महाराष्ट्र के ठाणे जिले में स्थित पावरलूमों की दिन रात जागने वाली नगरी भिवंडी को, जो मुम्बई के शहरी क्षेत्र का ही हिस्सा है, ‘महाराष्ट्र का मैनचेस्टर’ कहा जाता है. गत 24-25 मार्च को कोरोना से लड़ने के लिए लागू किये गये देशव्यापी लॉकडाउन से पहले इसके कोई चैदह लाख पावरलूमों में हिन्दी पट्टी के दसियों लाख कुशल व अकुशल मजदूर रोजगार पाते रहे हैं. लेकिन अब जैसे-जैसे लॉकडाउन के दिन बढ़ते जा रहे हैं, उनकी बदहाली की कहानी अकथनीय होती जा रही है.
हालत यह है कि न वहां से पलायन कर गये मजदूरों का हाल अच्छा है, न ही उनका जो भूख-प्यास के साथ ढेर सारी दुश्वारियां झेलकर अभी भी इस उम्मीद में पड़े रह गये हैं कि शायद 17 मई के बाद हालात में थोड़ा बदलाव आये और रोजी-रोटी चल निकले. उनमें से कई अब वहां से भाग गये मजदूरों से बातचात में अपनी विपदाओं का इस शे’र की मार्फत बयान करते हैं- ‘मैं भी कुछ खुश नहीं वफा करके, तुमने अच्छा किया निबाह न की।’ उन्हें नहीं लगता कि 17 मई के बाद भी उनके मैनचेस्टर में हालात बदलने या खुशगवार होने वाले हैं.
फिलहाल, वहां से पलायन कर गये मजदूरों की दो श्रेणियां हैं. पहली उनकी जिन्होंने पुलिस प्रशासन के डर से रात-बिरात बदले हुए अनजान रास्तों से भागने का फैसला किया और रास्ते में हादसों, ठगी और ज्यादतियों वगैरह के शिकार हो गये. इनमें गत 26 अप्रैल को वड़पे से निकले वे चार मजदूर भी शामिल हैं, जो वहीं भटककर कसारा घाट के जंगल की सोलह सौ फीट गहरी खाई में जा फंसे और चार घंटों के रेस्क्यू आपरेशन के बाद मुश्किल से बचाये जा सके.
उत्तर प्रदेश में अयोध्या और उसके आसपास के जिलों के वे छब्बीस मजदूर भी इसी श्रेणी में हैं, जो गत सात मई को भिवंडी के फात्मानगर से चुपके से बोलेरो पिकअप से निकले और मध्य प्रदेश के सागर जिले में छपरी तिराहा पहुंचते-पहुंचते सामने से तेज गति से आ रही मिनी ट्रक से जोरदार टक्कर के हादसे में फंस गये. इस हादसे में बोलेरो पिकअप के मालिक व चालक समेत तीन मजदूरों की मौत हो गई, जबकि चैदह अन्य मजदूर गम्भीर रूप से घायल हो गये.
लेकिन दूसरी श्रेणी के जिन मजदूरों ने जैसे-तैसे अपने घरों की मंजिल पा ली, उनका हाल भी कुछ अच्छा नहीं है. सरकारी प्रचार के खिलाफ उनकी मुसीबत इतनी-सी ही नहीं है कि वे 14 दिनों के लिए यातनागृहों जैसे क्वारंटीन सेंटरों में निरुद्ध किये जा रहे हैं. कई मामलों में तो उनका कोई नामलेवा तक नहीं है.
भिवंडी के केडिया कंपाउंड से नाना प्रकार के पापड़ बेलते और किस्तों-किस्तों में पैदल चलते 13 दिनों में डेढ़ हजार किमी से अधिक की दूरी तय करके गत छः मई को उत्तर प्रदेश के सुलतानपुर जिले में स्थित अपने गांव अमलिया सिकरा पहुंचे तीन पावरलूम मजदूरों के मामले में यह ‘कोई नामलेवा न होने का’ अनुभव कुछ ज्यादा ही त्रासद है.
लगातार पैदल चलने के कारण उनके पैरों में छाले पड़े हुए हैं और पूरे शरीर में दर्द रहता है, लेकिन प्रशासन ने गांव के पंचायत भवन में क्वारंटीन करके ही उनके प्रति अपने कर्तव्य समाप्त मान लिये हैं. ये पंक्तियां लिखे जाने तक कई दिन बीत चुके हैं और उनकी जांच पड़ताल या चिकित्सा के लिए कोई स्वास्थ्य कर्मचारी वहां झांकने तक नहीं आया है.
