ख़बर है कि मुकेश अंबानी के रिलायंस ग्रुप से जुड़े चैनलों और वेबसाइटों से बड़े पैमाने पर छँटनी हो रही है। दिल्ली, मुंबई से लेकर राज्यों के नेटवर्क से लगभग दो सौ पत्रकारों को निकालने की प्रक्रिया शुरू हो गई है।
आगे कुछ बताने के पहले ज़रा पीछे चलते हैं।
‘इकट्ठा निकालने में बदनामी होती है’- कई साल पहले जब नेटवर्क 18 से तीन सौ से ज्यादा लोग एक साथ बाहर किए गए थे, तो कुछ समय पहले ही कंपनी को अपनी धनशक्ति के सर्किट से जोड़ने वाले रिलायंस ग्रुप ने संदेश दिया था।
बाद में नेटवर्क 18 की सारी हिस्सेदारी बेचकर इसके संस्थापक राघव बहल बाहर हो गए और पूरी कंपनी मुकेश अंबानी वाले रिलायंस ग्रुप के बनाए एक ट्रस्ट के हवाले हो गई। अब बड़ी तादाद में पत्रकारों को ‘झटके’ से नहीं निकाला जाता बल्कि अलग-अलग ‘हलाल’ किया जाता है।
रिलायंस ग्रुप इस समय देश के कुल मीडिया के आधे से ज़्यादा का मालिक माना जाता है। ईटीवी के भी ज्यादातर चैनल उसके हैं। न्यूज़18 इंडिया नाम से हिंदी और सीएनएन न्यूज़ 18 नाम से अंग्रेज़ी न्यूज़ चैनलों के अलावा बिज़नेस पर केंद्रित सीएनबीसी और सीएनबीसी आवाज़ भी उसी की मिल्कियत हैं। इसके अलावा इन चैनलों से जुड़ी वेबसाइटें हैं। यानी देश का मानस गढ़ने और उसे बिगाड़ने की जितनी ताक़त इस समय अंबानी के पास है, वैसा कभी किसी के पास नहीं था। वो जिस चीज़ को चाहें मुद्दा बना सकते हैं। जिसे चाहे हीरो बता सकते हैं और जिसे चाहें जीरो।
वैसे इसी ग्रुप की फ़र्स्टपोस्ट नाम की हिंदी वेबसाइट बंद हो चुकी है। अंग्रेजी भी बंदी के कगार पर है। इसे ओपीनियन मेकर के तौर पर पेश किया गया था जो बाज़ न आने वाली उन चुनिंदा वेबसाइटों का जवाब थी जो सरकार और क्रोनी कैप्टलिज़्म पर हमलावर थीं। इसी बीच फ़र्स्टपोस्ट नाम का एक अंग्रेज़ी साप्ताहिक अख़बार भी शुरु किया गया। बंद की गई हिंदी वाली वेबसाइट के कुछ बड़े पत्रकार इस अख़बार का बंडल लेकर संस्थान के विभिन्न विभागों में पेपर बाँटते नज़र आए। पर चार -पाँच अंक निकालने के बाद इस अखब़ार को घाटे का सौदा मानकर बंद कर दिया गया। तमाम पत्रकार इस प्रयोग की चपेट में आकर खेत हो गए।
ये बात अलग से बताने की जरूरत नहीं है कि अंबानी के चैनल पूरी तरह बीजेपी को समर्पित है। सरकार की वाहवाही और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की दैनिक चीखें, इन चैनलों की पहचान है। कॉरपोरेट और दंगाइयों का ऐसा गठजोड़ कम से कम भारत में नया है। इसके ख़िलाफ़ लड़ाई कम ही नज़र आती है। वैसे हरतोष सिंह बल जैसे कुछ लोग मुकाबला करते हैं और जीत भी हासिल करते हैं (ट्वीट देखें), जिनके बारे में नीचे बताएँगे।
