संसद के शीतकालीन सत्र में एक ऐसा बिल भी पेश हुआ जिससे कर्मचारियों को 24 घंटे बॉस का फोन रिसीव करने की गुलामी से आज़ादी मिल जाती। ‘राइट टू डिस्कनेक्ट’ नाम के इस निजी बिल को राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्ट की सदस्य सुप्रिया सुले ने लोकसभा में पेश किया था लेकिन यह पास नहीं हो सका। ज़ाहिर है, सरकार नहीं चाहती कि ख़ासतौर पर कॉरपोरेट जगत में चल रही गुलामी की इस परंपरा का अंत हो सके।
उदारीकरण के बाद सेवा क्षेत्र में तमाम तब्दीलियाँ आई हैं। नए-नए तरह के रोजगार भी बने हैं, लेकिन इसने काम के घंटों के मानवीय और संवैधानिक अधिकार को भी शिकार बनाया है। शिफ्ट ख़त्म हो जाने के बाद भी दफ्तर से फोन और ईमेल आना सामान्य बात है और कर्मचारियों से उम्मीद की जाती है कि वे इनका तुरंत जवाब देंगे। बॉस का फोन काटना तो नौकरी गँवाने का खतरा मोल लेना है। कॉरपोरेट कंपनियों के कर्मचारियों को ख़ासतौर पर इसका क़हर झेलना पड़ता है और वे कमउम्र में ही तमाम बीमारियों के शिकार बन रहे हैं।
सुप्रिया सुले ने ‘दि राइट टू डिसकनेक्ट बिल 2018′ के माध्यम से एक एम्पलाई वेलफेयर अथॉरिटी बनाने की मांग की थी ताकि कर्मचारियों का हक सुरक्षित रह सके। बिल में कहा गया था कि छुट्टी पर रहने या ऑफिस ऑवर के बाद कोई कर्मचारी दफ्तर से आया फोन रिसीव नहीं करता तो उसके ख़िलाफ़ किसी तरह की कार्रवाई नहीं हो सकती। कानून के उल्लंघन पर कंपनी के खिलाफ़ भारी जुर्माने का भी प्रावधान था। यही नहीं इस संबंध में जागरूकता फैलाने का भी प्रावधान था।
फिलहाल फ्रांस ही वह देश है जहाँ के कर्मचारियों को यह अधिकार है कि वे दफ्तर से छूटने के बाद कोई फोन रिसीव न करें। लेकिन आर्थिक आरक्षण पर एकजुट संसद इस बिल के महत्व को समझ न सकी। या शाय़द अपने कॉरपोरेट आकाओं को नाखुश करने की किसी ने हिम्मत नहीं दिखाई जिनके मुनाफ़े का एक बड़ा आधार मज़दूरों और कर्मचारियों के श्रम की लूट है।