इससे पुलिस दुर्व्यवहार पूरी तरह से नजरदांज हो जाता है और वह जारी रहता है. पुलिस दुर्व्यवहार निचले अधिकारियों द्वारा किया जाता है जिसमें उच्च अधिकारियों की पूरी सहमति होती है. इसी कारण जब कोई व्यक्ति उच्च पुलिस अधिकारियों से दुर्व्यवहार की शिकायत भी करता है तो उस पर कोई कार्रवाही नहीं होती और पुलिस दुर्व्यवहार बेरोकटोक जारी रहता है.
कहा जाता है कि जैसी जनता होती है वैसी ही सरकार होती है. इसी प्रकार यह भी कहा जा सकता है कि जैसी सरकार होती है वैसी ही पुलिस होती है. वर्तमान में अधिकतर सरकारों का रूख अधिनायकवादी हैं जो नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन एवं दमन करने में विश्वास रखती हैं. उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार इसका सबसे बड़ा उदाहरण है जहाँ पर मुख्यमंत्री ने विधानसभा में पुलिस को कहा कि ‘ठोक दो’ और उन्होंने सबक सिखाने के आदेश दे रखे हैं जिसके परिणामस्वरूप प्रदेश में पुलिस मुठभेड़ के माध्यम से कई लोगों को मारा जा चुका है और उससे कई गुना ज्यादा को टांग और पैरों में गोली लग चुकी है.
मुठभेड़ों के फर्जी होने की सैंकड़ों शिकायतें मानवाधिकार आयोग में पहुँच चुकी हैं तथा एक जनहित याचिका भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है. यह सर्वविदित है कि पुलिस सरकार का डंडा होती है जिसका खुला दुरूपयोग सरकार अपने विरोधियों तथा आम लोगों के खिलाफ करती है. यद्यपि पुलिस कागज पर तो कानून के प्रति उत्तरदायी है परन्तु व्यवहार में वह कानून नहीं बल्कि सता में बैठे लोगों के प्रति जवाबदेह रहती है. दुर्भाग्य से हमारी न्यायपालिका भी पुलिस के गैर कानूनी कामों को नजरंदाज करती है और कई बार तो उसे स्वीकार करती भी दिखती है. ऐसी परिस्थिति में कानून का राज और कानून के सामने समानता का कोई मतलब नहीं रह जाता.
वर्तमान में पुलिस दुर्व्यवहार की शिकायतों की जांच करने की कोई स्वतंत्र व्यवस्था नहीं है जबकि राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने इसके लिए विशेष स्वतंत्र व्यवस्था करने की संस्तुति की थी. इस सम्बन्ध में इस समय जो राष्ट्रीय एवं राज्य मानवाधिकार आयोग बने भी हैं वे भी किसी प्रकार से प्रभावी नहीं हैं. एक तो उनमें शीर्ष पद पर नियुक्तियां भी राजनीतिक प्रभाव से होती है और दूसरे वे इतने पंगु होते हैं कि उनसे शिकायतकर्ताओं को कोई भी राहत नहीं मिलती. कई मामलों में तो शिकायतकर्ताओं द्वारा शिकायत करने पर पुलिस उत्पीड़न बढ़ जाता है क्योंकि शिकायत घूम फिर कर पुलिस के पास ही आ जाती है. हालत इतनी बुरी है कि सुप्रीम कोर्ट के पुलिस सुधार पर दिए आदेश का अनुपालन किसी भी सरकार ने नहीं किया है. हद यह है कि किसी राजनीतिक दल ने इसे राजनीतिक सवाल तक नहीं बनाया है.
यह भी सर्वविदित है कि हमारा समाज लोकतान्त्रिक नहीं बल्कि एक ब्राह्मणवादी-सामंती समाज है जिसमें घोर सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, आर्थिक विषमतायें एवं पूर्वाग्रह हैं. हमारे समाज में समानता और नागरिकता की अवधारणा का पूर्णतया अभाव है जिस कारण हमारे समाज में एक वर्ग व जाति अथवा एक व्यक्ति के विरुद्ध हो रहे अन्याय हिंसा के विरुद्ध पूरे समाज का प्रतिरोध नहीं उभरता है. यही कारण है कि जब एक तबके के व्यक्ति के साथ दूसरे तबके के लोग कोई ज्यादती करते हैं तो बाकी लोग इसके खिलाफ विरोध में खड़े नहीं होते.
