बिग डेटा के विशेषज्ञ वैज्ञानिक और दलित विषय पर देश के अग्रणी विचारकों में से एक प्रो. आनंद तेलतुम्बडे ने अपने चाहने और जानने वालों के नाम एक अपील जारी की है। प्रो. तेलतुम्बडे उन बुद्धिजीवियों में शामिल हैं जिन्हें पुणे पुलिस ने पिछले साल हुई भीमा कोरेगांव हिंसा के मामले में नामजद किया था। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने महीने भर का वक्त इन बुद्धिजीवियों को जमानत लेने के लिए दिया था। सोमवार 14 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट ने आनंद तेलतुम्बडे के खिलाफ पुणे पुलिस द्वारा की गई एफआइआर को रद्द करने संबंधी याचिका खारिज कर दी, जिसके बाद उन्होंने यह अपील जारी की है।
प्रो. तेलतुम्बडे ने लिखा है:
’’अब तक मुझे भरोसा था कि पुलिस ने जो भी आरोप लगाए हैं उन्हें अदालत के सामने फर्जी साबित किया जा सकेगा इसलिए मैंने आप सब को परेशान नहीं किया था। अब हालांकि मेरी उम्मीदें पूरी तरह बिखर गई हैं क्योंकि सुप्रीम कोर्ट से मेरी याचिका खारिज होने के बाद मेरे पास पुणे की सत्र अदालत से ही ज़मानत लेने का रास्ता बचा है। अब समय आ गया है कि मेरी आसन्न गिरफ्तारी से मुझे बचाने के लिए विभिन्न तबके के लोग मिलकर एक अभियान छेड़ें।‘’
उन्होंने लिखा है:
‘’मेरे लिए गिरफ्तारी का मतलब केवल जेल की जिंदगी की कठिनाइयां नहीं हैं। यह मुझे मेरे लैपटॉप से दूर रखने का मामला है जो मेरी देह का एक अभिन्न अंग हो चुका है। यह मुझे मेरी लाइब्रेरी से दूर रखने का मामला है जो मेरी जिंदगी का हिस्सा है, जहां आधी लिखी किताबें रखी जिसे देने का वादा प्रकाशकों से है, मेरे वे छात्र हैं जिन्होंने मेरी पेशेवर प्रतिष्ठा के नाम पर अपना भविष्य दांव पर लगाया है, मेरा संस्थान है जिसने मेरे नाम पर इतने संसाधन खर्च किए हैं और हाल ही में जिसने मुझे बोर्ड ऑफ गवर्नर का हिस्सा बनाया, और मेरे तमाम दोस्त व मेरा परिवार भी एक मसला है- मेरी पत्नी, जो बाबासाहब आंबेडकर की पौत्री हैं और जिन्होंने कभी भी इस नियति से समझौता नहीं किया और मेरी बेटियां, जो बिना यह जाने कि मेरे साथ बीते अगस्त से क्या हो रहा है, पहले से ही परेशान हैं।‘’
प्रो. तेलतुम्बडे ने अपील में इस बात का जिक्र किया है कि वे एक गरीब परिवार से आते हैं, फिर भी उन्होंने देश के सर्वश्रेष्ठ संस्थानों को उत्तीर्ण किया, आइआइएम अमदाबाद से पढ़ाई की और वे चाहते तो बड़ी आसानी से ऐय्याशी भरा जीवन बिता सकते थे यदि उन्होंने अपने इर्द-गिर्द की सामाजिक असमताओं को नजरअंदाज करने का फैसला ले लिया होता।
इस लंबे पत्र में वे बताते हैं कि समाज के सरोकारों को जिंदा रखने के लिए वे किन संगठनों से जुड़े और क्या काम किया। वे लिखते हैं कि उन्हें दुस्वप्न में भी इस बात की आशंका नहीं थी कि इस देश की राजसत्ता उनके खिलाफ खड़ी हो जाएगी और उन्हें अपराधी करार देगी, जिसके लिए उन्होंने अपने पेशेवर जीवन में इतना सारा योगदान दिया है।
पत्र में उन्होंने विस्तार से उस साजिश का जिक्र किया है जिसके तहत उन्हें भीमा कोरेगांव का आरोपी बनाया गया है। अंत में वे लिखते हैं कि उनकी नादान उम्मीदें अब बिखर चुकी हैं और उनके ऊपर गिरफ्तारी का खतरा मंडरा रहा है। वे लिखते हैं:
‘’मेरे नौ सह-आरोपी पहले से ही जेल में हैं। मेरी तरह उन्हें आपसे सहयोग की अपील करने का मौका नहीं मिला। आप मेरे साथ खड़े होंगे तो न सिर्फ मुझे और मेरे परिवार को इस अन्याय से लड़ने में ताकत मिलेगी बल्कि इस देश के फासीवादी शासकों को यह संदेश भी जाएगा कि देश में ऐसे भी लोग हैं जो उन्हें ना कह सकते हैं।‘’