ज्योति बसु: कुर्सी के लिए पार्टी तोड़ने के दौर में पार्टी के लिए PM पद छोड़ने वाला नेता

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ज्योति बसु के जन्मदिन 8 जुलाई पर विशेष

 

मसऊद अख़्तर

 

8 जुलाई सन 1914 में जन्मे ज्योति बाबू भारतीय वामपंथ के ओजस्वी व चमत्कारिक व्यक्तित्व के रहे. वे पश्चिम बंगाल के लगातार 23 बरस तक मुख्यमंत्री रहे और जब स्वास्थ्य की वजह से मुख्यमंत्री पद को छोड़ा तब भी उनके सरकार के खिलाफ जनता में कोई रोष न था. उनकी पार्टी सीपीएम ने तय किया था कि वह केंद्र की सरकार में शामिल नहीं होगी, इसलिए 1996 में उन्होंने प्रधानमंत्री पद ग्रहण करने से इंकार कर दिया था। ऐसे दौर में जब लोग कुर्सी के लिए सिद्धांत और पार्टी छोड़ने में क्षण भर भी नहीं सोचते, ज्योति बसु का यह त्याग आश्चर्यजनक लगता है। पार्टी अनुशासन और सिद्धांत उनके लिए सर्वोपरि था।

जीवन परिचय

डॉक्टर निशिकांत बसु का पैतृक निवास तत्कालीन पूर्वी बंगाल और वर्तमान बांग्लादेश के ढाका के वार्दी गाँव में था लेकिन वे कलकत्ता में मेडिकल प्रैक्टिस करते थे जहाँ 8 जुलाई 1914 को उनके तीसरे पुत्र के रूप में ज्योति बसु का जन्म हुआ.  माता श्रीमती हेमलता बसु गृहणी थीं. उच्च मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मे ज्योति बसु का पालन पोषण एक संयुक्त परिवार में हुआ. 6 वर्ष की अवस्था में ज्योति बाबू को कलकत्ता के धर्मतल्ला स्थित लोरेटो स्कूल में दाखिल कराया गया. इस वक़्त तक ज्योति बाबू का नाम ज्योतिरेंद्र नाथ बसु था. पिता से जब दाखिला के वक़्त स्कूल के प्रधानाचार्य ने नाम के लंबा होने की बात कही तो निशिकांत बसु ने नाम छोटा कर ज्योति बसु कर दिया. उन्होने वहाँ चार वर्ष तक अध्ययन किया. वर्ष 1925 में उन्हें सैंट जेवियर स्कूल में दाखिला दिलाया गया. यहाँ से उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की. इसके बाद उन्होंने हिन्दू कॉलेज, जिसका बाद में नाम बदलकर प्रेसीडेंसी कॉलेज हो गया था, में इंग्लिश ऑनर्स में दाखिला लिया. 1935 में स्नातक करने के बाद आगे बैरिस्टरी की पढाई करने इंग्लैंड चले गए. वहाँ से बैरिस्टरी कर 1940 में वापस कलकत्ता लौट आये. उनके लौटने पर परिवार और रिश्तेदारों में ख़ुशी हुई मगर जब उन्हें पता चला कि ज्योति बाबू ने भावी जीवन की योजना कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ना बनायी है तो वे स्तब्ध रह गए. सबने उन्हें ऐसा करने से मना किया लेकिन ज्योति बाबू अपने निश्चय पर अटल थे.

20 जनवरी 1940 को बसंती घोष के साथ ज्योति बसु का विवाह हुआ लेकिन दुर्भाग्यवश बहुत थोड़े समय बाद ही 11 मई 1942 को श्रीमती बसंती बसु का आकस्मिक निधन हो गया. इस बात का सबसे ज्यादा सदमा ज्योति बसु की मां को लगा और कुछ समय पश्चात उनका भी निधन हो गया. 5 दिसम्बर 1948 को ज्योति बाबू एक बार पुनः कमल बसु जी के साथ परिणय सूत्र में बंधे. 31 अगस्त 1951 को इन दोनों के यहाँ एक पुत्री ने जन्म लिया. दुर्भाग्यवश डायरिया व डिहाइड्रेशन के चलते कुछ समय पश्चात वह बच्ची चल बसी. बाद में सन 1952 में उनके यहाँ पुत्र रूप में चन्दन का जन्म हुआ.

