अभिषेक श्रीवास्तव
हर मौत एक सी नहीं होती। दो अलग-अलग स्थानों पर मरती जनता ही है, लेकिन दोनों में फ़र्क होता है। फ़र्क कई किस्म का हो सकता है। मसलन, जहां मौत हुई है उस जगह की राजनीतिक पहचान क्या है। उस जगह की सियासी अहमियत क्या है। उस मौत से किसे लाभ हो रहा है या हो सकता है। उस मौत से किसे नुकसान हो रहा है या हो सकता है। बहुत मुमकिन है कि एक ही साथ दो जगहों पर लोग मरे हों, लेकिन आप इनमें किसी एक से गाफि़ल हों क्योंकि आपको तो बताया ही नहीं गया। न अख़बार ने छापा, न टीवी ने दिखाया। ये भी हो सकता है कि आपको दो में से एक घटना की खुराक इतनी ज्यादा दे दी गई हो कि दूसरी घटना आपकी दृष्टि से ओझल हो गई हो। एक मामला संख्या का भी है। इस पर हम बाद में आएंगे, पहले ख़बर सुनिए।
मंदसौर में मंगलवार को गोली चली। गोली चली मतलब गोली चली। यह पहला सरकारी वर्ज़न है कि ‘गोली चली’। इस गोलीचालन में अगली सुबह तक सात किसान मर गए। सरकार बहादुर ने पहले कहा कि ‘गोली हमारी पुलिस ने नहीं चलाई’, फिर आइजी साहब ने माना कि पुलिस ने ही गोली चलाई है। फिर पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट आई तो गोली नहीं, छोटे-छोटे टुकड़े निकले। फिर कुछ रिपोर्टों में आया कि गोली सीआरपीएफ ने चलाई है। पैलेट गन की चर्चा उठी। उसके बाद अचानक सीन बदल गया। मंदसौर से सारे कैमरे भोपाल की तरफ़ घूम गए जहां मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान नैतिक आधार पर इस्तीफा देने के बजाय वातानुकूलित परिसर में उपवास पर बैठ गए थे ताकि सूबे में अमन-चैन बहाल हो। अमन चैन बहाल किए जाने का आलम ये है कि रविवार को मंदसौर में किसानों की श्रद्धांजलि सभा करने के लिए भी सामाजिक कार्यकर्ताओं को प्रशासनिक मंजूरी नहीं दी गई है। यह सब पब्लिक डोमेन में है। मंदसौर राष्ट्रीय सुर्खियों में है। शिवराज सिंह चौहान की गरदन फंस चुकी है।
बुधवार की जिस जिस सुबह मंदसौर में सातवें किसान ने दम तोड़ा, उसी दिन नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र और देश की राजनीतिक राजधानी बन चुके बनारस के सरसुंदरलाल चिकित्सालय (यानी बीएचयू के अस्पताल) में नौ मरीज़ अलग-अलग विभागों में ऑपरेशन के बाद अचानक चल बसे। शहर भर में हड़कंप मच गया। अगले दिन दैनिक जागरण ने नौ मरीज़ों के मरने की रिपोर्ट दी। प्रशासन हरक़त में आया। ऑपरेशन थिएटर तीन दिनों के लिए बंद कर दिया गया। प्रेस रिलीज़ जारी हुई जिसमें कहा गया कि नौ नहीं, तीन मरीज़ मरे हैं। कैसे मरे, इसकी जांच के लिए सात सदस्यीय कमेटी कुलपति ने तत्काल गठित कर दी। कमेटी को 48 घंटे में रिपोर्ट जमा करनी थी। 10 जून की रात तक रिपोर्ट नहीं आई थी। यह ख़बर राष्ट्रीय मीडिया ही नहीं, क्षेत्रीय मीडिया में भी नहीं उठी। एकाध वेबसाइटों को छोड़ दें तो सभी ने सरकारी वर्जन तीन मरीज़ों का चलाया। टीवी पर यह ख़बर कहीं नहीं दिखी। दिल्ली के अख़बारों में भी नहीं। दैनिक जागरण ने अगले दिन घुटने टेक दिए और नौ की जगह मात्र चार मरीज़ों का नाम गिनवाया। बीएचयू के जनसंपर्क अधिकारी ने फोन पर गर्व के साथ कहा, ”अख़बार ने थूक कर चाट लिया है। खंडन देखिए। आप लोग खंडन नहीं पढ़ते हैं।”
