डॉ.स्कन्द शुक्ल
मुन्नी सात साल की है , सर सतहत्तर के। एक की उम्र में एक सात आता है , दूसरे की उम्र में दो। ऐसे में जीवन के एक छोर पर खड़ी वह बच्ची ऐसा सवाल पूछती है , जो पुरानी पड़ती हियरिंग-एड के बावजूद सर के कानों तक साफ़ सुनायी दे जाता है।
“बाबाजी ! आप अमर नहीं हो सकते ?” सत्तर सालों के फ़ासले को पाटते इस प्रश्न में एक भय संलग्न है। मृत्यु का भय। शरीर के न रहने का भय। भय जिसे मुन्नी जान चुकी है , लेकिन बूझ नहीं पायी है। मृत्यु को बूझ पाने के लिए अभी वह बहुत छोटी जो है। लेकिन सर के मन में मृत्यु पिछले कई रोज़ से किसी लेनदार-सी चहलक़दमी करती आया करती है। न जाने किस दिन कह दे : “पैक अप , ओल्ड मैन !”
बचपन यह सोच नहीं पाता कि एक दिन हममें से कोई नहीं बचेगा। हमारी देहों की क्रियाएँ रुक जाएँगी , फिर इनकी रचनाएँ भी नष्ट हो जाएँगी। लेकिन फिर जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है , ज्ञान आता है । वह मृत्यु का परिचय और फिर बोध साथ लाता है।
“सर , हम अमर नहीं हो सकते ?” मैंने भी तीसियों साल पहले कक्षा छह में सर से विज्ञान की कक्षा के बाद पूछा था। तब तक मृत्यु और विज्ञान दोनों से न सिर्फ़ परिचय हो चुका था , बल्कि यह भी समझ आ चुकी थी कि पहली को अगर जीतना है तो दूसरी में बहुत ऊँची सिद्धि पानी होगी।
सर मुस्कुराये और उन्होंने मात्र इतना कहा , “अमर तो तुम अब भी हो।”
इतने पर मेरी जिज्ञासा शान्त नहीं हुई ,बल्कि और बढ़ गयी। “सर , अमर कैसे ? हम-सब तो मरते हैं। मेरा मतलब है , कि जिस तरह वह एककोशिकीय जीव अमीबा अमर है।”
सर मेरी मनोजिज्ञासा को समझ चुके थे। उन्हें पता था कि अमीबा और हाइड्रा-जैसे छोटे जीव मेरे-जैसे बच्चों के मन में कई प्रश्न उठा रहे हैं। इनमें से एक प्रश्न अमर होने का भी है। लेकिन फिर उन्होंने उस दिन मुझे इन जीवों के अमरत्व के बारे में थोड़ा विस्तार से समझाया।
“जीवन का ध्येय अपने आपको सदैव बनाये रखने की कोशिश है बेटे। कोई मरना नहीं चाहता। इसलिए हम पूरा जीवन पोषण और प्रजनन में बिता देते हैं। जानते हो प्रजनन में एक क़िस्म का अमरत्व छिपा है ?”
“प्रजनन में अमरत्व कैसा , सर ?”
