तो आरएसएस से जुड़े लोगों की कुर्बानियों की तमाम कहानियों की तरह ये कहानी भी फ़र्ज़ साबित हुई। जी हाँ, आपने अब तक आरएसएस से जुड़े नारायण राव दाभाडकर के त्याग की कहानी सोशल मीडिया पर सुन ही ली होगी। न जाने कितने लोगों ने नागपुर निवासी 85 वर्षीय दाभाडकर की उस कहानी को सुनकर श्रद्धा व्यक्त की जिसमें कहा गया था कि बुज़ुर्ग ने किसी और के लिए अस्पताल में अपना बेड त्याग दिया और तीन दिन बाद उनकी मौत हो गयी।
अब पता चला है कि जिस दिन नारायण राव को अस्पताल से डिस्चार्ज किया गया, उस दिन अस्पताल में तीन-चार बेड उपलब्ध थे और किसी और को बेड देने की कोई इच्छा उन्होंने न जतायी और न इसकी ज़रूरत थी।
आख़िर ये ख़बर वायरल कैसे हुई? तमाम अख़बारों और न्यूज़ चैनलों ने इसे त्याग बलिदान की अमर कहानी बतौर चलाया। उन्होंने यह सवाल भी नहीं किया कि आख़िर किसी बुजुर्ग को दवा इलाज बग़ैर मरना पड़े तो ये सिस्टम को लानत भेजने की बात है या फिर तारीफ़ करने की?
ख़ैर, गोदी मीडिया से इतनी उम्मीद भी क्या करना। जब मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और केंद्रीय मंत्री और पूर्व जनरल वी.के.सिंह ही इसे आरएसएस की शिक्षाओं का शिखर बताकर वायरल कर रहे थे।
“मैं 85 वर्ष का हो चुका हूँ, जीवन देख लिया है, लेकिन अगर उस स्त्री का पति मर गया तो बच्चे अनाथ हो जायेंगे, इसलिए मेरा कर्तव्य है कि मैं उस व्यक्ति के प्राण बचाऊं।” ऐसा कह कर कोरोना पीडित @RSSorg के स्वयंसेवक श्री नारायण जी ने अपना बेड उस मरीज़ को दे दिया। pic.twitter.com/gxmmcGtBiE
— Shivraj Singh Chouhan (@ChouhanShivraj) April 27, 2021
अस्पताल मे एक 40 वर्षीय युवती के पति को बेड नहीं मिल रहा था। एक बुजुर्ग ने डॉक्टर को पास बुलाया और कहा, “मैंने तो अपना जीवन जी लिया है। मुझसे अधिक इस बेड की आवश्यकता उस परिवार को है।”
ये बुजुर्ग थे 85 वर्षीय RSS स्वयंसेवक काका नारायण डाभाधकर, जिनका 3 दिन बाद निधन हो गया। pic.twitter.com/8XfrVtSDVN— Vijay Kumar Singh (@Gen_VKSingh) April 28, 2021
ग़ौरतलब है कि इस फ़र्ज़ी ख़बर को फैलाने में आरएसएस भी शामिल रहा। इंडियन एक्स्प्रेस के मुताबिक 27 अप्रैल को आरएसएस ने एक बयान जारी करके बताया कि “दाभाडकर को इंदिरा गाँधी रुग्णालय में बड़ी मुश्किल से एक बेड मिला था। उन्होंने वहाँ एक महिला को देखा जो अपने चालीस वर्षीय पति के लिए आक्सीजन वाले बेड के लिए गुज़ारिश कर रही थी। उसके बच्चे भी रो रहे थे। दभाडकर ने वहाँ मौजूद मेडिकल स्टाफ से कहा कि उन्होंने अपनी ज़िंदगी जी ली है, अगर कोई बेड नहीं है तो उनका बेड दे दिया जाये। दभाडकर के दामाद और डाक्टरों ने बताया कि उनका इलाज बेहद ज़रूरी है। कोई दूसरा बेड मिलने की गारंटी भी नहीं है, लेकिन दभाडकर नहीं माने। उन्होंने अपनी बेटी को बुलाया और कहा कि वे घर वापस जायेंगे। सबने उनकी भावनाएँ समझीं। वे घर वापस आये और तीन दिन बाद उनका निधन हो गया।”