वे बताते हैं कि 24 अप्रैल की सुबह परिस्थितियों के आगे हार मानकर भिवंडी के शेलार स्थित केडिया कंपाउंड से पैदल ही निकले तो दस की संख्या में थे. कुछ सुलतानपुर एवं कुछ उसके पड़ोसी प्रतापगढ़ जिले के निवासी. वे सभी नौ दिनों तक प्रतिदिन 60 से 70 किमी पैदल चलते रहे, लेकिन उसके बाद पैरों के छालों और थकान के कारण छः की हिम्मत जवाब दे गई, जबकि सुलतानपुर जिले के अमलिया सिकरा गांव रहने वाले शिवचरण गौतम, देवीलाल गौतम व हुबराज गौतम अपने साथी मलवनिया गांव के एक अन्य मजदूर के साथ जैसे-तैसे आगे बढ़ते रहे.
इनमें शिवचरण गौतम के अनुसार महाराष्ट्र के बाहर आने के बाद उन्हें बीच-बीच में लारियां मिल जाती थीं. कई दरियादिल लारी वाले बिना किराया लिये उन्हें कुछ दूर पहुंचा देते थे, जबकि कुछ अन्य 50 किमी का भी डेढ़-दो सौ रुपया किराया ले लेते थे. फिर पैदल चलते-चलते जहां थक जाते, वहीं सो जाते और उठने के बाद फिर ‘पदयात्रा’ शुरू कर देते. कई बार लारियां मिल जातीं तो भोजन नहीं मिलता और भोजन मिल जाता तो लारियां नहीं मिलतीं.
हां, इंदौर से 73 किमी दूर एक ढाबे पर उन्हें निःशुल्क भोजन मिला. उसका संचालक रायबरेली का था और उसने ‘अपने भाइयों’ के साथ हमदर्दी निभाई. नहाने एवं खाने की व्यवस्था देखकर वे वहां एक दिन रुक भी गये. वहां उनकी जांच के लिए डॉक्टर एवं पुलिस के क्षेत्राधिकारी आने वाले थे और बताया गया था कि उनकी आगे की यात्रा के लिए बस की व्यवस्था कर दी जायेगी. लेकिन ऐसा कुछ नहीं किया गया.
छः मई को सुबह चार बजे वे लारी से प्रयागराज पहुंचे और वहां से पैदल चलते हुए सोरांव पहुंचे तो देखा कि एक गेस्ट हाउस में मजदूरों के लिए खाना बन रहा था. लेकिन वहां जैसे ही उनका मेंडिकल चेकअप हुआ, उन्हें बताया गया कि डीएम साहब आने वाले हैं और वे उनको यहां देखते ही भड़क जायेंगे. फिर तो वे वहां से भी भूखे ही चल दिये. चालीस किलोमीटर चलने के बाद एक लारी वाले ने दो दो सौ रुपये लेकर उन्हें सुलतानपुर जिले के पयागीपुर चैराहे पर छोड़ दिया.
चैराहा सील होने के कारण वे रेल पटरी पकड़कर चलने लगे और आगे जाकर पुलिस अधिकारियों को सूचित कर अपनी मेडिकल जांच कराने की मांग की. इस जांच के लिए डॉक्टर तक पहुंचने में भी उन्हें छः किलोमीटर पैदल चलना पड़ा. इसके बाद वे एक एंबुलेंस से अपने गांव पहुंचे, जिसका आठ सौ रुपया किराया देना पड़ा. तलवनियां गांव का उनका साथी मजदूर अपने गांव चला गया.
चूंकि उन्होंने पहले ही ग्राम प्रधान को सूचित कर दिया था, उन्हें क्वारंटीन करने के लिए पंचायत भवन खाली रखा गया था, लेकिन वहां कोई व्यवस्था नहीं थी- न तो बिजली और न ही पंखा. उनके लिए चारपाई, बिस्तर, नाश्ता और खाने का सारा इंतजाम उनके घर वालों के ही जिम्मे है. आंगनवाड़ी की सहायिका द्वारा उन्हें क्वारंटीन किये जाने की सूचना देने के बावजूद जिला या ब्लॉक से उनकी जांच या चिकित्सा के लिए ये पंक्तियां लिखने तक कोई नहीं आया है. वे दर्द से कराहते क्वारंटीन के दिन ऐसे काट रहे हैं जैसे किसी अपराध की सजा भुगत रहे हों.
उनका यह हाल बिना कुछ कहे कोरोना से लड़ाई के सरकारों के बड़े-बड़े दावों की पोल भी खोल देता है.
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।