PR on OT patient died 8.6.17एक जगह गोली चली तो सात लोग मारे गए। एक जगह बिना गोली चले नौ लोग मारे गए, जैसा कि स्थानीय अख़बारों में छपा। नौ को सात से कम दिखाना ज़रूरी रहा होगा। तभी सरकारी विज्ञप्ति में उसे तीन कर दिया गया। ख़बर का वज़न इस तरह आधे से भी कम रह गया। लिहाजा सात के वज़न से दबे चैनलों के कैमरे मंदसौर में टिके रहे। बनारस जाने की ज़हमत किसी ने नहीं उठाई। क्यों? क्या मामला केवल मरने वालों की संख्या का था? मौत और मौत में फ़र्क होता है, इसे ठहर कर समझिए। मंदसौर कैलाश विजयवर्गीय का क्षेत्र माना जाता है। विजयवर्गीय अमित शाह के खास हैं। भोपाल से लेकर दिल्ली तक चर्चा है कि शिवराज की गरदन उतारने की तैयारी हो चुकी है। दिल्ली से मंदसौर के किसानों को ढांढस बंधाने के लिए भाजपा ने केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर को भेजा है। शनिवार को जब शिवराज उपवास पर थे, कैलाश विजयवर्गीय इंदौर के किसानों से मिल रहे थे। अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में तोमर या विजयवर्गीय मुख्यमंत्री का चेहरा हो सकते हैं। शिवराज के 15 साल उन पर भारी पड़ रहे हैं। कहते हैं कि साहब की अब यही मंशा है।
अब सोचिए, बनारस में हुई मौतों से क्या किसी को कोई लाभ मिलने की उम्मीद है? कतई नहीं। उससे नुकसान होता। बदनामी ही होती। मंदसौर में बदनामी शिवराज की हो रही है जो दिल्ली खुद चाहती है। बनारस में बदनामी सांसद से लेकर विधायक तक सबकी होती। बीएचयू के कुलपति की होती। ये सब एक ही परिवार से हैं- संघ परिवार। वहां सत्ता का कोई भेद नहीं है, जैसा कि भोपाल में है। भोपाल में किसानों की मौत को सत्ता परिवर्तन का औज़ार बनाया जाना था। बनारस में मरीज़ों की मौत से किसी की राजनीति साधने की गुंजाइश नहीं बन पा रही थी। इसलिए एक मौत को दफन कर दिया गया और दूसरे को उछाल दिया गया।
अब बनारस की घटना को करीब से देखिए। वहां जागरण, अमृत प्रभात, हिंदुस्तान और पत्रिका ने बताया है कि ऑपरेशन के बाद नौ मरीज़ मर गए। अकेले जागरण ने मरीज़ों का अगले दिन नाम छापा, लेकिन केवल चार। प्रशासन ने रिलीज़ में तीन बताया। मतलब एक तो अतिरिक्त है ही। बातचीत और ख़बर में अगर तमाम स्थानीय पत्रकार कुल नौ मौतें बता रहे हैं, तो जागरण बाकी पांच के नाम क्यों नहीं ला सका? और अख़बार क्यों नहीं ला सके? बाकी पांच लाशें कहां गईं? बीएचयू के असिस्टेंट पीआरओ राजेश सिंह फोन पर कहते हैं, ”विश्वविद्यालय के भीतर कुछ एंटी-इस्टैब्लिशमेंट लोग हैं जो अफ़वाह फैला रहे हैं। यह तो कोई ख़बर ही नहीं है। तीन लोग मरे हैं। शायद कोई तकनीकी गड़बड़ी थी। हमने कमेटी बना दी है।” और अगले ही पल वे जितनी भी प्रेस विज्ञप्तियां मेल पर भेजते हैं, उनमें एक अटैचमेंट नाइट्रस ऑक्साइड गैस के दुष्प्रभावों पर भी है जो घटना के कारण की ओर चुपचाप संकेत करता है।