“जीव की पहचान उसके डीएनए से है न ? और प्रजनन इसी डीएनए को एक पीढ़ी से दूसरी में पहुँचाने का काम करता है। बच्चे माता-पिता का मिश्रित डीएनए लेकर उपजे हैं। वे आगे इस डीएनए को अगली पीढ़ी को पहुँचाएँगे। इस तरह से यह क्रम चलता रहेगा।”
“लेकिन सर , अमीबा ऐसा नहीं करता। वह तो एक ही कोशिका है। पूरा का पूरा दो में बँटता चला जाता है और फिर ये दो चार में। फिर चार से आठ , आठ से सोलह , सोलह से बत्तीस।”
“तो यही तो हम करते हैं। बस अन्तर मात्र इतना है कि हमारा प्रजनन लैंगिक है और अमीबा का अलैंगिक। उसके पास यौनकर्म के लिए अलग विशिष्ट कोशिकाएँ नहीं हैं। उसे जो करना है , उसी एक कोशिका से करना है। लेकिन हम विकसित हैं , बहुकोशिकीय हैं। हमारे पास खाना पचाने की पृथक कोशिकाएँ हैं , चिन्तन की पृथक । हम मूत्र-निर्माण अलग कोशिकाओं से करते हैं और प्रजनन अलग कोशिकाओं से।”
“लेकिन सर, इस विशिष्टीकरण और काम के बँटवारे के कारण हम पूरे अमर नहीं होते न ? हमारे पुत्र-पुत्री हम हैं , लेकिन फिर भी हम कहाँ हैं। वे हम से निकले हैं , हमारा डीएनए उनमें है। लेकिन उनमें तो उनकी माँओं का भी डीएनए है। सो वे केवल हम नहीं हैं। मैं अपने निजी अमरत्व की बात कर रहा था दरअसल।”
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समय बीतता जा रहा है और मैं बड़ा हो रहा हूँ। पढ़ने में मेधावी हूँ और मेडिकल-परीक्षा में उत्तीर्ण होकर देश के एक मेडिकल कॉलेज में एमबीबीएस की पढ़ाई कर रहा हूँ। जीव की उम्र और वृद्धावस्था की मुझे अब बेहतर समझ हो चली है। कोशिकाओं से लेकर अंगों तक में चलने वाली तमाम प्रक्रियों को मैं भलीभाँति बूझने लगा हूँ। ज़माना भी इधर आगे बढ़ा है और देश में सेल्युलर-क्रान्ति हो चली है। सर लेकिन अब भी मेरे उसी पुराने स्कूल में बच्चों को विज्ञान पढ़ा रहे हैं। ऐसे में कहीं से एक बार उनका नम्बर हाथ लगता है और मैं उन्हें फ़ोन मिला देता हूँ। अध्यापक-छात्र के अन्तरसम्बन्ध फिर से सजीव हो उठते हैं।
“आज भी अमरत्व के बारे में सोचते हो ?” बातों-बातों में वे हास-परिहास कर बैठते हैं।
“सोचता भी हूँ , मृत्यु को बेहतर जानने लगा हूँ।”
“क्या जाना और नया ?”
“यही कि सामान्य मृत्यु वृद्धावस्था का चरम बिन्दु है। जब देह और नहीं चल सकती , तो उसका जीवन-सन्तुलन बिगड़ता है और वह रुक जाती है। चेतना ख़त्म। इसलिए मौत को समझा और फिर जीता तभी जा सकता है , जब बुढ़ापे को पहले ढंग से समझा जाए।”
“क्या-क्या समझा ?”
“हमारे शरीरों में खरबों कोशिकाएँ हैं , सर। वे सभी पैदा हुई हैं , वे सभी जी रही हैं। एक पूरा समाज नन्हें प्राणियों का। वे सभी एक दिन मरती भी हैं। कोशिकाओं का जन्म लेना , अपने कार्य करना और फिर मर जाना , यह पूरी ज़िन्दगी व्यक्ति के भीतर चला करता है।”
“और ?”
“और यह कि इन कोशिकाओं का क्षरण ही दरअसल देह का जीर्ण-शीर्ण होना है। कोशिकाओं पर लगातार बाहरी आघात चल रहे हैं। उनपर सूर्य की अल्ट्रावायलेट किरणें पड़ रही हैं , उनका सामना तरह-तरह के हानिकारक रसायनों से हो रहा है। शरीर के भीतर होने वाली तमाम रासायनिक क्रियाएँ भी कई ऐसे पदार्थ बना रही हैं, जो कोशिकाओं को घायल करते या उन्हें मारते हैं। इन रसायनों को विज्ञान फ़्री-रेडिकल का नाम देता है।”
“हाँ , यह तो है। ये फ्री-रेडिकल कोशिकाओं के भीतर मौजूद डीएनए को क्षतिग्रस्त करते हैं , प्रोटीनों को भो चोट पहुँचाते हैं।”
“जी सर। लेकिन कोशिकाएँ भी समर्पण नहीं करतीं। ये इन घावों को भरने , क्षतियों को पूरने की पूरी कोशिश करती हैं। इस काम के लिए उनके पास तमाम डीएनए-रिपेयर-एन्ज़ाइम होते हैं , जो डीएनए में आ गयी त्रुटियों की मरम्मत करते हैं।”
“और अगर यह मरम्मत नाक़ामयाब रही , बेटे ?”
