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ईरान ने कुछ दिन पहले अमेरिका के एक बहुत महंगे (900 करोड़ रूपये मूल्य) अत्याधुनिक ड्रोन विमान को मार गिराया था। इसके प्रतिकार में अमेरिकी सरकार ने ईरान पर हमला करने की योजना बनायीं लेकिन ठीक 20 मिनट पहले इस हमले को स्थगित कर दिया।
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने 21 जून को एक ट्वीट किया और लिखा कि ‘’हम 3 विभिन्न ईरानी रक्षा ठिकानों पर हमला करने के लिए तैयार थे, मैंने एक जनरल से पूछा कि अगर हम हमला करते हैं तो कितने लोग मरेंगे? जनरल ने जवाब दिया- लगभग 150, इस बात को सुनकर मैंने हमला स्थगित कर दिया क्योंकि एक मानवरहित ड्रोन के लिए इतने लोग मारना ठीक नहीं।‘’
यह हमला ईरान के परमाणु संवर्धन केंद्र एवं मिसाइल लॉन्चिंग सेंटर पर किया जाना था। अमेरिका एवं ईरान के बीच लम्बी भौगोलिक दूरी है। इनके बीच कोई सैन्य, आर्थिक या कोई और प्रतिद्वंद्विता भी नहीं है। फिर ईरान से अमेरिका को इतनी दिक्क्त क्यों है?
इसका जवाब ईरान के इतिहास में छिपा है। इसके कई कारण हैं। 1950 के दशक में ईरानी प्रधानमंत्री मोसद्देक को पद से हटाने का षड्यंत्र ब्रिटिश एवं अमेरिकी सरकार ने रचा था क्योंकि मोसद्देक ने ईरानी तेल कम्पनी का राष्ट्रीयकरण कर दिया था जिसमे ब्रिटेन की हिस्सेदारी थी। ईरान में 1979 की इस्लामिक क्रांति होने से पहले ईरान पर शासन करने वाला पहलवी राजवंश अमेरिका के बहुत नजदीक था। जिस परमाणु कार्यक्रम के कारण अभी अमेरिका ईरान से नाराज है, उस समय ईरान के परमाणु कार्यक्रम को अमेरिकी सरकार का सहयोग प्राप्त था।
पहलवी शासन के दौरान अमेरिका का ईरानी अर्थवयवस्था एवं राजनीति में बहुत दखल था। अनेक अमेरिकी कंपनियां ईरान में काम करती थीं। अयातोल्लाह खोमेनी के नेतृत्व में ईरान की जनता ने ईरानी राजशाही के खिलाफ बगावत कर दी और तख्तापलट कर दिया। ईरानी छात्रो के एक समूह ने अमेरिकन एम्बेसी पर कब्ज़ा कर अमेरिकी राजनयिकों एवं अमेरिकी नागरिको को बंधक बना लिया था जो 444 दिन चला। ईरान में अयातुल्ला खोमेनी के नेतृत्व ने हमेशा पश्चिमी ताकतों अमेरिका एवं इजरायल का फ़लस्तीन के मुद्दे पर मुखर होकर विरोध किया।
फ़लस्तीन की आज़ादी ईरानी विदेश नीति का एक प्रमुख मुद्दा है। फ़लस्तीन की आज़ादी के आंदोलन को समर्थन करने के कारण अमेरिका स्थित मजबूत इजरायल समर्थक लॉबी हमेशा ईरान की खिलाफ रही है। इसके अलावा सऊदी अरब का ईरान के साथ ऐतिहासिक साम्प्रदायिक एवं नस्ली झगड़ा है। ईरान के द्वारा परमाणु कार्यक्रम जारी रखने के अमेरिका खिलाफ है। अमेरिका का मानना है कि ईरान के परमाणु बम बनाने के बाद मिडिल ईस्ट में मौजूद अमेरिकी मित्र देश जैसे इजरायल एवं सऊदी अरब संकट में आ सकते हैं।
पिछले साल नवम्बर में अमेरिका ने ईरान पर अनेक व्यापारिक प्रतिबंध लगाए थे, जिन्हें 2 मई के बाद बढ़ा दिया गया और अमेरिका के प्रमुख व्यापारिक भागीदार देशों जैसे चीन, तुर्की, भारत, जापान को बाध्य किया गया कि ईरान से तेल लेना बंद करो या फिर हमारे साथ व्यापार करो, कोई एक विकल्प चुन लो। इन प्रतिबंधों के बाद ईरान में आर्थिक स्थिति खराब हो गयी और वहां की करेंसी रियाल तेजी से नीचे गयी।
अभी पिछले दिनों प्रतिबंधों को और बढ़ा दिया गया है। अमेरिका ने जापान के प्रधानमंत्री शिंजो अबे को अपना संदेशवाहक बना कर ईरान भेजना चाहा लेकिन ईरान ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया और कहा कि प्रतिबंध लगने के बाद वार्ता की संभावना खत्म हो चुकी है। अब सवाल यह है कि इतना तनाव होने के बाद भी ईरान पर अमेरिका हमला क्यों नहीं कर रहा है?
