बीते 5 अगस्त 2019 को भारत के जम्मू-कश्मीर में केंद्र सरकार द्वारा अनुच्छेद 370 को रद्द कर राज्य की स्वायत्तता ख़तम किए जाने के बाद कश्मीर की जनता के शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य पर इसके व्यापक असर और सामान्य व आपातकालीन स्वास्थ्य सेवाओं के संकट पर कई अंतर्राष्ट्रीय मेडिकल संगठनों व स्वास्थ्य-संबंधी संस्थाओं ने चिंता ज़ाहिर की है।
‘द लैंसेट’ ने 17 अगस्त 2019 को अपने संपादकीय में कश्मीर की मौजूदा स्थिति पर चिंता व्यक्त की थी। 19 अगस्त को ‘द लैंसेट’ के संपादकीय पर इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) ने आपत्ति जताते हुए एक पत्र लिखा। उनका कहना था कि इस राजनीतिक मामले में टिप्पणी करके ‘द लैंसेट’ ने एक मेडिकल प्रकाशन होने के सिद्धांतों का उल्लंघन किया है क्योंकि “यह भारत के आतंरिक मामले में दख़लअंदाज़ी हैं”।
lwKQ1ptABLqI-Letter-to-editor-The-Lancet-reg-Kashmir-issue
इसकी प्रतिक्रिया में ‘द लैंसेट’ ने कहा कि वो अपने संपादकीय पर कायम हैं, जिसके ज़रिए उन्होंने “कश्मीरियों के शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य पर अपनी गंभीर चिंताओं को व्यक्त किया, जिनपर अब तक पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा रहा था।”
इसी तरह एक और प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय मेडिकल जर्नल द बीएमजे में 16 अगस्त 2019 को भारत के 19 डॉक्टरों व जन-स्वास्थ्य चिकित्सकों ने एक पत्र लिखा था।
मीडियाविजिल द लैंसेट के संपादकीय और द बीएमजे में छपे पत्र का अविकल अनुवाद नीचे प्रस्तुत कर रहा है। (संपादक)
The Lancet का संपादकीय
खौफ़ और अनिश्चतता से घिरा कश्मीर का भविष्य
पिछले सप्ताह एक विवादास्पद क़दम उठाते हुए, भारत ने जम्मू और कश्मीर के स्वायत्तशासी दर्जे को रद्द कर दिया, जिससे भारत को वहां के मामलों पर और ज़्यादा अधिकार मिल गए। इस घोषणा से भारत-पाकिस्तान के बीच के तनाव को हवा मिली। पाकिस्तान भी इस क्षेत्र पर अपने अधिकार का दावा करता रहा है और सात दशक से भी लम्बे समय से इसे लेकर भारत के साथ लड़ता आया है। कम से कम 28,000 भारतीय सुरक्षाबलों को इस इलाके में तैनात किया गया है। राजधानी श्रीनगर में ‘लॉकडाउन’ (सम्पूर्ण बंद) लागू है जिसके चलते संचार और इन्टरनेट संपर्क निलंबित कर दिए गए हैं और सख्त़ कर्फ़्यू थोपा गया है। यह युद्ध जैसी परिस्थिति कश्मीरियों के स्वास्थ्य, सुरक्षा और स्वतंत्रता पर गंभीर चिंता पैदा करती है।
1989 में कश्मीर में हुए विद्रोह के बाद से, राज्य ने दोनों तरफ़ से ख़ूनी संघर्ष झेला है, जिसमें 50,000 से भी अधिक मौतें हो चुकी हैं। पिछले महीने प्रकाशित संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त की एक रिपोर्ट के अनुसार राज्य सुरक्षाबलों और सशस्त्र दलों द्वारा मानव अधिकारों का घोर उल्लंघन हुआ है, और साथ ही सीमा पर गोलीबारी, यौन हिंसा, जबरन गुमशुदगी और आतंकवादी घटनाएं भी होती रही हैं। यह रिपोर्ट इस बात पर ज़ोर देती है कि असैन्य (आम) नागरिकों पर भारी मात्रा में बल का प्रयोग किया जा रहा है, जैसे कि पेलेट फायरिंग बन्दूक का इस्तेमाल जिसकी वजह से वर्ष 2016 से 2018 के बीच 1253 लोग अपनी आँखों की रौशनी खो चुके हैं। भारत और पाकिस्तान दोनों ने ही, इस दमन को ख़त्म करने की इस रिपोर्ट की सिफ़ारिशों को काफ़ी हद तक ख़ारिज कर दिया है।