“तो ऐसी त्रुटियुक्त कोशिका को मार दिया जाता है। यह बड़े हित में लिया गया उचित क़दम है। शरीर को सभी के लिए सोचना है। स्वस्थ कोशिकाओं को कोई हानि आगे न हो , इसलिए इन बीमार और ठीक न हो रही कोशिकाओं से मुक्ति ज़रूरी है।”
सर एक गहरी साँस भरते हैं , जिसे मैं सुन सकता हूँ। “और अगर ये बीमार कोशिकाएँ न मारी जाएँ ?”
“तो इस बात की आशंका है कि इनका प्रजनन अनवरत अनियन्त्रित चलता जाए। इनकी संख्या बढ़ती चली जाए और ये स्वस्थ साधारण कोशिकाओं के हिस्से का पोषण भी छीनने लगें। डीएनए-त्रुटियों के साथ इस तरह अन्धाधुन्ध बढ़ती चली जाती इन्हीं कोशिकाओं को तो कैंसर कहते हैं सर।”
“हाँ। इतना तो तुम पहले से जानते हो। लेकिन शरीर में इस तरह से छीनाछपटी न मचे , इसका कोई ढंग तुमने पढ़ा विस्तार से ?”
“मैंने जेनेटिक्स पढ़ी है सर। उसमें टीलेमेरेज़ के बारे में जाना है।”
“टीलोमेरेज़ क्या है और यह क्या करता है ?”
“हमारी कोशिकाओं में जो डीएनए है , यह गुणसूत्रों यानी क्रोमोज़ोमों के रूप में है। ये क्रोमोज़ोम ही कोशिका-विभाजन के समय बँटते हैं और प्रजनन के समय मिलकर नयी कोशिका के क्रोमोज़ोम बनाते हैं। आधे माँ से , आधे पिता से। इन क्रोमोज़ोमों के जो अन्तिम सिरे हैं , ये हर कोशिका-विभाजन के समय छोटे होते जाते हैं। इस सिरों को टीलोमीयर कहा गया है। लगातार छोटे होते टीलोमीयरों के कारण एक समय ऐसा आता है , जब कोशिका का विभाजन रुक जाता है। जब कोशिका बँटना बन्द कर दे , तो वह बूढ़ी कहलाती है।”
“यानी उम्र बढ़ने के साथ हमारी कोशिकाओं के टीलोमीयर छोटे हो रहे हैं ?”
“जी सर। जो एन्ज़ाइम टीलोमीयरों की लम्बाई बनाये रखता है , वह हमारी सामान्य कोशिकाओं में निष्क्रिय रहता है। इसे टीलोमेरेज़ कहते हैं। यह शरीर की एक सुन्दर दूरदर्शी योजना का अंग है। ताकि कोशिकाएँ एक समय के बाद और न बँटे। वे बूढ़ी हों और मर जाएँ। केवल हमारी भ्रूणीय कोशिकाओं में यह टीलोमेरेज़ सक्रिय रहता है। वहाँ अभी ख़ूब कोशिका-विभाजन चाहिए। वहाँ अभी नया शरीर बन रहा है। इसलिए कोशिकाओं के टीलेमीयर छोटे न हों। इसलिए टीलोमेरेज़ काम करता रहता है। क्रोमोज़ोम अपनी लम्बाई नहीं खोते। वे अपने हर बँटवारे के साथ छोटे नहीं होते।”
“और वयस्कों में टीलोमेरेज़ का सक्रिय रहना कहाँ मिलता है ?”
