राष्ट्र तब बनता है जब वहाँ रहने वाले एक दूसरे के सुख-दु:ख साझा करें- डॉ.आंबेडकर
आपने ये तो ज़रूर पढ़ा, देखा और सुना होगा कि योगी की पुलिस ने नोएडा के उस पार्क में पानी भरवा दिया जहाँ जुमे की नमाज़ होती है, लेकिन क्या ये जाना कि मज़दूरों को नमाज़ पढ़वाने के लिए तमाम हिंदू फैक्ट्री मालिकों ने अपने कारखाने की छतें साफ़ करवाईं?
जैसे तमाम हिंदू मंगलवार को हनुमान मंदिर या शनिवार को शनिदेवता के मंदिर जाते हैं, वैसे ही जुमे यानी शुक्रवार को दोपहर की नमाज़ वे भी पढ़ना चाहते हैं जो यूँ पाँचों वक्त के नमाज़ी नहीं हैं। ज़ाहिर है, ज़्यादा लोग एक साथ नमाज़ पढ़ते हैं तो जगह भी ज़्यादा चाहिए। कई बार मस्जिद पास नहीं होती या छोटी होती है तो किसी खाली मैदान में नमाज़ पढ़ ली जाती है।
नोएडा की स्थापना एक औद्योगिक नगरी के रूप में हुई थी और तमाम रिहायशी इलाकों के आबाद होने के बावजूद बड़ी तादाद में छोटी-छोटी फैक्ट्रियाँ यहाँ मौैजूद हैं। फैक्ट्रियाँ हैं तो मज़दूर भी हैं और ऐसे अच्छे दिन तो किसी धर्म के आ नहीं सकते कि उसे मानने वालों को मजदूरी न करनी पड़े। इस मामले में अल्लाह और ईश्वर एक समान हैं। इसे मानो या उसे, ताज़िंदिगी रोटी-रोज़ी की फ़िक्र करनी ही पड़ती है। तो नोएडा में बड़ी तादाद में मुसलमान भी हैं जैसे हिंदू मज़दूर हैं। जुमे के दिन वे सेक्टर 58 के पार्क में नमाज़ पढ़ते थे और यूपी में योगीराज आने तक किसी को ऐतराज़ भी नहीं हुआ।
लेकिन अब यह मुद्दा है। कहा जाना लगा कि सरकारी पार्क में नमाज़ होना गैरकानूनी है। रोक लगनी चाहिए। तो पुलिस ने रोक लगा दी। रोक ही नहीं लगा दी, जुमे के रोज़ पानी भी भर दिया। दिलचस्प बात यह है कि नमाज़ का कुल मसला एक घंटे का भी नहीं होता, लेकिन पानी भरने से बड़ी तादाद में आम लोग सुबह की कसरत से लेकर शाम की सैर तक से वंचित हो गए। लेकिन प्रशासन तो प्रशासन है, वह भी योगी प्रशासन।
बहरहाल, जुमे की नमाज़ हुई। पास की एक दरगाह में लोगों ने नमाज़ पढ़ी। लेकिन वहीं नहीं पढ़ी। तमाम मज़दूरों ने अपनी फैक्ट्री में ही नमाज़ पढ़ी। गैर-मुस्लिम फैक्ट्री मालिकों ने छतें साफ़ करवाईं। उन्होंने यह भी कहा कि जल्दी ही इमाम की भी व्यवस्था कर देंगे। लेकिन यह ख़बर कहीं कोने अंतरे में ही छपी। अख़बारों ने सिंगल नहीं आधा कॉलम में चार-छह लाइन में यह ख़बर निपटा दी जबकि इसी खबर में हिंदुस्तान बसा था। वह हिंदुस्तान, जिसमें हिंदू बच्चे मुहर्रम में ताज़िए के नीचे से निकलते हैं और उनकी माएँ पीर-फक़ीरों की मज़ारों पर दुआ माँगने जाती हैं। जहाँ ईद की सिवइयाँ खाने अपने मुस्लिम दोस्त के घर जाने के नाम पर सुबह का नाश्ता गोल कर दिया जाता है कि पेट भरा रहेगा तो कम खा पाएँगे। जहाँ मुसलमान होली की गुझिया और दीवाली की लड़ियाँ अपनी ख़ुशी का हिस्सा समझते रहे हैं। बड़े मंगल के दिन प्रसाद बँटवाते हैं या काँवड़ियों के आराम के लिए टेंट लगवाते रहे हैं।
तो नोएडा के फैक्ट्री मालिकों ने इसी हिंदुस्तान का झंडा उठाया है। यह चार लाइन की ख़बर समाज के अंदर चुपचाप बहने वाली उसी प्रेम की धारा की शिनाख़्त करती है जिसे हिंदुत्व की लाठी से बाँटने की बेतरह कोशिश की जा रही है।
वैसे, दिलचस्प बात यह है कि सेक्टर 58 के पार्क में जुमे की नमाज़ की इजाज़त 23 सितंबर 2015 को इसी प्रशासन ने दी थी। यही नहीं, नमाज़ियों की मदद के लिए एक माली भी तैनात किया गया था जिससे अब पार्क में पानी भरवाया जा रहा है। तब प्रशासन शायद उसी हिंदुस्तानी तहज़ीब का क़ायल था जिसमें किसी की नमाज़ या पूजा में विघ्न डालना पाप माना जाता है। नीचे इजाज़त की रसीद है, खुद देख लीजिए।
वैसे, नोएडा के फैक्ट्री मालिकों के रुख की मीडिया में चाहे चर्चा न हो, इसका संदेश बहुत दूर तक गया है। सामाजिक कार्यकर्ता नदीम ख़ान ने फ़ेसबुक पर जो लिखा है, पढ़िए-
बर्बरीक