चुनाव चर्चा: क्या फे़डरल फ्रंट के नाम पर कोई ‘खेल’ हो रहा है ?


ममता बनर्जी ने इस फ्रंट के बारे में चुप्पी साध ली।




चंद्र प्रकाश झा 

कुछेक राजनीतिक दलों और टीकाकारों  के आकलन के अनुसार आगामी लोकसभा चुनाव में किसी भी पार्टी और उनके मौजूदा गठबंधन को नई सरकार बनाने के लिए आवश्यक स्पष्ट बहुमत नहीं मिल सकेगा। उनको  लगता है कि केंद्र में अभी सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी  के नेतृत्व वाले  गठबंधन, नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस (एनडीए) और विपक्षी कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन , यूनाइटेड प्रोग्रेसिव अलायंस (यूपीए) को स्पष्ट बहुमत हासिल करने में  खासी कमी रह जाएगी। ऐसा मानने वालों में और तो और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मुखपत्र कही जाने वाली अंग्रेजी पत्रिका, ऑर्गेनाइजर भी शामिल है।

कांग्रेस के मुखपत्र, नेशनल हेरल्ड ने ऑर्गेनाइजर के नवीनतम अंक में व्यक्त ऐसी संभावना पर आधारित अपनी रिपोर्ट में कहा है कि प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी के प्रति बढ़ते जन असंतोष से भाजपा खेमे में बेचैनी है। ऑर्गेनाइजर मान चुका है कि 17 वीं लोक सभा में स्पष्ट जनादेश नहीं मिलेगा। अगले छह माह में राजनीतिक अस्थिरता अपरिहार्य लगती है। यह राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से प्रतिकूल स्थिति होगी। किसने सोचा होगा कि प्रधानमंत्री के रूप में मोदी जी के दिन पूरे हो जाएंगे और अगर भाजपा अगले आम चुनाव के बाद किसी तरह बहुमत जुटाने में कामयाब हो भी जाए तो वह इस पद पर फिर आसीन नहीं हो सकेंगे। देश के पांच राज्यों की विधान सभा के हालिया चुनाव में किसी में भाजपा की जीत नहीं हुई। उनमें से भाजपा शासित तीन अहम राज्यों- राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की जीत से भाजपा खेमे में खतरे की घंटी बजने लगी है। पहले यह लगता था कि भाजपा को अपने पुराने गढ़ में लोकसभा की 50 से 100 सीट का नुकसान भी होता है तो वह पूर्वोत्तर के राज्यों और ओडिसा, पश्चिम बंगाल आदि अपनी ‘नई जमीन’ से आवश्यक सीटें जुटा लेगी। राजनीतिक टीकाकारों को भी आश्चर्य होने लगा कि भाजपा और आरएसएस के भीतर प्रधानमंत्री पद के लिए केंद्रीय मंत्री एवं नागपुर से सांसद, नितिन गडकरी जैसे वैकल्पिक नाम पर चर्चा शुरू हो गई है।

ऐसे माहौल में जब तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव (केसीआर) ने भाजपा और कांग्रेस, दोनों के खिलाफ फेडरल फ्रंट (संघीय मोर्चा) के गठन की अपनी कोशिशों में तेजी लानी शुरू कर दी तो उसके निहितार्थ पर प्रश्न उठने लगे। स्वतंत्र भारत के सबसे नए राज्य – तेलंगाना की दूसरी विधान सभा के हालिया चुनाव में अपनी पार्टी, तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) की जीत के बाद उत्साहित केसीआर ने भाड़े पर लिए एक विमान से विभिन्न राज्यों में जाकर अपने अभियान को गति देने की कोशिश की। उन्होंने भुवनेश्वर में ओडिसा के मुख्यमंत्री एवं बीजू जनता दल के प्रमुख नवीन पटनायक और फिर कोलकाता में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री एवं ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी से भेंट की। फ़ेडरल फ्रंट का विचार केसीआर ने मार्च 2018 में ममता बनर्जी के साथ मिलकर दिया था। लेकिन उसके बाद ममता बनर्जी ने इस फ्रंट के बारे में चुप्पी साध ली। 

