रामनवमी के दिन बिहार के आरा में दो बाइकसवार पत्रकारों की एक स्कॉर्पियो से कुचल कर मौत हो गई। दोनों पत्रकार रामनवमी का जुलूस कवर कर के लौट रहे थे। दैनिक भास्कर के मुताबिक इसी अखबार के पत्रकार नवीन निश्चल और एक पत्रिका में काम करने वाले उनके साथ विजय सिंह की स्कॉर्पियो गाड़ी से कुचल कर हत्या की गई है। दोनों पत्रकारों के परिजनों का भी कहना है कि यह हादसा नहीं, हत्या है। दोनों की मौके पर ही मौत हो गई है।
समाचार एजेंसी एएनआइ ने इस मामले को सड़क हादसा बताते हुए देर रात ट्वीट किया और मौके से तस्वीरें प्रकाशित कीं।
#SpotVisuals: Two bike-borne journalists died following a collision with a car in Bhojpur's Arrah; locals set the car on fire #Bihar pic.twitter.com/4MCOED70gE
— ANI (@ANI) March 25, 2018
दैनिक भास्कर के मुताबिक पत्रकारों के परिजन इसे हादसा नहीं, हत्या मान रहे हैं। अखबार के मुताबिक स्कॉर्पियो गड़हनी के पूर्व मुखिया मोहम्मद हरसू की थी और पत्रकार बाइक पर सवार थे। रविवार की शाम पत्रकारों और पूर्व मुखिया के बीच बाज़ार में कुछ झड़प हुई थी जिसमें मुखिया ने उन्हें देख लेने की धमकी दी थी। दुर्घटना रात आठ बजे हुई।
घटना के बाद लोगों ने मारे गए पत्रकारों का शव रखकर आरा-सासाराम हाइवे जाम कर दिया, स्कॉर्पियों फूंक दी और दुकानों में तोड़फोड़ की।
इस ख़बर पर बिहार के वरिष्ठ पत्रकार पुष्यमित्र ने निम्न टिप्पणी अपने फेसबुक पर की है:
बिहार में कल रात फिर दो पत्रकारों की हत्या हो गयी। सुबह फेसबुक खोलते ही यह खबर सामने आई। इस बार दो पत्रकारों को एक मुखिया द्वारा स्कार्पियो से कुचल कर मारने की बात सामने आ रही है। पत्रकार बाइक पर थे।
कल की घटना को मिला दें तो पिछले डेढ़-दो साल में इस तरह पत्रकारों की हत्या के मामले दहाई में पहुंच गए होंगे। इस लिहाज से बिहार पत्रकारों के लिये संभवतः देश का सबसे खतरनाक राज्य बन गया है। अब चुकी इनमें से ज्यादातर पत्रकारों की हत्या राजनीतिक कारणों से नहीं होती, मतलब मोदी विरोध या लालू- नीतीश विरोध के कारण तो यह बड़ा सवाल नहीं बनता। जबकि बस्तर की छोटी-छोटी घटनाएं भी दिल्ली के प्रेस क्लब के आंदोलन का मसला बन जाती है।
मगर सच यह भी है कि ये पत्रकार भी सत्ता के विरोध में पत्रकारिता करते हुए मारे जा रहे हैं। जिलों और प्रखंडों में मुखिया, कोई बड़ा नेता, विधायक भी आखिरकार सत्ता का प्रतीक ही है। पत्रकार जब उनसे टकराता है तो वे इन्हें सबक सिखाते हैं। पिछले साल ही एक टेप भी वायरल हुआ था, जिसमें एक विधायक एक पत्रकार को कुत्ते की तरह गालियां दे रहा था। जिलों और कस्बों के पत्रकार यहां लगातार ऐसे लोगों के निशाने पर रहते हैं। मगर इनके लिये कोई सुरक्षा नहीं है।
यह एक कड़वा सच है कि बिहार के ग्रामीण एवं कस्बाई पत्रकारों के जीवन पर खतरे की एक बड़ी वजह यहां के समाचार समूह हैं। इन्हें पत्रकारिता के साथ-साथ विज्ञापन वसूलने के काम के लिये भी बाध्य किया जाता है। अब चुकी इनका वेतन इतना कम होता है कि कमीशन के लालच में इन्हें यह काम करना ही पड़ता है। वरना घर कैसे चले।
और यह काम इन्हें खतरों की जद में डाल देता है, क्योंकि आपको जिसके खिलाफ खबर लिखना है उसी से विज्ञापन भी वसूलना है। और एक बार जब आप किसी मुखिया, प्रमुख या विधायक से विज्ञापन ले लेते हैं तो वह अपेक्षा करता है कि आप उसके खिलाफ खबरें न लिखें। उसकी बड़ी से बड़ी चूक और अपराध पर चुप्पी साध लें। मगर एक संवेदनशील पत्रकार के लिये यह मुमकिन नहीं। उसे अपने पाठक समाज को जवाब भी देना होता है, उसकी अपनी भी इंटिग्रिटी होती है। लिहाजा वह खबर तो लिख ही देता है। मगर बाद में उसे कीमत चुकानी पड़ती है।
इस लिहाज से राजधानियों के पत्रकार सुरक्षित हैं। एक तो उनके जिम्मे विज्ञापन का काम नहीं है। दूसरा वह सरकार के खिलाफ जरा भी टेढ़ी खबर लिखे वह खबर संपादक के विचार सूची में कैद हो जाती है। वर्षों उस पर विचार और मंथन चलता रहता है। इस बीच अखबार में गुणगान छपता रहता है। लिहाजा हम पत्रकारों को फेसबुक पर उल्टी करने के अलावा और कुछ नहीं आता। और फेसबुक की सूचनाओं की वजह से जान खतरे में नहीं पड़ती।
यह बिहार की पत्रकारिता का नंगा सच है। और पत्रकारिता किस तरह यहां खतरे में है, इसे समझने का रास्ता। बहरहाल हमारे पास अपने इन दोनों साथियों को श्रद्धाजंलि देने के अलावा कोई और रास्ता नहीं है। कल स्कार्पियो को जला ही दिया गया है। कुछ कानूनी कार्रवाईयां होंगी, मगर न कोई नतीजा निकलेगा, न हालात बदलेंगे।
दिवंगत साथी को श्रद्धांजलि