सबसे पहले, 11 अप्रैल को ओडिशा के प्रवासी कामगार, सड़क पर उतर आए थे। रात को हिंसक विरोध प्रदर्शन हुआ था। इन कामगारों की मांग भी वही थी – हमको हमारे घर भेजा जाए..इनमें से कई प्रवासी मजदूरों को न तो मार्च के महीने का वेतन मिला था और न ही 25 मार्च को लगाए गए लॉकडाउन के चलते प्रशासन की ओर से घर जाने की इजाज़त। पुलिस ने एपिडेमिक डिजीज एक्ट 1897 का उल्लंघन करने और दंगा करने आरोप में सूरत में 81 लोगों को गिरफ्तार किया था।
इसके बाद लॉकडाउन 2 के दौरान भी प्रवासी मजदूरों और पुलिस के बीच, 28 अप्रैल को झड़प हुई। 300 लोगों के ख़िलाफ़ पुलिस ने केस दर्ज किया, 5 प्रवासी कामगारों को हिरासत में लिया गया था।
तो क्या सूरत, टाइम बम बन के टिक-टिक कर रहा है?
गुजरात में सरकार ने शुरुआत में बिना गिनती भर के टेस्ट किए, ख़ुद ही अपनी पीठ थपथपा ली थी कि वहां कोरोना के केस काफी कम हैं और गुजरात के मॉडल में सब नियंत्रण में है। लेकिन समय बीतने के साथ, ये दावे अपने मॉडल के साथ ही भरभरा के ढह गए। एक वक़्त में सबसे कम केस होने का दावा कर रहे गुजरात में आज देश में महाराष्ट्र के बाद सबसे ज़्यादा कोरोना संक्रमण के मामले हैं। ख़बर लिखे जाने तक, गुजरात में 5,428 कोरोना संक्रमण के मामले थे, 290 लोग अपनी जान गंवा चुके थे और ये मामले – पूरे देश के कुल मामलों के 12.67 फीसदी थे। सूरत में 500 एक्टिव केस मिला कर कुल 686 मामले हैं, जिनमें 30 लोग अपनी जान भी गंवा चुके हैं। ऐसे में प्रवासी मज़दूर दो मोर्चों पर ख़ौफ़ के साये में जी रहे हैं।
पहला ख़ौफ़ ये कि सबसे तेज़ी से बढ़ते मामलों वाले राज्य में उनके लिए कोरोना संक्रमित होना, सबसे बड़ी मुश्किल हो सकती है। न तो वे प्रभावशाली नागरिक हैं, न ही उनके पास कोई ख़ास नागरिक सुरक्षा है। साथ ही फ़िज़िकल डिस्टेंसिंग के नियम, इन बस्तियों और छोटे घरों में कैसे निभाए जाएंगे? इसके अलावा जागरुकता का अभाव और फोन पर व्हॉट्सएप अफ़वाहों की प्रचुरता भी उनके लिए मुश्किल है। तिस पर आर्थिक अभाव इस ख़ौफ़ को और ख़ौफ़नाक बना देते हैं।
दूसरा ख़ौफ़ ये कि न केवल इनके पास काम बंद होने से मार्च का वेतन नहीं आया था, ये तय है कि इनमें से किसी के हाथ अप्रैल की भी कोई कमाई नहीं आने वाली। मई भर अगर लॉकडाउन जारी रहा, तो जून में भी इनके पास कोई पैसे नहीं होंगे। ऐसे में राशन, घर के किराए से लेकर ज़िंदगी चलाने के लिए कोई भी खर्च ये नहीं वहन कर सकते। ये जानते हैं कि जन-धन के ख़ाते में आने वाले 500 रुपए से इनका 2 हफ्ते का राशन भी मुश्किल से आ सकता है। ऐसे में आख़िर क्यों ये अपने गांव-घर से दूर सूरत में रहना चाहेंगे?
ऐसे में ज़ाहिर है कि इनका ख़ौफ़, इनके घर न लौट पाने और कोई आश्वासन न मिलने के गुस्से का मिश्रण एक ख़तरनाक़ सामाजिक-मनोवैज्ञानिक रसायन तैयार कर रहा है। सूरत के ये मज़दूर और इनका बार-बार सड़कों पर दिख रहा गुस्सा ही नहीं, देश भर के कामगारों की दुर्गति और हमारी उपेक्षा, एक ज़िंदा टाइम बम है, जो लगातार टिक-टिक कर रहा है और दरअसल इसकी घड़ी की सुईयां नहीं हैं – तो हमको नहीं पता है कि ये कब फटेगा। सरकार को समय रहते, इसको डिफ्यूज़ करना होगा, क्योंकि कोई भी समझदार और संवेदनशील सरकार कोरोना संकट के दौरान इस बम को फटने नहीं देना चाहेगी। लेकिन हां, इन विशेषणों को हमको याद रखना होगा – समझदार और संवेदनशील…