लन्दन में ज्योति बसु का विद्यार्थी जीवन बहुत ही उतार चढ़ाव लिए था. वहाँ वह ‘लन्दन स्कूल ऑफ़ इकोनोमिक्स’ में प्रख्यात राजनीतिक विचारक हेरॉल्ड लॉस्की के व्याख्यान सुनने जाया करते थे. 1936 से 40 के दौरान ज्योति बाबू ने इंग्लैंड में भारतीय विद्यार्थियों को संगठित करने का प्रयास भी किया. वर्ष 1936, ज्योति बाबू के जीवन में एक निर्णायक वर्ष था. वर्ष 1937 में वह ‘इंडिया लीग’ व ‘फेडरेशन ऑफ़ इंडियन स्टूडेंट्स ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन’ का हिस्सा बने. आगे चलकर वे लन्दन मजलिस का भी हिस्सा बने. इस मजलिस का एक मुख्य कार्य भारत की स्वतंत्रता के लिए विद्यार्थियों को लामबंद करना था. इसी क्रम में वर्ष 1938 में पंडित जवाहर लाल नेहरू जब लन्दन गए, तो भारतीय विद्यार्थियों के साथ एक बैठक आयोजित करने व पंडित नेहरू का भव्य स्वागत करने की जिम्मेदारी ज्योति बाबू को सौंपी गई.

जवाहर लाल नेहरू के स्वागत समारोहों के दायित्वों का संचालन कुशलतापूर्वक करने के साथ-साथ उन्होंने भारतीय नेताओं की लेबर पार्टी के नेताओं व समाजवादी नेताओं के साथ बैठक आयोजित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की. उन्होंने अपने भारतीय मित्रों की मदद ग्रेट ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी के साथ भी संपर्क कायम किया. उन्होंने भारत लौटने पर कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता लेने की इच्छा जाहिर की लेकिन उनके तत्कालीन शुभचिंतकों ने जिनमें हैरी पोलिट प्रमुख थे, ने इस आधार पर हतोत्साहित किया कि कम्युनिस्ट पार्टी को अवैध घोषित कर दिया गया है. अतः उन्हें भारत लौटने के बाद इस कारण समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है.  इसके बाद भी ज्योति बाबू रजनी पामदत्त सरीखे व्यक्तियों की सभाओं में जाया करते थे. अपने इंग्लैंड प्रवास के दौरान ज्योति बाबू ने ग्रेट ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी की पहल पर पूर्वी लन्दन की मजदूर बस्तियों में अशिक्षित भारतीय नाविकों को अंग्रेजी पढ़ाने व सिखाने के उद्देश्य से एक समूह का गठन व उसका संचालन किया. यह ज्योति बाबू का गरीब व अशिक्षित तथा मजदूर वर्ग के बीच कार्य करने का पहला अनुभव था.

1940 में ज्योति बसु लंदन से लौटने के बाद कलकत्ता हाईकोर्ट में बतौर बैरिस्टर काम करने लगे। लेकिन मुख्य काम तो कम्युनिस्ट पार्टी का था जो अवैध घोषित कर दी गयी थी। ज्योति बाबू को भूमिगत नेताओं के लिए शरण की व्यवस्था करने व बैठकें आयोजित करने की जिम्मेदारी सौंपी गई. ज्योति बाबू वास्तव में भूमिगत नेताओं व बाहरी नेताओं के बीच एक कड़ी का काम करते थे. उन्होंने बड़ी ही समझदारी के साथ इस जिम्मेदारी को अंजाम दिया. शायद यह इसी का परिणाम था कि वर्ष 1943 में इंडियन एसोसिएशन हाल में आयोजित सीपीआई के प्रथम वैध सत्र में उन्हें प्रांतीय समिति संगठनकर्ता (प्रोविंशियल कमेटी ऑर्गनाइजर) चुना गया. पार्टी के चौथे राज्य स्तरीय सम्मलेन में उन्हें पार्टी की प्रांतीय समिति के लिए चुना गया.