दशकों से बनी हुई अस्थिरता के बावजूद, विकास-संबंधी सूचक यह दर्शाते हैं कि कश्मीर की प्रगति भारत के अन्य इलाकों के मुक़ाबले काफ़ी बेहतर रही है। 2016 में, पुरुषों की आयु औसतन 68.3 वर्ष और महिलाओं की 71.8 वर्ष थी, जो कि इस क्षेत्र में राष्ट्रीय औसत से ज़्यादा है। लेकिन, लम्बे समय से हिंसा का सामना करने के कारण एक विकट मानसिक-स्वास्थ्य संबंधी संकट पैदा हो गया है। संघर्ष प्रभावित दो ग्रामीण जिलों में मेडिसिन्स सैंस फ्रंटियर्स (डॉक्टर्स विदाउट बॉर्डर्स) द्वारा किया गया अध्ययन बताता है कि क़रीब आधे कश्मीरियों ने अपने जीवन में शायद ही कभी सुरक्षित महसूस किया है और जिन्होंने अपने परिवार के सदस्य को हिंसा में खो दिया है, उनमें हर 5 में से 1 व्यक्ति ने मौत को अपने सामने घटित होते हुए देखा है। इसलिए यह बिलकुल भी हैरानी की बात नहीं है कि इस क्षेत्र में लोगों को ज़्यादा एंग्जायटी (निरंतर घबराहट, चिंता और बैचैनी की अवस्था), डिप्रेशन और पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (दर्दनाक घटनाओं के अनुभव या साक्ष्य से हुए सदमे की अवस्था) है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह दावा किया है कि स्वायतत्ता निरस्त करने का निर्णय कश्मीर में खुशहाली लाएगा, परन्तु पहले कश्मीर के लोगों पर दशकों पुरानी लड़ाई के ज़रिए हुए गहरे ज़ख्मों को भरने की ज़रुरत है, न कि उन्हें और अधिक हिंसा और अलगाव की स्थिति में धकेलने की।
The BMJ में छपा डॉक्टरों का पत्र
भारत के जम्मू–कश्मीर में स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच को लेकर चिंता
हम आपका ध्यान जम्मू-कश्मीर के मौजूदा हालात की ओर लाना चाहते हैं जिसके परिणामस्वरूप जीवन और स्वास्थ्य सेवा के अधिकारों का हनन हो रहा है। 5 अगस्त को भारत सरकार ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 और 35A, जिनके प्रावधानों के माध्यम से जम्मू-कश्मीर भारत से जुड़ा और जो कि राज्य को विशेष अधिकार प्रदान करते हैं, को निरस्त कर दिया।
व्यापक विरोध की आशंका से, भारत सरकार ने 4 अगस्त 2019 की रात से ही राज्य में ‘लॉकडाउन’ (सम्पूर्ण बंद) लागू कर दिया और राज्य के क़रीब 500 राजनैतिक नेताओं और कार्यकर्ताओं को नज़रबंद कर दिया, जिसमें दो पूर्व मुख्यमंत्री भी शामिल हैं। संचार के सभी माध्यमों – लैंडलाइन टेलीफोन, मोबाइल, इन्टरनेट और केबल टीवी – को बंद कर दिया गया है और यह लिखने के वक़्त भी वे बंद थे।
‘लॉकडाउन’ और संचार के सभी माध्यम बंद होने की वजह से कश्मीर घाटी में लोगों को स्वास्थ्य सेवा तक पहुंचने में बहुत मुश्किल हो रही है। राजधानी श्रीनगर से आने वाली ख़बरें वहाँ की भयानक तस्वीर पेश करती हैं। बीमार व्यक्ति को अस्पताल ले जाने के लिए लोग एम्बुलेंस तक नहीं बुला पा रहे हैं, और निजी वाहनों में अस्पताल ले जाने को मजबूर है, वह भी तभी यदि वे उपलब्ध हों। इन वाहनों को हर कुछ मीटर की दूरी में कटीले तारों से की गयी नाकेबंदी पर पूछताछ और पहचान जाँचने-हेतु सुरक्षाबलों द्वारा रोक दिया जाता है।
