कांचा इलैया और ‘दलित’ को डी.यू में वर्जित करने के ख़िलाफ़ शिक्षक और छात्र सड़क पर

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मशहूर सामाजिक चिंतक कांचा इलैया की तीन किताबों और दलित शब्द को दिल्ली विश्वविद्यालय के अकादमिक विमर्श से बाहर करने की कोशिशों के ख़िलाफ़ आज शिक्षकों, शोधार्थियों और छात्रों ने प्रतिवाद मार्च निकालकर अपना आक्रोश व्यक्त किया।

दिल्ली विश्वविद्यालय की एकेडमिक काउंसिल की स्टैंडिंग कमिटी की सिफारिशों में कांचा इलैया की तीन किताबों के अलावा नंदिनी सुंदर की किताब को भी पाठ्यक्रम से हटाने की सिफ़ारिश है। दलित शब्द को अकादमिक विमर्श में वर्जित करने की सिफारिश ने भी सबको चौंका दिया है। नॉर्थ कैंपस में हुए इस प्रदर्शन के बाद हुई सभा में इन सिफारिशों को असंवैधानिक व सामाजिक न्याय की विरोधी मानसिकता का नतीजा बताया गया। । साथ ही ‘दलित’ शब्द को संविधान में न होने के बहाने अकादमिक प्रयोग से हटाना इसी बीमार व अन्यायपूर्ण मानसिकता का परिचायक है।

दिल्ली विश्वविद्यालय के कई विभागों के प्रोफ़ेसर इस सभा में शामिल हुए और स्टैंडिंग कमेटी के निर्णय का विरोध किया। राजनीति विज्ञान विभाग, हिन्दी विभाग, इतिहास विभाग, दर्शनशास्त्र विभाग के शिक्षकों के अलावा दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के कई प्रतिनिधियों ने भी इस आंदोलन को अपना समर्थन दिया।

‘फ़ाइट फॉर सोशल जस्टिस इन डीयू’ के बैनर तले हुए इस प्रदर्शन के बाद जारी प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि डीयू देश का प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय है। इस विश्वविद्यालय की तमाम अकादमिक गतिविधियां पूरे मुल्क के पठन-पाठन के लिए एक नज़ीर जैसी रही है। यहाँ के पाठ्यक्रम को देखकर तमाम विश्वविद्यालय अपना पाठ्यक्रम बनाते हैं। समाज के बहुसंख्यक वंचित दलित, पिछड़े, आदिवासी, अल्पसंख्यक समुदाय से जुड़ी अकादमिक बहसों को दिल्ली विश्वविद्यालय ने हमेशा अपने पाठ्यक्रम में जगह दी है, जिसका असर ये दिखता है कि यहाँ एक समावेशी बहस का अकादमिक माहौल बनता रहा है। इस माहौल में वंचित-शोषित तबके से जुड़े संदर्भ ग्रन्थों को पाठ्यक्रम से निकाल देना देश के बहुसंख्यक वंचित-शोषित समाज के खिलाफ होने का अकादमिक संदेश देता है।  किसी भी विश्वविद्यालय में एक स्वस्थ्य अकादमिक बहस के लिए ज़रूरी है कि पाठ्यक्रमों में सभी तरह के विचारों को शामिल किया जाए। सत्ता विरोधी पाए जाने पर उन विचारों को पाठ्यक्रम से बाहर करना कहीं से भी उचित नहीं है

आंदोलनकारियों ने चेतावनी दी है कि अगर विश्वविद्यालय इन सिफ़ारिशों को रद्द करने का निर्णय नहीं लेता है तो कैंपस में एक बड़ा आंदोलन होगा।

 

प्रदर्शन के बाद कुलपति के नाम एक ज्ञापन भी सौंपा गया जो नीचे दिया जा रहा है-

 

विषय: दिल्ली विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग के पाठ्यक्रम से काँचा इलैया की किताबों और ‘दलित’ शब्द के विरोध में लिए गए निर्णय के विरोध में

मान्यवर,

दिल्ली विश्वविद्यालय देश का प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय है। इस विश्वविद्यालय की तमाम अकादमिक गतिविधियां पूरे मुल्क के पठन-पाठन के लिए एक नज़ीर जैसी रही है। यहाँ के पाठ्यक्रम को देखकर तमाम विश्वविद्यालय प्रभावित होकर पाठ्यक्रम बनाते हैं। समाज के बहुसंख्यक वंचित दलित, पिछड़े, आदिवासी, अल्पसंख्यक समुदाय से जुड़ी अकादमिक बहसों को दिल्ली विश्वविद्यालय ने हमेशा अपने पाठ्यक्रम में जगह दी है, जिसका असर ये दिखता है कि यहाँ एक समावेशी बहस का अकादमिक माहौल बनता रहा है। इस माहौल में वंचित-शोषित तबके से जुड़े संदर्भ ग्रन्थों को पाठ्यक्रम से निकाल देना देश के बहुसंख्यक वंचित-शोषित समाज के खिलाफ होने का अकादमिक संदेश देता है। किसी भी विश्वविद्यालय में एक स्वस्थ्य अकादमिक बहस के लिए ज़रूरी है कि हम पाठ्यक्रमों में सभी तरह के विचारों को शामिल करें, न कि सत्ता विरोधी पाए जाने पर उन विचारों को पाठ्यक्रम से बाहर करना कहीं से भी उचित है।

काँचा आइलैय्या की तीनों किताबों और नंदिनी सुंदर की किताब को पाठ्यक्रम से हटाना बेहद असंवैधानिक व सामाजिक न्याय की विरोधी मानसिकता का परिचायक है। साथ ही ‘दलित’ शब्द को संविधान में न होने के बहाने अकादमिक प्रयोग से हटाना इसी बीमार व अन्यायपूर्ण मानसिकता का परिचायक है। इसके लिए पूरा विश्वविद्यालय समुदाय आपसे अपनी कठोर आपत्ति दर्ज करता है। आपसे अनुरोध है कि उक्त सन्दर्भ में ज़रूरी पहल करते हुए कांचा इलैया की तीनों पुस्तकों के साथ नंदिनी सुंदर की किताब की पाठ्यक्रम में पूर्ववत यथास्थिति पुनः बहाल की जाए। ऐसा करना विश्वविद्यालय के हित में है। ऐसा न होने से एक बहुसंख्यक अकादमिक तबके में निराशा व आक्रोश पनपेगा। आपकी यह ज़िम्मेदारी है कि ऐसा न होने दें।

आभार !

फ़ाइट फॉर सोशल जस्टिस इन डीयू

डॉ. लक्ष्मण यादव 9891969020

डॉ. सुरेन्द्र सिंह 9312729540

मिथिलेश कुमार 8587064657

सुचित कुमार 7065523931



 


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