वर्ष 1946 में हुए साम्प्रदायिक दंगों के दौरान जब गांधी जी बेलिया घाट आए, उस समय ज्योति बसु भूपेश गुप्ता के साथ उनसे मिले और उन्होंने एक सर्वदलीय शान्ति समिति बनाने और उसकी ओर से एक मार्च निकालने की राय ली. वर्ष 1951 में सीपीआई से प्रतिबन्ध हटने के बाद ज्योति बाबू बांग्ला भाषा में प्रकाशित होने वाले सीपीआई के मुखपत्र “स्वाधीनता” के सम्पादकीय मंडल के अध्यक्ष बने. वर्ष 1953 में वह निर्विरोध सीपीआई के राज्य समिति के सचिव चुने गए. इसके बाद वर्ष 1954 में मदुरै कांग्रेस में वह केन्द्रीय समिति के लिए चुन लिए गए. इसके बाद पालघाट कांग्रेस में वे केन्द्रीय सचिवालय के लिए चुने गए. वर्ष 1958 में अमृतसर कांग्रेस में वह राष्ट्रीय परिषद के लिए चुने गए. 1964 में उन्हें 31 अन्य सदस्यों के साथ राष्ट्रीय परिषद से निलंबित कर दिया गया. सीपीआई के विभाजन के बाद ज्योति बाबू सीपीआई (एम) में आ गए तथा इसकी केन्द्रीय समिति व पोलित ब्यूरो के लिए चुने गए. तब से वह 2008 तक पोलित ब्यूरो के सदस्य रहे.


ट्रेड यूनियन से जुड़ाव

वर्ष 1944 में में ज्योति बाबू को बंगाल-असम रेलवे के कर्मकारों को संगठित करने की जिम्मेदारी दी गयी और यहीं से ज्योति बाबू ट्रेड यूनियन से जुड़े. ज्योति बाबु बंगाल-असम रेलवे यूनियन के सचिव भी रहे. इसके साथ ही उन्होंने पोर्ट व डॉक वर्कर्स के बीच भी काम किया. उनके कार्य कौशल व ट्रेड यूनियन के क्षेत्र में उनके समर्पण व दायित्व निर्वहन की क्षमता के कारण सन 1948 में लिलूहा में आयोजित आल इंडिया रेलवे मेंस फेडरेशन के सम्मलेन में वह इसके उपाध्यक्ष बनाए गए. 21 मार्च 1953 को कलकत्ता में आयोजित बी.पी.टी.यू.सी. के सम्मलेन में उन्होंने सचिव की हैसियत से रिपोर्ट प्रस्तुत की. वर्ष 1970 में सीटू (CITU) का गठन होने पर वह इससे जुड़ गए और पश्चिम बंगाल राज्य समिति में इसके उपाध्यक्ष बनाए गए. इसके साथ ही वह सीटू की अखिल भारतीय समिति के उपाध्यक्षों में से एक रहे. 1970 में आयोजित सीटू के संस्थापना सम्मलेन में ज्योति बाबू स्वागत समिति के अध्यक्ष थे.