कई मरीज़ों को पेलेट बन्दूक के इस्तेमाल से लगी चोटों के लिए भरती किया गया है और उनमें से कुछ गंभीर रूप से ज़ख़्मी हैं। केवल उन्हीं लोगों की देख-भाल हो पारही है जो अस्पताल तक पहुँच पा रहे हैं। हालाँकि अस्पतालों में फ़िलहाल आवश्यक सामग्री की मात्रा पर्याप्त थी, लेकिन स्टाफ को अस्पताल पहुँचने में मुश्किलें हो रही हैं। जिन अस्पतालों में अक्सर भीड़ रहती थी, वे खाली पड़े हैं। कुछ डॉक्टरों को डायलिसिस पर रहने वाले अपने मरीज़ों की फ़िक्र हो रही है क्योंकि डायलिसिस की ज़रुरत वाले श्रीनगर के कुछ मरीज़ ही इलाज के लिए आ पाए हैं, बाकी जो शहर से बाहर रहते हैं वो अस्पताल तक नहीं पहुंच पाए हैं।
स्थानीय दुकानों में कुछ दवाओं के स्टॉक ख़त्म हो गए हैं और कम से कम एक रिपोर्ट है कि बीमार रिश्तेदार के लिए दवा ख़रीदने के लिए एक व्यक्ति को हवाई जहाज से नई दिल्ली जाना पड़ा। रिपोर्टें बताती हैं कि अन्य मरीज़ अपनी कीमोथेरेपी के निर्धारित चक्र के लिए समय पर अस्पताल नहीं पहुंच पा रहे हैं। इस परिस्थिति के चलते वहां के लोग जो पहले से ही उच्च स्तर के मनो-सामाजिक तनाव से ग्रसित हैं, उनमें और मानसिक तनाव पैदा हो गया है। प्रसव की तारीख़ के नज़दीक पहुंची कुछ महिलाओं को पहले से ही अस्पताल के पास ठहराया गया, जब सैन्यदल में वृद्धि होने लगी और लगने लगा कि कुछ आफ़त आने वाली है। और भी बहुत सी महिलाएं ज़रूर होंगी जो प्रसव के लिए अस्पताल तक नहीं पहुंच पा रही हैं, या फिर बहुत देर से पहुंची हैं।
मौजूदा परिस्थिति में स्वास्थ्य सेवा के अधिकार और जीवन के अधिकार का ज़बरदस्त हनन हो रहा है। हम भारत सरकार से आह्वान करते हैं कि वह जल्द से जल्द संचार और यात्रा पर लगे प्रतिबंधों में ढिलाई दे, और अन्य कदम उठाएं जिससे मरीज़ बिना किसी रूकावट के स्वास्थ्य सेवाओं का इस्तेमाल कर पाएं।
मेडिसिन्स सैन्स फ्रंटियर्स/डॉक्टर्स विदाउट बॉर्डर्स नामक स्वतंत्र, अंतर्राष्ट्रीय, मानवतावादी मेडिकल संगठन है, जो दुनिया भर के 70 देशों से ज़्यादा में युद्ध व प्राकृतिक आपदाओं से जूझ रहे लोगों को आकस्मिक स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने का काम करता है.
इन्होंने भी 21 अगस्त को एक बयान में कहा कि:
“सूचना व संचार माध्यमों पर लगे पूर्ण प्रतिबंध और आवाजाही पर लगी पाबंदियों की वजह से हमें कश्मीर में चल रहे अपने मानसिक स्वास्थ्य प्रोजेक्ट को फ़िलहाल रोकना पड़ रहा है। हमारा अपने ही स्टाफ़ के साथ बहुत सीमित संपर्क हो पा रहा है, जिसकी वजह से वहां की आबादी की मेडिकल ज़रूरतों के बारे में हम कोई जानकारी प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं। भारत के जम्मू-कश्मीर में सालों से चली आ रही लड़ाई ने उस क्षेत्र के लोगों के मानसिक स्वास्थ्य को काफ़ी गहरी क्षति पहुंचाई है. एम.एस.एफ़ 2001 से कश्मीर वादी में उच्च गुणवत्ता की परामर्श सेवाएँ मुफ़्त में उपलब्ध कराती आयी है।एम.एस.एफ़. द्वारा 2015 में किए गए सर्वेक्षण से पता चला था कि वहां की 45% बालिग आबादी में गंभीर मानसिक परेशानियों के लक्षण हैं। पिछले साल हमने 4327 काउंसिलिंग (परामर्श) सत्र किए था, जो साफ़ दिखाता है कि इस क्षेत्र में निरंतर मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की ज़रूरत है।”
(पत्रों का अनुवाद कल्याणी द्वारा किया गया है, संकलन सुमति ने किया है)