तो जब मोदी जी दोबारा सत्ता में आ चुके हैं तो जो काम व्हाट्सऐप युनिवर्सिटी से हो सकता है, उसे करने के लिए चैनलों या वेबसाइटों पर इतना खर्च करने का तुक क्या? बेवजह मुनाफा कम क्यों किया जाए? पत्रकारों को बाहर का रास्ता दिखाने का नुकसान क्या? यह कुछ सवाल हैं जो मैनेजमेंट के दिमाग़ में कुलबुला रहे थे। लेकिन झटके से एक साथ सबको निकालने से ब्रैंड पर असर पड़ता है। तो तमाम वेबसाइटों और चैनलों से कुछ-कुछ लोगों को आगे-पीछे निकाला जा रहा है। सबसे ज़्यादा चोट सीएनबीसी आवाज़ पर पड़ने की चर्चा है।
एक जमाने में उम्र और अनुभव के साथ पत्रकारों का सम्मान बढ़ता था। लेकिन कॉरपोरेट पत्रकारिता में मामला उलटा है। वैसे भी जब तथ्यों की जगह चीख़-पुकार मचाना हो तो फिर अनुभव की जरूरत किसे रह जाती है। इसलिए उम्र बढ़ने के साथ वेतन बढ़ने की स्वाभाविक गति पत्रकार को कंपनी पर बोझ बना देती है, जिसे कम करने की सलाह, एमबीए करके कंपनी ज्वाइन करने वाला हर कॉरपोरेट बटुक दे ही देता है।
तो इस बकरीद में, देश के सबसे अमीर आदमी अंबानी की कंपनी के साथ जुड़कर अपने भविष्य को सुनहरा समझने वालों के हलाल होने की बारी है। वे कोई प्रतिवाद भी नहीं कर सकते। इनमें ज्यादातर की गृहस्थी कच्ची है और महँगे फ्लैट और गाड़ी के किस्त ने उनकी रीढ़ तोड़ है। उन्होंने ख़ुद को वर्किंग क्लास का हिस्सा मानना कब का छोड़ दिया था इसलिए भी उनकी ओर से किसी प्रतिवाद की गुंजाइश नहीं है।
ऐसे में इन पत्रकारों के पास एक महीने की सैलरी लेकर चुपचाप कंपनी छोड़कर बाहर निकल जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। जिन ‘अच्छे दिनों’ को लेकर वे कई साल से पैकेज पर पैकेज लिख और बना रहे थे, उसकी हक़ीक़त ये है कि इक्का-दुक्का को छोड़कर किसी को दूसरे चैनलों में नौकरी मिलने की गुंजाइश नहीं है। ‘कास्ट कटिंग’ सभी चैनलों का नारा है और सभी अपने-अपने बोझ कम करने का सालाना कार्यक्रम करते ही रहते हैं।
लेकिन एक रास्ता है। पिछले दिनों वरिष्ठ पत्रकार और द कारवाँ के पोलिटकल एडिटर हरतोष सिंह बल ने एक मुकदमा जीता है जो इन सबको राह दिखा सकता है। उन्हें भी ओपेन पत्रिका से पाँच साल पहले यूँ ही झटके से निकाल दिया गया था। उन्होंने इसके खिलाफ मुकदमा लड़ा और पाँच साल बाद उन्हें हाईकोर्ट से जीत हासिल हुई है। अंबानी के मारे पत्रकार अगर लड़ना चाहें तो ये रास्ता अपना सकते हैं।
जब देश आज़ाद हुआ था तो श्रमजीवी एक्ट इसीलिए बना था कि पत्रकारों को पूँजीपतियों के इशारे पर कलम न चलानी पड़े। उन्हें नौकरी से मनमर्जी तरीके से निकाला नहीं जा सकता था। लेकिन पहले ‘उदारवाद’ और फिर ‘राष्ट्रवाद’ से पगी सरकारों ने इस कानून को बुरी तरह कमजोर कर दिया। अब खुलकर कलम चलाने वालों के लिए किसी कंपनी में नौकरी मिल जाए तो आश्चर्य ही होगा।
बहरहाल उम्मीद की जानी चाहिए कि यूनियन,काम के घंटे, श्रम कानून आदि की चर्चा पर नाक भौं सिकोड़ने वाले पत्रकारों को इस संकट के दौर में ही सही, इन चीज़ों का महत्व समझ आ जाएगा।