केसीआर ने उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री एवं बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती तथा इसी प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे एवं समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव से भी संपर्क साधा। अखिलेश यादव ने तब कुछ संकेत दिए जब उन्होंने कहा कि तेलंगाना के मुख्य मंत्री फेडरल फ्रंट खड़ा करने की कोशिश कर रहे है और वह उनसे मिलने हैदराबाद जाएंगे। लेकिन यह कहना सही नहीं होगा कि उन्होंने और उपरोक्त नेताओं में से किसी अन्य ने केसीआर के फेडरल फ्रंट में शामिल होने पर तत्काल सहमति दे दी है। गौरतलब है कि बसपा और सपा ने राजस्थान और मध्य प्रदेश में कांग्रेस की स्पष्ट बहुमत के कगार पर खड़ी सरकारों को समर्थन घोषित कर रखा है। इन दोनों पार्टियों ने आम चुनाव में महागठबंधन के लिए कांग्रेस के साथ बातचीत के दरवाज़े अभी पूरी तरह बंद नहीं किये हैं।

तमिलनाडु में सत्तारूढ़ आल इंडिया अन्ना द्रमुक कषगम (एआईएडीएमके) का फ़ेडरल फ्रंट को समर्थन मिल सकता है लेकिन इसे दिल्ली में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी का समर्थन मिलना संदिग्ध है। वरिष्ठ पत्रकार सतीश मिश्र के अनुसार फेडरल फ्रंट का विचार एक छलावा है जिसका मूल उद्देश्य नरेंद्र मोदी को फिर से सत्ता में लाने में मदद करना है। कुछ अन्य राजनीतिक टीकाकारों के मुताबिक तेलंगाना विधानसभा चुनाव के दौरान केसीआर के पुत्र के.टी.रामाराव संकेत दे चुके हैं कि उनकी पार्टी जरूरत पड़ने पर कांग्रेस के बजाय भाजपा का साथ देगी। वरिष्ठ पत्रकार शेखर गुप्ता मानते है कि तेलंगाना विधानसभा का हालिया चुनाव जीतने के बाद केसीआर कुछ ज्यादा ही महत्वाकांक्षी हो गए हैं। लेकिन तेलंगाना की राजनीति पर नजर रखने वाले विश्लेषक मानते हैं कि लोकसभा चुनाव में टीआरएस का प्रदर्शन विधानसभा चुनाव के नतीजों जैसा ही हो यह जरूरी नहीं है। 

गौरतलब है कि गैर-कांग्रेस और गैर- भाजपा दलों के तीसरा मोर्चा बनाने का प्रयास 1989 के लोक सभा चुनाव से शुरु हुआ था। तब विश्वनाथ प्रताप सिंह ने भाजपा और वामपंथी दलों के बाहरी समर्थन से केंद्र में जनता दल के नेतृत्व में राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार बनाई थी। उस चुनाव में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी। लेकिन तब स्पष्ट बहुमत से वंचित कांग्रेस ने अपनी सरकार बनाने की कोशिश नहीं की थी। राष्ट्रीय मोर्चा में जनता दल के साथ ही तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी), द्रविड़ मुनेत्र कषगम (डीएमके), असम गण परिषद (एजीपी) और कांग्रेस से पहले अलग हुआ गुट कांग्रेस (सोशलिस्ट) शामिल थे।  टीडीपी के  एन.टी रामाराव इसके अध्यक्ष और वी.पी.सिंह संयोजक थे। वीपी सिंह की सरकार बरस भर में तेज राजनीतिक घटनाक्रम में तब गिर गई जब भाजपा ने उसे दिया अपना समर्थन वापस ले लिया। भाजपा ने ऐसा लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा को अयोध्या पहुँचने से पहले बिहार में जनता दल की लालू प्रसाद यादव सरकार द्वारा गिरफ़्तार करने के बाद किया। जनता दल का विभाजन हो गया और उसके 54 सांसदों  के गुट के नेता चंद्रशेखर ने कांग्रेस के बाहरी समर्थन से सरकार बनाई। यह सरकार भी कांग्रेस द्वारा दिए समर्थन की वापसी से गिर गई। 1996 के लोक सभा चुनाव के पहले ही राष्ट्रीय मोर्चा टूट गया, उसने इसमें एआईडीएमके को भी शामिल करने के प्रयास किये।  इसके विरोध में डीएमके राष्ट्रीय मोर्चा से बाहर निकल गया। 1996 में एनटीआर के निधन के पहले ही 1995 में जब टीडीपी में विभाजन हुआ तो जनता दल ने उनकी पत्नी लक्ष्मी पार्वती गुट का साथ दिया। वाम दलों ने चंद्रा बाबू के बड़े गुट का साथ दिया। 