इस कथा को सुनकर कौन नहीं द्रवित होगा। यह बात बार-बार बतायी जाने लगी कि यह आरएसएस से मिले संस्कारों का नतीजा है। ऐसे समय जब महामारी के दौरान आरएसएस के कार्यकर्ताओं की ग़ैरमौजदूगी से हर तरफ़ सवाल उठ रहे थे, ये कहानी एक बड़ी राहत थी।
लेकिन कॉमनसेंस यह पूछ रहा था कि क्या कोई मरीज़ बेड देने या न देने का फ़ैसला कर सकता है? या फिर यह अस्पताल प्रशासन तय करता है? इस संबंध में नागपुर नगर निगम द्वारा संचालित इस अस्पताल के इंचार्ज शीलू चिमुरकर ने जो कहा उससे साबित होता है कि यह ख़बर पूरी तरह गढ़ी गयी।
डॉ.शीलू ने बतायि कि “दाभाडकर 22 अप्रैल की शाम 5:55 बजे इरमजेंसी में भर्ती हुए थे। हमने उनके परिजनों से कहा था कि अगर उनकी हालत बिगड़ी तो उन्हें किसी बड़े अस्पताल जाना होगा। वे समहत थे। 7:55 पर वे लौटे और डिस्चार्ज करने की माँग करने लगे। हमें इसका कारण नहीं बताया गया, लेकिन हमने उन्हें सलाह दी कि वे मरीज़ को किसी बड़े अस्पताल में ले जायें। उनके दामाद अमोल पाचपोर ने सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किये तब हमने मेडिकल सलाह के विरुद्ध डिस्चार्ज कर दिया।”
सोशल मीडिया में तैर रही त्याग-बलिदान की कथाओं के बारे में शीलू चिमुरकर ने कहा कि उनके किसी स्टाफ़ ने ‘ऐसी किसी घटना को नहीं देखा। उन्होंने यह भी कहा कि उस दिन हमारे पास चार-पाँच बेड खाली थे।’
यानी चार-पाँच बेड जिस अस्पताल में खाली थे उस दिन किसी के बेड त्यागने की ज़रूरत कहाँ थी। वैसे, मानव इतिहास में ऐसी कथाएँ तमाम हैं जब लोगों ने अपनी जान देकर दूसरों की जान बचायी है, लेकिन इस तरह का फ़र्जीवाड़ा बताता है कि दुष्प्रचार कितना सुचिंतित और राजनीतिक है। जिस तरह आरएसएस के स्वतंत्रता आंदोलन में भाग ने लेने की तोहमत दूर करने के लिए तमाम कथाएँ गढ़ी जाती हैं, वैसे ही इस संकट के समय फ़र्ज़ी किस्से गढ़े जा रहे हैं।
ध्यान रहे कि कुछ दिन पहले हिंदी के सबसे बड़े अख़बार दैनिक जागरण ने छाप दिया था कि आरएसएस के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार ने काकोरी ट्रेन डकैती में हिस्सा लिया था केशव चक्रवर्ती के नाम से। जबकि केशव चक्रवर्ती एक दूसरे क्रांतिकारी का नाम था। मीडिया विजिल ने यह ख़बर भी छापी थी जिसे आप यहाँ पढ़ सकते हैं।
फ़र्ज़ी जागरण: काकोरी कांड के केशव को बताया हेडगेवार, क्रांतिकारियों के परिजन नाराज़!
नागपुर के इस फ़र्जीवाड़े को बेपर्दा करने वाला ये वीडियो वीडियो देखिये –