इसी प्रकार जब पुलिस किसी व्यक्ति के ऊपर अत्याचार करती है तो उसके विरुद्ध व्यापक जनाक्रोश दिखाई नहीं देता जिससे उक्त गैर कानूनी कृत्य को आम स्वीकृति मिल जाती है. यही कारण है कि हमारे जहाँ आये दिन होने वाली पुलिस उत्पीडन अथवा माब लिंचिंग से होने वाली मौतों पर व्यापक प्रतिरोध अथवा अस्वीकृति प्रदर्शित नहीं होती और यह अबाध चलता रहता है. यह एक सच्चाई है कि हमारे समाज में हिंसा को व्यापक स्वीकृति मिली हुयी है जो समय-समय पर जातिगत, साम्प्रदायिक एवं लैगिक हिंसा के रूप में दिखाई देती रहती है.
इस सम्बंध में मेरा पुलिस में 32 साल की नौकरी का अनुभव है कि हमारी पुलिस हमारे समाज को ही प्रतिबिम्बित करती है. मैंने निम्नस्तर छोडिये उच्च एवं उच्चतम स्तर पर ऐसे पूर्वाग्रह देखे हैं. निरंकुश व फासीवादी विचार वाली सत्ता पा कर यह पूर्वाग्रह अधिक प्रबल हो जाते हैं और वे उनके कार्यकलाप को पूरी तरह से प्रभावित करते हैं. मैंने यह भी देखा है कि निचले स्तर के अधिकारियों के व्यक्तिगत आचरण एवं व्यवहार पर उच्च अधिकारीयों के आचरण एवं व्यवहार का बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है.
मैंने इसका प्रयोग वाराणसी में पीएसी बटालियन के सेनानायक के पद पर रहते हुए किया था. मैं अपने मासिक सैनिक सम्मलेन में कर्मचारियों को वर्दी पहनने के बाद पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष एवं जाति निरपेक्ष रहने पर बल देता था. जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव मैंने 1991 में वाराणसी में एक हिन्दू-मुस्लिम झगडे के दौरान देखा जिसमें मेरे कर्मचारियों पर पक्षपात एवं साम्प्रदायिक होने का कोई भी आरोप नहीं लगा जबकि वहां पर तैनात बीएसएफ के कर्मचारियों पर लगा था. इसके अलावा सरकार के नजरिये एवं व्यवहार का बहुत बड़ा असर पुलिस के आचरण एवं व्यवहार पर पड़ता है. अगर सरकार ही साम्प्रदायिक एजेंडे को ले कर चल रही हो तो इसका प्रभाव उसके डंडे (पुलिस) पर पड़ना जरूरी है.
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि हमारी पुलिस बहुत क्रूर, निरंकुश एवं कानून विरोधी है जिसके कुछ कारणों का ऊपर वर्णन किया गया है. अतः इस पुलिस के चरित्र को बदलने के लिए समाज व राज का लोकतांत्रिक होना जरूरी है. यदि समाज चाहता है कि उसे मानवीय, संवेदनशील एवं कानून का सम्मान करने वाली पुलिस मिले तो पुलिस में मूलभूत सुधारों की जरुरत होगी, जिसे कोई भी सरकार या मौजूदा पूंजीवादी दल नहीं करना चाहते है. इसके लिए नई जन राजनीति को खड़ा करना होगा जो एक जनवादी समाज और राज के निर्माण के लिए काम करे और यूएपीए, एनएसए, स्पेशल आर्मड फोर्ससेस एक्ट जैसे तमाम काले कानूनों का खात्मा, राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं की फर्जी मुकदमों में गिरफ्तारी व उत्पीड़न को राजनीतिक सवाल बनाए उस पर व्यापक जनांदोलन और जनदबाव पैदा करे। इसके लिए आगे आना वक्त की जरूरत है ताकि देश में टूटीकोरेन बार-बार दोहराया न जाए.
एस आर दारापुरी, आईपीएस अधिकारी रहे हैं, वर्तमान में ऑल इंडिया पीपुल्स फ्रंट के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं.