निर्जीव रेगिस्तान को यही रंग-बिरंगे लोग जीवंत बनाते हैं. किंतु इनकी जिंदगी अब बदरंग हो गई है. ये वही लोग हैं जिन्होंने मूमल ओर महेंद्र की कहानी को हमारी स्मृतियों में जिंदा रखा है. रेगिस्तान में काल अर्थात मौत (सांप) को वश में किया इसलिए कालबेलिया कहलाये.
दुनिया के सबसे गर्म विशाल रेगिस्तान ‘थार’ में अभी सुबह के 8 ही बजे हैं. सूरज ने अपनी तपिश दिखानी शुरू कर दी है. चारों ओर रेत के ऊंचे- ऊंचे टीले पसरे हैं. धूल भरी आंधी शुरू हो चुकी है. इस चिलचिलाती गर्मी में दूर-दूर तक कोई पेड़- पौधा दिखाई नहीं पड़ता. कहीं-कहीं पर आंकड़े, कैर और कुछ सुखी झाड़ियां जरूर मौजूद हैं. रेत के इस समंदर में रसैल वाइपर, कोबरा, विषखोपड़ा और बिच्छु जैसे असंख्य खतरनाक जहरीले जीव छुपे हैं जो पल भर की देरी किये बगैर अपना काम कर डालते हैं. यदि समय रहते इलाज नहीं मिला तो व्यक्ति की मौत होने में समय नहीं लगता.
जैसलमेर के सम में रेत के धोरों के दूर छोर पर काफी संख्या में तम्बू लगे हुए हैं. तम्बूओं के बाहर सन्नटा पसरा हुआ है. रुक-रुककर भेड़-बकरियों के मिमियाने की आवाजें सुनाई पड़ जाती हैं. ऐसे ही एक तम्बू में एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति बैठा है. उम्र करीब 70-75 वर्ष होगी. ढीली-ढाली सी धोती, सर पर साफा, गले में माला, हाथ में कड़ा, कान में मुरकी पहने अपनी बीन को बुहार रहा है. तम्बू में दो-चार सामान बिखरे पड़े हैं.
उस बूढ़े व्यक्ति के चेहरे पर अजीब सा तेज था. न जाने वो किस धुन में खोया हुआ था. उसने हमें वहां देखकर भी अनदेखा कर दिया. वो कभी अपनी बीन को हवा में लहराता तो कभी उसमे फूंक मारता और जोर से ऊपर की ओर उछलता. बच्चे अचम्भे से आंखे फाड़-फाड़कर उसे देखे जा रहे थे. शायाद वो उन्हें लहरा बजाना सिखा रहा था.
मिश्रानाथ अब बूढ़े हो चले हैं किन्तु उनके अनुभव का फायदा पूरा टोला उठाता है. मिश्रानाथ के परिवार में कुल मिलाकर 84 लोग हैं जो अपने पुरखों की परम्परा को आगे बढा रहे हैं. उनके बगल में हुक्मानाथ और गुलाबनाथ कालबेलिया बैठे हैं. मिश्रानाथ से जैसे ही उनके परम्परा की बात करते हैं, उनमे जोश आ जाता है. वो जवान बन जाते हैं अचानक उछलकर एक पोटली उठाते हैं और हमारे सामने उसको रख देते है. उसमें विभिन्न प्रकार की जड़ी बूटियां थी. उनके दिलचस्प दावे थे.
मिश्रानाथ को सांप के जहर का बहुत सूक्ष्म ज्ञान हैं. वो पढ़े लिखे नहीं हैं लेकिन उन्होंने अपनी भाषा में सांप के जहर की तीन कोटियां बनाई हैं. नुगरा सांप, फुगरा सांप और सुगरा सांप. उसी के अनुसार उसकी जड़ी बूटियां हैं. उसके बाद वो बिना देरी किये बीन से धुन को तान देते हैं. बीन का लहरा सुनकर टोलें के सभी लोग वहां एकत्रित हो गए. शिकारी कुत्ते भी अचम्भे से हमें देख रहे थे. टोले के मुखिया मूकनाथ हैं. मूकनाथ ‘मिश्रानाथ’ के दामाद हैं. टोले की पूरी जबाबदारी मूकनाथ के कंधों पर है. उनके टोले में 20 बच्चें हैं, 35 भेड़-बकरी हैं और तीन खास तरह के शिकारी कुत्ते हैं.
मूकनाथ बहुत चिंतित हैं. तापमान बढ़ता जा रहा है. रहने को ये फटे पुराने तम्बू हैं. पानी भी नहीं है. चारा का तो दूर-दूर तक नामों निशान नहीं है. थोड़ा सा आटा, सांगरी की फलियां, सुखी कचरी, मोठ के बीज और सूखा हुआ कोडू है. मूकनाथ बताते हैं कि उनका टोला हर वर्ष अक्टूबर महीने में सम आ जाता है और मार्च में यहां से कूच कर जाता है. ऐसा पिछले 10- 15 वर्ष से हो रहा है. बाकी समय वे लोग तो साल भर राजस्थान, हरियाणा, मध्य-प्रदेश, उत्तर प्रदेश और गुजरात तक घुमते रहते हैं
अक्टूबर से फरवरी तक सम पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र होता है. इस समय ये लोग नाच गान करके और आंखों का सुरमा, जड़ी बूटी बेचकर अपना काम चलाते हैं. पहले सांप भी रहता था किन्तु वो सरकार ने छीन लिया. मूकनाथ बताते है कि इस लॉक डाउन में उन्हें तपती रेत में छोड़ दिया गया है. “यहां हम कैसे जिंदा रहें? न कोई पक्का मकान है और न ही कोई पेड़. यहां से करीब 8 किलोमीटर दूर पशुओं के पानी पीने की खेली/होदी बनी हुई है. उसी का पानी पीते हैं, जो बहुत ही दूषित है. किसी भले इंसान ने हमें वो पानी पीते हुए देखा तो हमारे लिए एक पानी का टैंकर मंगवाया. लेकिन इतने पानी को किसमे खाली करें? हमारे पास तो यही मिट्टी के मटके और दो-चार प्लास्टिक के डब्बे हैं. उसी व्यक्ति ने हमें ये प्लास्टिक के ड्राम दिए. वो भला आदमी था. हमने उसको नुगरा सांप (कोबरा) का सुरमा दिया है. इस धूप में कैसे रहे. हमें यहां से जाने नहीं दे रहे. सुबह शाम पुलिस आती है. हमे देखने कि मरे हैं या जिंदा हैं. हमें आटा-तेल जरूर देकर गये हैं.”
वे बेहद दुखी होकर कहते हैं, “हमने दरोगा से पूछा कि हमने क्या पाप किया है? हमें किसी छाया बाली जगह पर रुका दो. दरोगा कहता है कि ये तुम्हारे कर्मों का लेखा-जोखा है. हमने ऐसा क्या कर्म किया है? क्या किसी की चोरी की? क्या किसी से लड़ाई-झगड़ा किया? हम तो मेहनत-मजदूरी करके कमाकर खाते हैं. मेरी पत्नी कमली और बेटियां कालबेलिया नाच-गाना करती हैं. वे कितना सुंदर गले का हार बनाती हैं. इसको बनाने में महीनों लग जाते हैं. हम ढोलक बजाते हैं. आंखों का सुरमा बनते हैं. बीन बजाते हैं. ये समय हमारा जड़ी-बुटियां एकत्रित करने का है. हम बाद में फिर क्या करेंगे?” …”ये समय जड़ी बूटियां एकत्रित करने का है.पलाश कचनार और कदंब के फूल एकत्रित करके, उनको सुखाकर, फिर उनको पीसकर उनका चूर्ण बनाने का. ये जड़ी बूटियां साल भर काम आयेंगी, लेकिन हमें यहां से बाहर नहीं जाने दे रहे हैं।”
मूकनाथ ने बताया कि जड़ी-बूटी लाने के दो ही समय होते हैं. एक होता है बारिश के मौसम जब वे जंगल की गहराइयों से, हिमालय की गोद की तराई से जड़ी बूटियां बिन कर लाते हैं. दूसरा समय यही दो महीने होता है, लेकिन वन विभाग ने रोक लगा दी है. जंगल में जाने नहीं देते. बड़ी मुश्किल से कुछ जड़ी बूटियां इकट्ठी करके लाए हैं. कहते हैं कि उनके पास पास घोड़ा-गाड़ी तो हैं नहीं, यह जड़ी बूटी ही है. यह दो महीने तो गुजर गए. अब साल भर क्या करेंगे?
मूकनाथ आगे बताते हैं कि “पहले हमसे सांप छीने. फिर जंगल में जाने पर रोक लगाई. अब हमें यहां गर्मी में मार रहे हैं. इससे अच्छा होता कि हमें आप वैसे ही मार देते. हमें पुलिस बोल रही है कि तुम कोरोना फ़ैलाओगे. हम सरकार से क्या मांग रहे हैं? केवल इतना कि हमें किसी ऐसे स्थान पर जाने दो जहां हम इस आग से बच सकें. हमारे छोटे छोटे बच्चे हैं. ये भेड़ बकरियां हैं. हम सब अनपढ़ हैं. यदि पढ़े लिखे होते तो हमें भी दूसरे देशों से हवाई जहाज से लाया जाता फिर बड़ी बड़ी हवेलियों में रुकवाते, वहां ठंडा करने कि मशीने भी चलतीं.”
मूकनाथ की पत्नी हमें टुकुर टुकुर देख रहीं थीं. आंखों में सुरमा लगाये. उनकी आंखें किसी को सम्मोहित करने के लिए काफी थीं. घाघरा-चोली पहने, सर पर बोर, बिछिया पहने कमली ने हमारे मौन को तोड़ा. कमली ने कहा “हमारी किस्मत में ये सब कहां. हम लोग ऐसे ही पैदा हुए हैं और ऐसे ही मर जायेंगे. हमें कोरोना मारे न मारे इस आग में हम जरूर मर जायेंगे. जब जड़ी लायेंगे नहीं तो साल भर क्या करेंगे?”
ये इनके कर्म का लेखा जोखा है या सरकार के? यदि समय रहते हवाई अड्डों की व्यवस्था दुरुस्त रहती तो क्या ये संकट आता?
इस मामले के संदर्भ में जब बी.डी.ओ, सम से बात की गई तो अधिकारियों की लापरवाह रवैये का अंदाज़ा हुआ. बीडीओ का कहना है कि उनके तहत 52 पंचायतें हैं. इतना बड़ा एरिया है. क्या-क्या संभालें. मतलब ये लोग सरकारों के लिए कोई मायने ही नहीं रखते.
जब कलेक्टर से बात करनी चाही तो उन्होंने फ़ोन नहीं उठाया.
लेखक बंजारों के जीवन पर शोध कर रहे हैं।