सीजेआई रंजन गोगोई के ख़िलाफ़ पूर्व महिला कर्मचारी द्वारा लगाए गए यौन उत्पीड़न के आरोपों के मामले में अपने विचार रखते हुए बीते वर्ष सुप्रीम कोर्ट से रिटायर हो चुके जस्टिस मदन बी लोकुर ने कहा कि समग्र तथ्यों पर विचार करने पर, यह प्रतीत होता है कि कर्मचारी के साथ कुछ अन्याय हुआ है. उन्होंने कहा कि इस मामले को आन्तरिक समिति ने जिस तरह से निपटाया गया है वह न्याय प्रक्रिया के खिलाफ़ है.
One-Sided Justice
Justice Madan B Lokur writes how Supreme Court denied justice to the Complainant in the CJI Sexual Harassment Casehttps://t.co/QOa5ylYuzI
— Live Law (@LiveLawIndia) May 22, 2019
“न्याय अकेले एक पक्ष के लिए नहीं हो सकता, दोनों के लिए होना चाहिए” रूजवेल्ट के इस कथन को कोट करते हुए इंडियन एक्सप्रेस में लिखे एक लेख में जस्टिस लोकुर ने कहा, ‘शिकायतकर्ता महिला को मामले की सुनवाई करने वाली इंटरनल कमेटी की रिपोर्ट निश्चित तौर पर मिलनी चाहिए ताकि शिकायतकर्ता महिला को उन सवालों का जवाब मिल सके, जो उसने और दूसरे लोगों ने उठाए हैं.’
एक पूर्व मामले का उदाहरण देते हुए शिकायतकर्ता को रिपोर्ट की कॉपी नहीं देने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सवाल उठाते हुए जस्टिस लोकुर ने लिखा, ‘सेक्रेटरी जनरल ने इंदिरा जयसिंह बनाम सुप्रीम कोर्ट मामले का हवाला देकर शिकायतकर्ता महिला को रिपोर्ट की कॉपी देने से इनकार कर दिया. यह फैसला बिल्कुल भी प्रासंगिक नहीं है.’
"On a consideration of the overall facts, it does appear that some injustice has been done to the staffer", opined former Supreme Court judge Justice Madan B Lokur..
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जस्टिस लोकुर ने लिखा, ‘बड़ी बात ये कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यह नहीं कहा है कि शिकायतकर्ता इस कथित आंतरिक समिति की रिपोर्ट पाने की हकदार नहीं है. आंतरिक समिति की प्रक्रिया कहती है कि रिपोर्ट की कॉपी संबद्ध जज को दी जाएगी. इसमें कहीं से भी शिकायतकर्ता को रिपोर्ट की कॉपी नहीं देने जैसी कोई रोक नहीं है. ऐसा आंतरिक समिति की प्रक्रिया में नहीं है और न ही सुप्रीम कोर्ट का फैसला ऐसी कोई रोक लगाता है. ऐसे में किस कानून के तहत शिकायतकर्ता को रिपोर्ट देने से मना किया गया?’
गौरतलब है कि इस फैसले के खिलाफ़ कई महिला संगठनों और वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट के बाहर प्रदर्शन किया था.
उन्होंने कहा, ‘ध्यान दीजिए, (इस मामले में) इंटरनल कमेटी को वह व्यक्ति गठित करता है, जिस पर महिला कर्मचारी से अवांछित शारीरिक संपर्क का आरोप लगता है और वही व्यक्ति आरोपों की जांच करने के लिए जज चुनता है. वहीं आतंरिक समिति को केवल अवांछित शारीरिक संपर्क के आरोपों की जांच का अधिकार दिया जाता है जिसे साबित मुश्किल होता है. समिति को दिए गए जांच के अधिकार में शिकायतकर्ता के साथ उत्पीड़न की जांच का अधिकार नहीं दिया जाता है.’
उन्होंने कहा, ‘मेरा मानना है कि अगर इन-हाउस प्रक्रिया लागू की जाती है तो संबंधित न्यायाधीश को उस रिपोर्ट को स्वीकार करने या अस्वीकार करने या उस कोई कार्रवाई नहीं करने का अधिकार होता है. किसी भी हालात में संबंधित जज को रिपोर्ट पर खुद से फैसला करना होगा, हालांकि लगता है कि ऐसा कोई फैसला नहीं हुआ और अगर हुआ भी तो उसे सार्वजनिक नहीं किया गया.’
जस्टिस लोकुर ने कहा, ’20 अप्रैल, 2019 की घटनाओं को देखने पर संस्थागत भेदभाव की बात तब साफ हो जाती है जब सीजेआई खुद को इस मामले की सुनवाई वाली पीठ का अध्यक्ष नामित कर लेते हैं.’
बता दें कि जनवरी, 2018 में तत्कालीन चीफ़ जस्टिस के खिलाफ़ केसों को सौंपने में होने वाली अनियमितता को लेकर सुप्रीम कोर्ट के जिन चार जजों ने ऐतिहासिक प्रेस कांफ्रेंस की थी उनमें जस्टिस लोकुर भी शामिल थे.