कल सदन में लोकतंत्र में तानशाही कैसे चलाई जाती है इसका स्पष्ट उदाहरण देखने को मिला। किसान बिल के संदर्भ में विपक्षी दल चाहते थे कि राज्यसभा में मतविभाजन के जरिए यह साफ हो कि कौन इस बिल के पक्ष में है और कौन विरोध में। चूंकि मोदी सरकार की राज्यसभा में स्थिति डांवाडोल थी, नंबर्स पर संदेह था, इसलिए विपक्ष बिल पास कराने के लिए सरकार के बहुमत का आंकड़ा जोड़ता ही रह गया और दोनों कृषि बिल ध्वनि मत से ही पारित बता दिए गए।
आखिर मोदी सरकार को इन बिल्स को पास करा लेने की ऐसी जल्दी क्या पड़ी थी? दरअसल ये विधेयक किसानों के हितों से जुड़े विधेयक है ही नहीं, यह पूरी तरह से कॉरपोरेट हितों से जुड़े विधेयक हैं।
यह कोई एग्रीकल्चर रिफॉर्म नहीं है, यह किसान-विरोधी बाज़ार व्यवस्था की शुरुआत है। शुरुआत में सभी ग्लासनोस्त और पेरेस्त्रोइका नजर आता है, बाद में सब समझ में आ जाता है।
इन बिलों में सारे प्रावधान कृषि का व्यापार करने वालों बड़े कॉरपोरेट के हितों की रक्षा के लिए है, यह विधेयक अंधाधुंध रूप से कॉरपोरेट पक्षधर और किसान विरोधी है।
भारत का किसान छोटा किसान है कृषि सेंसस 2015-16 के मुताबिक देश का 86 प्रतिशत किसान 2 हेक्टेयर से कम भूमि का मालिक है। जमीन की औसत मल्कियत 2 हेक्टेयर या उससे कम है।
मोदी सरकार का दावा कि अब किसान अपनी फसल देश में कहीं भी बेच सकता है, पूरी तरह से सफेद झूठ है। आज भी किसान अपनी फसल किसी भी प्रांत में ले जाकर बेच सकता है। लेकिन आप खुद ही सोचिए कि 86 प्रतिशत छोटे किसान ट्रेन में बैठकर 400 किलोमीटर दूर अपनी सब्जी या फल बेचने जाएंगे तो वे मुनाफा लेने की बजाए कर्जदार बन जाएंगे। ये किसान तो अपने खेत से पांच दस किलोमीटर दूर स्थित मंडी में ही जा सकते हैं।
सरकार अब मंडियों को खत्म करने की योजना बना रही है। मंडी शुल्क ही नहीं मिलेगा तो राज्य क्या खाक किसान को सुविधा दे पाएंगे। आखिरकार राज्य ‘मंडी शुल्क’ व ‘ग्रामीण विकास फंड’ के माध्यम से ग्रामीण अंचल का ढांचागत विकास करते हैं।
कॉरपोरेट निर्यातकों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए इन कृषि उत्पादों के भण्डारण पर सीमा समाप्त कर दी गई है। इससे भविष्य में महंगाई बढ़ना तय है। इससे कृषि पर इनका इतना कंट्रोल हो जाएगा जितना आप सोच भी नहीं सकते। बड़ी बड़ी कंपनियां कितना भी भंडारण करें, कोई रोक नहीं होगी। ऐसे में अनाड़ी से अनाड़ी भी बता देगा कि इससे कालाबाज़ारी बढ़ेगी। बड़ी कंपनी, बड़े पैमाने पर कृषि उत्पादों की खरीद व भंडारण करेंगी और बाद में ऊंचे दामों पर बेचकर मुहमांगा मुनाफा बनाएंगी।
लूट की व्यवस्था को कानूनी जामा पहनाकर उसे स्थायी और अधिकृत बनाना कॉर्पोरेट की नीति रही है। कांट्रेक्ट फार्मिंग, कार्पोरेट खेती जमींदारी का नया प्रारूप है
उपनिवेशवाद के बारे में कहा जाता है कि यह कभी नहीं मरता, बस इसका रूप बदल जाता है। इसका ज्वलंत उदाहरण है ‘खाद्य उपनिवेशवाद’ जो हम देखने जा रहे है, यह एक किस्म का उपनिवेशवाद ही है। दुनिया भर में जैसे दक्षिण अमेरिका, मध्य एशिया, दक्षिण-पूर्व एशिया व अफ्रीका में खेतिहर जमीन के बड़े-बड़े सौदे हो रहे है। डेढ़ दशक में तकरीबन चार करोड़ हेक्टेयर कृषिभूमि या तो खरीदी या पट्टे पर ली जा चुकी है। भारत की कंपनियों ने भी तंजानिया जाकर दलहन की खेती की जमीन के सौदे किए हैं, दाल, खाद्य तेल, चीनी और डेयरी क्षेत्र से जुड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां दुनिया भर में कृषि भूमि का अधिग्रहण कर रही हैं।
अब भारत में भी यही प्रक्रिया शुरू हो गयी है। आज इस पोस्ट के अंत मे दो बातें लिख देता हूँ जो इस सरकारी नीति के कारण भविष्य में बहुत बड़े विवाद को जन्म देगी-
पहली है कंपनियों द्वारा बीज पर नियंत्रण
और दूसरी है इन कंपनियों द्वारा मीठे पानी के स्रोत पर नियंत्रण
गिरीश मालवीय स्वतंत्र टिप्पणीकार और आर्थिक मामलों के जानकार हैं। यह लेख उनके फेसबुक पेज से साभार लिया गया है।