इंसाफ़ की लड़ाई की क़ीमत चुका रहे हैं संजीव भट्ट-IAMC

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भारतीय पुलिस सेवा के पूर्व अधिकारी संजीव भट्ट की रिहाई न होने को लेकर पूरी दुनिया मे सवाल उठ रहे हैं। माना जा रहा है कि 2002 में गुजरात में हुई अल्पसंख्यक विरोधी हिंसा में तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की भूमिका पर उँगली उठाने की वजह से उन्हें परेशान किया जा रहा है। 21 दिसंबर को उनके साठवें जन्मदिन पर कई मानवाधिकार संगठनों ने उनकी रिहाई की माँग की और सत्य और न्याय के प्रति उनकी अटूट प्रतिबद्धता को सलाम किया।

संजीव भट्ट 27 साल पुराने एक मामले में 2018 से बनासकांठा जिले की पालनपुर जेल में बंद थे। यह मामला राजस्थान के एक वकील को गलत तरीके से फंसाने से जुड़ा है। मुकदमे के दौरान पूर्व आईपीएस अधिकारी को जामनगर में हिरासत में मौत के एक मामले में उम्रकैद की सजा भी सुनाई गई है। लेकिन देश-विदेश के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का आरोप है कि उन्हें नरेंद्र मोदी के विरोधी की कीमत चुकानी पड़ी है जो अब भारत के प्रधानमंत्री हैं।

संजीव भट्ट के साठवें जन्मदिन पर अमेरिका के कई मानवाधिकार संगठनों ने उनके समर्थन में बयान दिया। इंडियन अमेरिकन मुस्लिम काउंसिल की ओर से जारी बयान में कहा गया है कि गुजरात नरसंहार में मोदी की भूमिका को लेकर चुप्पी साधने से इंकार करने की वजह से उन्हें जेल की सज़ा सहनी पड़ रही है। गुजरात नरसंहार में दो हजार से अधिक बेगुनाह मुसलमानों की हत्या हुई थी।

2011 में, संजीव भट्ट ने भारतीय सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दायर किया था, जिसमें कहा गया था कि मुख्यमंत्री रहते हुए नरेंद्र मोदी ने कानूनी एजेंसियों को हिंसा में हस्तक्षेप न करने का आदेश दिया था, उन्होंने कहा था, “हिंदुओं को अपना गुस्सा निकालने दें।”

संजीव भट्ट की इस भूमिका से नरेंद्र मोदी बेहद खफा हुए और उन्होंने संजीव भट्ट को दंडित करने का प्रयास किया। हलफनामा दायर करने के चार महीने बाद संजीव भट्ट को एक पुलिस अधिकारी के रूप में निलंबित कर दिया गया था। 2015 में, मोदी के भारत के प्रधान मंत्री बनने के एक साल बाद, श्री भट्ट को नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया था। बाद में, उनके कार्यालय और उनके पारिवारिक घर के कुछ हिस्से पर बुलडोज़र चला दिया गया।

2018 में संजीव भट्ट को 30 साल पुराने हिरासत में मौत के मामले में गिरफ्तार किया गया, जिसमें उनकी कोई संलिप्तता नहीं थी। 2019 में, उन्हें इन झूठे आरोपों के तहत आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी, और तब से न्यायपालिका द्वारा बार-बार जमानत देने से इनकार किया जा रहा है। संजीव भट्ट को मिल रही सजा सरकार के बहुसंख्यकवादी एजेंडे का नतीजा है जिसमें अल्पसंख्यकों पर अत्याचार के खिलाफ कोई सुनवाई नहीं है। न्याय दिलाने के प्रयास करने वाले पुलिस अधिकारी को भी सजा मिल रही है। उन्हें ज़मानत न मिलना इसकी मिसाल है।

श्री भट्ट ने जिस उत्पीड़न का सामना किया है, वह उन लोगों के सामने आने वाली चुनौतियों की याद दिलाता है, जो धुर दक्षिणपंथी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की निगरानी में किए गए अत्याचारों के खिलाफ बोलते हैं। जो धार्मिक अल्पसंख्यकों की कीमत पर एक हिंदू वर्चस्ववादी राज्य की स्थापना करना चाहती है।

 

 


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