“कैंसरों में सर। कैंसर-कोशिकाएँ शिशुओं-सा ही बर्ताव तो करती हैं। अन्धाधुन्ध प्रजनन और पोषण के लिए सामान्य कोशिकाओं से छीनाछपटी। इन कोशिकाओं में टीलोमेरेज़ काम करता रहता है और टीलोमीयर छोटे नहीं होते।”
“इसलिए तो शायद बुढ़ापे और मृत्यु को जीतना कभी न हो सके।”
“क्यों सर ?”
“क्योंकि बढ़ती उम्र के साथ एक तरफ़ तो फ़्री-रेडिकलों और हानिकारक रसायनों की मार से जीर्ण होती कोशिकाएँ हैं, तो दूसरी ओर टीलोमेरेज़ की सक्रियता लिए अन्धाधुन्ध प्रजनन करतीं ये बचकानी कैंसर-कोशिकाएँ। बूढ़ा होता आदमी बूढ़ी होती कोशिकाओं से भी बना है और बच्ची हुई जाती कोशिकाओं से भी। हम अगर कोशिकाओं को बूढ़ा होने से रोक देते हैं , तो कैंसर का ख़तरा बढ़ जाता है। और अगर कैंसर की रोकथाम में पूरी तरह जुटते हैं , तो वृद्धावस्था आवश्यक हो जाती है। बुढ़ापे को रोक कर और बचपने की बदमाशी को अनुशासित करके जीना क्या कभी हो सकेगा मनुष्य के लिए ?”
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आज मैं अमेरिका से विश्व-ख्यात डॉक्टर बनकर सपरिवार भारत लौटा हूँ। कैम्ब्रिज , मैसाच्युसेट्स में हमारा वैज्ञानिक-ग्रुप मनुष्य की वृद्धावस्था और मृत्यु से पार पाने के तरीक़ों पर काम कर रहा है। आज सर से बीसियों साल बाद भेंट हो रही है। वे पहले से बहुत सफ़ेद , बहुत झुके , बहुत धीमे हो चले हैं। घिसे हुए क्रोमोज़ोमों को लिए फ़्री-रेडिकलों और हानिकारक रसायनों से लड़ती उनकी जीर्ण देह आज मेरे सामने है और मुन्नी उनसे अपने मासूम सवाल पूछने में लगी है।
“तो कहाँ तक पहुँची तुम्हारी ‘मृत्योर्माअमृतं गमय’ की कहानी, बेटे ? अमृत मिला ?” मुन्नी से बात करते-करते वे बूढ़ी आँखें एक आशावान प्रश्न लिए मेरी ओर घूम जाती हैं।
“हम लोग प्रयासरत हैं , सर। सफलता मिलेगी हमें , उम्मीद है।”
“कब तक ?”
“कह नहीं सकते सर। तीस सालों में। चालीस , पचास , या शायद सौ।”
“तब तक तो … ” कहते हुए वह बूढ़ा झुर्रियाया हाथ निश्चिन्तता के साथ ऊपर उठ जाता है। लेकिन फिर एक झलक वे मुन्नी को देखते हैं और प्रश्न के साथ वापस लौटते हैं। “क्या युक्तियाँ सोचता है आज विज्ञान ?”
“कई बातें सोची जा रही हैं , उनपर शोध किया जा रहा है सर। अंग-प्रत्यारोपण से आप तो आप परिचित ही हैं , वह तो अब बहुत पुरानी बात हो गयी। व्यक्ति में जीर्ण अंग की जगह नया अंग लगाना तो हो ही रहा है , अब उसके स्थान पर यन्त्रों के प्रत्यारोपण पर काम चल रहा है। मनुष्य को सायबॉर्ग बनाने जैसी बात। कि वह कुछ जीव और कुछ यन्त्र हो जाए। कि उसके कुछ अंग कुदरती और कुछ मशीनी हों।”
“और कोई भी ढंग है ?”