मुख्यमंत्री ज्योति बसु

श्रमिक आन्दोलन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने के साथ-साथ ज्योति बाबू ने अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता और लोकप्रियता के कारण देश में सर्वाधिक लम्बे समय तक देश के चुनिंदा बड़े राज्यों में से एक राज्य पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री के रूप में बागडोर संभालने का कीर्तिमान स्थापित किया. अपनी राजनैतिक जीवन में चुनावी राजनीति की शुरुआत वर्ष 1946 में रेलवे (कांस्टीट्यूएंसी) की तरफ से बंगाल विधायिका के लिए 32 वर्ष की उम्र में चुने जाने के साथ की. उसके बाद वर्ष 1972-77 के अंतराल के सिवाय औपचारिक रूप से राजनीति से विदा लेने तक वह विधायिका को सुशोभित करने के साथ-साथ वर्ष 1967 व 1969 में सरकार के महत्वपूर्ण विभागों सहित उपमुख्यमंत्री और 1977 से नवम्बर 2000 तक लगातार मुख्यमंत्री चुने जाते रहे. वर्ष 2000 में उन्होंने स्वेच्छा से राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय भूमिका से अवकाश ले लिया.

श्रमिक गतिविधियों व राजनीति से अत्यंत निकट से और लम्बे समय तक जुड़े रहने के साथ-साथ साहित्य व संस्कृति के क्षेत्र से भी वे जुड़े रहे हैं. ज्योति बाबू फ्रेंड्स ऑफ़ सोवियत यूनियन तथा एंटी फासिस्ट राइटर्स व आर्टिस्ट्स एसोसिएशन के सचिव भी रहे. मुख्यतः अंग्रेजी व बंगाली भाषा में बहुत से लेख व निबंध लिखने के साथ-साथ अपनी राजनैतिक आत्मकथा भी लिखी है. ज्योति बाबू के लिखे अनेक लेखों का संग्रह पुस्तक के रूप में प्रकाशित हो चुके हैं. ज्योति बाबू की दृढ मान्यता थी कि यह मनुष्य ही है जो इतिहास बनाता है और उनका यह विचार है कि कितने ही उतार चढ़ाव क्यों न आयें एक दिन ऐसा अवश्य आयेगा जब शोषण रहित समाज की स्थापना होगी.

बसु ने अपने कार्यकाल में पंचायती राज और भूमि सुधार को प्रभावी ढंग से लागू किया . बसु की पहल पर लागू किए गए भूमि सुधारों का ही परिणाम था कि पश्चिम बंगाल देश का ऐसा पहला राज्य बना जहां फसल कटकर पहले बंटाईदार के घर जाने लगी और बिचौलियों का खात्मा हुआ. इसके अलावा उनकी बड़ी उपलबद्धि पश्मिच बंगाल में सांप्रदायिक सद्भाव कायम रखना था। उनके रहते सांप्रदायिक राजनीति के लिए वहाँ कोई जगह नहीं बन पायी। ज्योति बाबू भारतीय राजनीति में ऐसे करिश्माई व्यक्तित्व थे जिन्हें दलगत भावना से ऊपर उठकर सभी दलों के नेताओं ने सम्मान दिया और यही कारण है कि जब 1996 में विपक्ष की गठबंधन सरकार बन रही थी तो सबकी पसंद ज्योति बाबू थे मगर इन्होने पार्टी के निर्णय का सम्मान करते हुए प्रधानमंत्री का पद ठुकरा दिया था.

अंतिम यात्रा

ज्योति बाबू न 17 जनवरी 2010 की सुबह रविवार को कोलकाता के एक अस्पताल में 95 वर्ष की अवस्था में अंतिम सांस लिया. उन्हें वहाँ 1 जनवरी को निमोनिया की शिकायत पर भारती किया गया था लेकिन उनके कई अंगों ने काम करना बंद कर दिया था और वे वेंटिलेटर पर रखे गए थे. उनकी अंत्येष्टि में पूरा बंगाल उमड़ पड़ा था, लेकिन यह यात्रा किसी श्मशान स्थल नहीं एक अस्पताल में समाप्त हुई। ज्योति बसु ने अपना शरीर वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए दान कर दिया था।


लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।