1996 के लोक सभा चुनाव के बाद केंद्र में भाजपा की पहली सरकार अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व में बनी थी। लेकिन इस सरकार ने लोकसभा में पेश विश्वास मत पर वोटिंग से पहले इस्तीफा दे दिया।  उसकी जगह संयुक्त मोर्चा की बनी। उसके प्रधानमंत्री कर्नाटक के मुख्यमंत्री रहे जनता दल के एच.डी.देवेगौड़ा बने। 13 दलों के संयुक्त मोर्चा में जनता दल, समाजवादी पार्टी, डीएमके, टीडीपी, एजीपी, आल इंडिया इंदिरा कांग्रेस (तिवारी), तमिल मानीला कांग्रेस, नेशनल कांफ्रेंस, महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी भी शामिल थी। टीडीपी के नायडू इसके संयोजक थे। देवेगौड़ा सरकार  भी ज्यादा टिक नहीं सकी। उसकी जगह जनता दल के ही इंद्र कुमार गुजराल प्रधानमंत्री बने जिसे कांग्रेस और वामपंथी दलों का समर्थन मिल गया था। देवेगौड़ा 1 जून 1996 से 21 अप्रैल 1997 तक और गुजराल 21 अप्रैल 1997 से 19 मार्च 1998 तक प्रधानमंत्री रहे। गुजराल सरकार भी गिर जाने के बाद नए चुनाव कराये गए जिसमें जीत के बाद भाजपा ने अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व में दूसरी बार सरकार बनाई। ध्यान देने की बात यह है कि स्वतंत्र भारत में 1977 के लोकसभा चुनाव के बाद केंद्र में मोरारजी देसाई के प्रधामंत्रितत्व में बनी जनता पार्टी की सरकार के सिवा कोई अन्य सरकार कांग्रेस या भाजपा के समर्थन के बिना नहीं टिक सकी है। 1977 में जनता पार्टी में भाजपा की पूर्ववर्ती पार्टी, भारतीय जनसंघ शामिल थी जिसने 1980 के लोक सभा चुनावों से पहले अलग होकर भाजपा का गठन कर लिया था।

2018 के आरम्भ में अपनी पार्टी, टीडीपी को एनडीए से अलग कर चुके आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री एन चंद्रा बाबू नायडू ने मोदी जी से केसीआर की हालिया भेंट के बाद कटाक्ष में सवाल किया कि क्या उन्होंने यह भेंट अपने राज्य के मुद्दों से अवगत कराने अथवा फेडरल फ्रंट खड़ा करने की अपनी कोशिशों के परिणामों की जानकारी देने के लिए की। उन्होंने आरोप लगाया कि केसीआर, मोदी जी की शह पर विपक्षी एकता तोड़ने का प्रयास कर रहे हैं। नायडू के अनुसार अभी सिर्फ दो मोर्चा है। इनमें से एक भाजपा और दूसरा कांग्रेस के नेतृत्व में है। देश में किसी तीसरा मोर्चा की संभावना ही नहीं है। उन्होंने आंध्र के विपक्षी वाय.एस.आर कांग्रेस से यह स्पष्ट करने कहा है कि वह भाजपा और कांग्रेस के  मोर्चा में से किसके साथ है। नायडू खुद तेलंगाना विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की मोर्चाबंदी में शामिल हो जाने के बाद उसको सुदृढ़ करने के अपने प्रयासों के सिलसिले में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, बसपा नेता मायावती, जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला, पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं नवगठित लोकतांत्रिक जनता दल के नेता शरद यादव, पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता डी राजा आदि से मुलाक़ात कर चुके हैं।

बहरहाल मौजूदा हालात 1989 और 1996 से सर्वथा भिन्न हैं। भाजपा केंद्र में सत्तारूढ़ है और कई राज्यों में उसकी सरकारें है। उसके एनडीए गठबंधन में अभी भी कई दल हैं। कांग्रेस भी फिर से उभार पर है और उसने तमिलनाडु में डीएमके, बिहार में आरजेडी, आंध्र और तेलंगाना में टीडीपी, कर्नाटक में जेडीएस और महाराष्ट्र में एनसीपी जैसे क्षेत्रीय दलों का समर्थन जुटा लिया है। देखना है कि केसीआर का फेडरल फ्रंट बनाने की कोशिश आगामी चुनाव तक सफल होती है अथवा नहीं?  और अगर फेडरल फ्रंट बन भी जाता है तो वह 17 वीं लोकसभा में वास्तव में किसी मोर्चा को स्पष्ट बहुमत नहीं मिल पाने की दशा में क्या भूमिका निभाता है? 

(मीडियाविजिल के लिए यह विशेष श्रृंखला वरिष्ठ पत्रकार चंद्र प्रकाश झा लिख रहे हैं, जिन्हें मीडिया हल्कों में सिर्फ ‘सी.पी’ कहते हैं। सीपी को 12 राज्यों से चुनावी खबरें, रिपोर्ट, विश्लेषण, फोटो आदि देने का 40 बरस का लम्बा अनुभव है।)