“फिर जीनों को ही बदलने की बात तो ख़ैर चल ही रही है। टीलोमेरेज़ को सक्रिय रखा जाए , लेकिन कैंसर से भी बचा जाए। क्रोमोज़ोमों में नये जीन डाले जाएँ , पुराने बीमारी पैदा करने वाले जीन हटाये जाएँ। जीन और उसे बनाने वाले डीएनए के स्तर पर होने वाली यह कतर-व्योंत हमें स्वस्थ और दीर्घजीवी तो रखेगी ही , साथ ही नये गुण-धर्म भी पैदा कर सकती है। आँखों के रंग बदल सकते हैं और हो सकता है कि व्यक्ति अँधेरे में जगमगाना चुन सके।”
“और भी कोई ढंग ?”
“नैनोटेक्नोलॉजी का उपयोग सर। नन्हीं मशीनें देह में प्रवेश करायी जाएँ और वे रोगों का ख़ात्मा करें।”
“और भी कोई युक्ति ?”
“फिर ऐसी पद्धतियाँ विकसित हों , कि मनुष्य के मस्तिष्क या फिर उसका का समस्त डेटा किसी कम्प्टयूटर में अपलोड कर दिया जाए। मानव-तन्त्रिकाओं-कम्प्यूटर-सम्बन्ध पर बहुत शोध चल रहा है सर।”
सर और कुछ नहीं पूछते। उन्हें सभी उत्तरों की सम्भावना की दूरी का अनुमान है। वे मुन्नी के सिर पर हाथ फेरते हैं और केवल एक बात कहते हैं :
“अमर होने की इच्छा अमरता से बड़ी है। जिस दिन हमें जीवन-क्रम में अमरता मिल जाएगी , हम दुर्घटनाओं पर क़ाबू पाने में लगेंगे। मृत्यु का वह स्वरूप जो अचानक घटता है। फिर दुर्घटना दूसरों के लिए गढ़ी जाएँगी और अपनी रोकी जाएँगी।”
“यह सब तो आज भी होता है सर। आदिकाल से। मनुष्य मनुष्य के रक्त का प्यासा रहा है।”
“हाँ , लेकिन तब भविष्य में जाने की बात होगी। वहाँ जाकर मृत्यु को देखा जाएगा , फिर वर्तमान बदला जाएगा। अथवा कई भविष्यों में से एक सबसे सुखद को चुन लिया जाएगा। बुरे भविष्य से हम अच्छे भविष्य में भागने लगेंगे। या फिर किसी अच्छे अतीत की ओर ही चल देंगे।”
“सुख की ओर बढ़ना हर जीव का स्वभाव है, सर।”
“सुख के मूल में चेतना है बेटे। जब चेतना को व्यक्ति जीत लेगा, तो वह सुख के लम्हों की गठरी लेकर सबसे दूर भागेगा। लेकिन तब भी मूल प्रश्न वही रहेंगे कि चेतना और सुख को पाने के लिए मार्ग कौन सा किसने चुना। दिनकर की वह पंक्ति याद है तुम्हें ? स्कूल में थी।”
“कौन सी सर ?”
“जीवन के परम ध्येय सुख को सारा समाज अपनाता है।
देखना यही है , कौन वहाँ तक किस प्रकार से जाता है।”
“कौन देखेगा सर ? न चुन सकने वाले तो देखने को रहेंगे नहीं। चुनने वाले ही देखेंगे। विज्ञान के सहारे जो चेतना और सुख चुनेंगे, वे ही नया इतिहास और साहित्य रचेंगे।”
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पेशे से चिकित्सक (एम.डी.मेडिसिन) डॉ.स्कन्द शुक्ल संवेदनशील कवि और उपन्यासकार भी हैं। इन दिनों वे शरीर से लेकर ब्रह्माण्ड तक की तमाम जटिलताओं के वैज्ञानिक कारणों को सरल हिंदी में समझाने का अभियान चला रहे हैं।