Nitrousयह ख़बर दिल्ली तो क्या, लखनऊ तक नहीं पहुंच सकी। बीएचयू के पीआरओ इसे ख़बर ही नहीं मानते। साजि़श मानते हैं। मीडिया भी वैसा ही करता है। ख़बर नहीं दिखाता। मंदसौर की ख़बर अंतरराष्ट्रीय बन गई। केंद्र सरकार इसे भी साजिश मानती है लेकिन मीडिया ने इसे उठा लिया और लगे हाथ साजिशकर्ताओं की ओर इशारा भी कर दिया। अख़बारों ने किसानों को उपद्रवी ठहरा दिया और विमर्श इस ओर मुड़ गया कि किसान है तो जींस कैसे पहन सकता है। लगे हाथ जन धारणा किसानों के खिलाफ तैयार कर दी गई और सूबे के मुख्यमंत्री के भीतर गांधीजी के तीनों बंदरों की आत्मा प्रवेश कर गई।
इस दौरान उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री क्या कर रहा था? कृषि पर कार्यशाला का उद्घाटन, बैठकें, प्रदर्शनी का लोकार्पण, किसानों को पुरस्कार वितरण और शनिवार को एक अख़बार के सालाना सामारोह में समाज के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों को पुरस्कार वितरण के साथ मीडिया की वर्तमान स्थिति पर चिंता जताना- उसने भी बनारस जाना मुनासिब नहीं समझा। मौतें तीन हों या नौ, उसके लिए कोई मायने नहीं रखती हैं क्योंकि उसकी कुर्सी को अभी कोई खतरा नहीं है। न वह उपवास पर बैठेगा, न कोई बयान जारी करेगा। इतना तो पीआरओ ही मैनेज कर लेते हैं।
देश में कुछ और लोग हैं जिनके लिए आम लोगों की मौत मायने नहीं रखती, जब तक कि उससे कुछ हासिल न हो। वे आजकल दिल्ली में अभिव्यक्ति की आज़ादी के नए झंडाबरदार बनकर उभरे हैं। शुक्रवार को दिल्ली के प्रेस क्लब में एक कामयाब गोष्ठी हुई। लॉन खचाखच भरा हुआ था। पांचेकसौ लोग रहे होंगे। मुद्दा था एनडीटीवी के मालिक प्रणय रॉय पर पड़े सीबीआइ के छापे का विरोध। मंच के बीचोबीच कत्थई शर्ट से तीखा विपर्यय रचता हुआ प्रणय रॉय का दमकदार चेहरा था। उनके अगल-बगल कुछ रिटायर्ड संपादकों के बीच अरुण शौरी भी थे। वही अरुण शौरी, जिन्हें 2002 के गुजरात दंगे के वक्त मुसलमानों के मारे जाने से ज्यादा दुख इस बात का था कि अटलजी पर क्या गुज़र रही होगी। वही शौरी, जिन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सेवा में आंबेडकर से लेकर नेहरू तक सबको गाली दी है। जिन्होंने 2002 के दंगे पर एक साक्षात्कार में कहा था कि सौ लोगों का मर जाना उनके लिए ज्यादा मायने नहीं रखता है क्योंकि सौएक लोग तो भूकंप में भी मर जाते हैं।