अमेरिका का मकसद ईरान में प्रतिबंध बढ़ा कर अयातुल्ला खोमेनी के नेतृत्व वाली इस्लामिक सरकार का तख्तापलट करना है, न कि ईरान पर हमला करना। ईरान पर अमेरिकी हमला होने की स्थिति में ईरानी जनता मतभेद भुला कर अयातुल्ला खोमेनी के पीछे खड़ी हो जाएगी और इससे ईरान में अमेरिका विरोध में वृद्धि होगी जोकि भविष्य में अमेरिका के लिए नुकसानदेह साबित होगा।
ईरान इस्लामिक मुल्क है लेकिन वहां का सबसे बड़ा त्योहार ईद-उल-फितर नहीं, बल्कि नौरोज़ है जो इस्लाम-पूर्व पारसी संस्कृति का प्रतीक है। इससे पता चलता है कि ईरानी कितने बड़े राष्ट्रवादी हैं। इसके अतिरिक्त अमेरिका में लगभग 15 लाख ईरानी भी रह रहे हैं जो वहां बड़े पदों पर हैं। उनकी लॉबी भी नहीं चाहती कि ईरान में जनधन हानि हो। इस्लामिक क्रांति होने के बाद ईरान से लगभग दस लाख ईरानी दूसरे देशो में चले गए जो इस्लामिक शासन के अधीन नहीं रहना चाहते थे। उनमें से ज्यादातर अमेरिका गए। इनमें ईरान के पूर्व राजपरिवार के सदस्य भी हैं। वर्तमान ईरानी सरकार के विरुद्ध होने के बावजूद ये भी नहीं चाहेंगे कि ईरान में जनधन की हानि हो।
ईरान के सैनिकों के मरने पर ईरानी जनता की घृणा अमेरिका के प्रति बढ़ेगी। ईरानी जनता के एक हिस्से में ईरानी सरकार के प्रति असंतोष है। जबरदस्ती ड्रेस कोड थोपना, अभिव्यक्ति की आज़ादी न होना, जैसे कारणों से ईरानी बौद्धिकों का एक बड़ा वर्ग ईरानी सरकार से नाराज रहता है लेकिन सैन्य हमले की दशा में ईरानी मतभेद भुला कर एक हो जाते हैं। अमेरिकी हमला होने की दशा में ईरान, यूनाइटेड अरब अमीरात एवं सऊदी अरब स्थित अमेरिकी सैनिक ठिकानों पर भी हमला कर सकता है।
फारस की खाड़ी में युद्ध होने पर अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक जहाजो का आवागमन बंद हो जायेगा और तेल की कीमतों में वृद्धि होगी जिसका जिम्मेदार अमेरिका को ठहराया जायेगा। अमेरिका चाहता है कि ईरानी जनता में प्रतिबंधों के कारण ईरानी सरकार के विरुद्ध असंतोष पैदा हो और विद्रोह हो जिससे तख्तापलट हो। अमेरिका के हमले की स्थिति में ईरान की राष्ट्रवादी जनता मतभेदों के बावजूद अपनी सरकार के साथ खड़ी हो जाएगी और भविष्य में अमेरिका को वहां पैठ जमाने में मुश्किल होगी।
लेखक ईरान एवं मध्य-पूर्व की राजनीति के विशेषज्ञ हैं