जाहिर है, फिर तीन, सात या नौ मौतें तो मायने रखने के लिहाज से ऊंट के मुंह में ज़ीरा हैं। पंद्रह साल में उनकी चिंता करने लायक संख्या बदली थी या नहीं ये तो नहीं पता, लेकिन वे ‘ढाई लोगों की सरकार’ से परेशान ज़रूर दिखे। उन्होंने प्रणय रॉय पर छापे का विरोध किया तो पत्रकारों ने ताली पीटी। उन्होंने वेंकैया नायडू के इंडियन एक्सप्रेस में छपने वाले लेखों का मज़ाक उड़ाया, तो पत्रकारों ने मौज ली। और यह सब वे उस प्रणय रॉय के लिए कर रहे थे जिनका एनडीटीवी न होता तो 2002 का सच अधूरा रह जाता। मतलब आज भी उनके लिए 2002 में मारे गए लोगों का सवाल प्राथमिक नहीं था, बल्कि उस वक्त विनिवेश मंत्री के बतौर देश को बेचने के काम में जुटे होने का डेढ़ दशक बाद आई बहुमत की सरकार में फल नहीं मिलना ही मूल दर्द था। यह दर्द इसलिए डबल हो गया था क्योंकि उनके सहयोगी रहे अरुण जेटली ‘ढाई लोगों की सरकार’ में अधे या पूरे की हैसियत से मौजूद हैं जो कम से कम 20 परसेंट बनता है। तो प्रणय रॉय पर छापा पड़ा और दुश्मन का दुश्मन दोस्त बन गया।
#ArunShourie begins #PressClub address by thanking PM Modi for uniting the media, “bringing so many friends together”
— Sankarshan Thakur (@SankarshanT) June 9, 2017
दिल्ली में तीन दशक से रह रहे पत्रकार याद कर रहे थे कि बीते 25 साल में उन्होंने प्रणय रॉय को कभी भी पब्लिक प्लेटफॉर्म पर नहीं देखा है। जब नेटवर्क18 से सैकड़ों पत्रकार निकाले गए, जब शाहजहांपुर में जगेंद्र सिंह को जलाया गया और प्रेस क्लब ने मुलायम सिंह के घर तक मार्च निकाला, जब बस्तर में पत्रकार गिरफ्तार हुए या जब 800 से ज्यादा अखबारों का डीएवीपी पैनलमेंट रद्द हुआ, हर वक्त प्रणय रॉय स्टूडियो में पाए गए। मीडिया मालिकों पर पहले भी हमले हुए हैं, लेकिन ऐसा शो कभी नहीं सामने आया। सहाराश्री सुब्रत रॉय तो जेल चले गए लेकिन उस वक्त लोकतंत्र को आंच नहीं आई। एनडीटीवी पर हमला होते ही लोकतंत्र खतरे में पड़ गया। प्रणय रॉय स्टूडियो से बाहर निकल आए। आआइसी में बैठने वाले दिग्गजों को प्रेस क्लब के लॉन में आना पड़ा। अरुण शौरी को साथ लाना पड़ा। किसके लिए? बनारस या मंदसौर में मरे हुए लोगों के लिए नहीं, एक अदद छापे के मारे हुए मीडिया मालिक के लिए। कौन पूछे कि बनारस की ख़बर आपने क्यों नहीं चलाई? उसे तुरंत दुश्मन करार दे दिया जाएगा। दुश्मन मने रवीश कुमार कृत ”गोदी मीडिया” का एजेंट।
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की एक खूबसूरत कविता छोटी कक्षाओं में पढ़ाई जाती है- ‘गीत-अगीत कौन सुंदर है”। कवि गाने वाली नदी और मूक बैठे पत्थर दोनों की खूबसूरती पर बराबर मुग्ध होकर तय नहीं कर पा रहा कि दोनों में सुंदर कौन है। जब दुनिया में खूबसूरत चीज़ों की लगातार कमी होती जा रही हो, तो जीने के लिए बदसूरत ची़जों में से छांटना मजबूरी बन जाती है। एनडीटीवी ने भी बनारस की मौतें नहीं दिखाईं और मंदसौर को ताने रहा, लेकिन हमें उससे शिकायत नहीं है क्योंकि टीवी का अंधेरा अकेले वही दिखाता है। और कोई नहीं दिखाता। हमें संतोष होता है कि चलो, कोई तो है। जो ‘कोई’ है, वह ‘कोई’ के साथ बैठा हुआ प्रेस क्लब में जब दिखा, तो बहुत से पत्रकारों के मुंह से सहसा जो भाव निकल पड़ा, उसे दिनकर से माफी के साथ आज का आशुकवि अपनी उहापोह में कुछ यों पूछेगा: ”गोद-अगोद कौन सुंदर है”!!!