पुण्य प्रसून वाजपेयी
सुषमा स्वराज ना तो नरेन्द्र मोदी की तरह आरएसएस से निकली हैं और ना ही योगी आदित्यनाथ की तरह हिन्दु महासभा से। सुषमा स्वराज ने राजनीति में कदम जयप्रकाश नारायण के कहने पर रखा था और राजनीतिक तौर पर संयोग से पहला केस भी अपने पति स्वराज के साथ मिलकर बड़ौदा डायनामाईट कांड का लड़ा था जो कि जॉर्ज फर्नांडिस पर इमरजेन्सी के वक्त लगाया गया था। करीब पन्द्रह बरस पहले लेखक को दिये एक इंटरव्यू में सुषमा स्वराज ने राजनीति में हो रहे बदलाव को लेकर टिप्पणी की थी- ‘जेपी ने मेरी साडी के पल्लू के छोर में गांठ बांध कर कहा कि राजनीति ईमानदारी से होती है, और तभी मैने मन में गाँठ बांध ली कि इमानदारी नहीं छोडूँगी।’
लेकिन मौजूदा वक्त में जब राजनीति ईमानदारी की पटरी से उतर चुकी है। छल-कपट और जुमले की सियासत तले सत्ता की लगाम थामने की बैचेनी हर दिल में समायी हुई है, तब सुषमा स्वराज का पाँच महीने बाद होने वाले लोकसभा चुनाव को न लड़ने का एलान उनकी इमानदारी को परोसता है या फिर आने वाले वक्त से पहले की आहट को समझने की काबिलियत को दर्शाता है! सवाल कई हो सकते हैं। आखिर छत्तीसगढ़ में जिस दिन वोटिंग हो रही थी उसी दिन सुषमा स्वराज ने चुनाव न लड़ने का एलान क्यों किया? जब मध्यप्रदेश में हफ्ते भर बाद ही वोटिंग होनी ही, तो क्या तब तक सुषमा रुक नहीं सकती थीं? या फिर जिस रास्ते मोदी सत्ता या बीजेपी निकल पड़ी है, उसमें बीजेपी या सरकार के किसी भी कद्दावर नेता की जरुरत किसे है? या उसकी उपयोगिता ही कितनी है? यानी सवाल सिर्फ ये नहीं है कि मोदी सत्ता के दौर में जनता से लेकर नौकशाही और प्रोफेशनल्स से लेकर संवैधानिक संस्थानो तक के भीतर ये सवाल है कि उनकी उपयोगिता क्या है? और इस कैनवास को राजनीतिक तौर पर मथेंगे तो जिस अंदाज में बीजेपी अध्यक्ष चुनावी बिसात बिछाते हैं और जिस अंदाज में प्रधानमंत्री मोदी की राजनीतिक सभायें चुनावी जीत दिला देती हैं, उसमें कार्यकर्ता या राजनीतिक कैडर की भी कितनी उपयोगिता है, ये भी सवाल है!
यानी सिर्फ आडवाणी या जोशी ही नहीं बल्कि सुषमा स्वराज और राजनाथ सरीखे मंत्रियों को भी लग सकता है कि उनकी उपयोगिता है कहां? और ध्यान दें तो जिनका महत्व मोदी सरकार के भीतर है उनमें अरुण जेटली चुनाव जीत नहीं पाते हैं, पीयूष गोयल, धर्मेन्द्र प्रधान, निर्माला सितारमण, राज्यवर्धन राठौर का कौन सा क्षेत्र है जिसे उनकी राजनीतिक जमीन समझा जाए! कैबिनेट मंत्रियों की पूरी कतार है जिनका मोदी के दरबार में तो महत्व है, लेकिन उनसे उनका मंत्रालय ले लिया जाये तो नार्थ-साउथ ब्लॉक में घूमते इन नेताओं के साथ कोई सेल्फी लेने भी ना आये! इस कड़ी में राजनीतिक तौर पर नागपुर से पहचान बनाने वाले नितिन गडकरी कद्दवर जरुर हैं, लेकिन ये भी नागपुर शहर ने देखा है कि 2014 में कैसे मंच पर गडकरी को अनदेखा कर देवेन्द्र फडनवीस को प्रधानमंत्री मोदी तरजीह देते रहे।
ऐसे में कोई भी सोच सकता है कि जब बीजेपी का मतलब अमित शाह-नरेन्द्र मोदी हैं, और सरकार का मतलब नरेन्द्र मोदी-अरुण जेटली हैं तो फिर सुषमा स्वराज चुनाव किसलए लड़ें! फिर जिस विदिशा की चिंता में सुषमा स्वराज ध्यान न देने के बात कर रही हैं, उस विदिशा में अगर वे वाकई विकास का झंडा गाड़ ही देतीं, तो क्या उन्हे इजाजत भी होती कि वह मध्यप्रदेश में जाकर बतायें कि उनका लोकसभा क्षेत्र किसी भी लोकतसभा क्षेत्र से ज्यादा बेहतर हो चला है? ऐसा कहतीं तो बनारस बीच में आ खडा होता! काशी में बहती मां गंगा की निर्मलता-अविरलता से लेकर क्वेटो तक पर सवाल खड़े होते। और होता कुछ नहीं, सिर्फ सुषमा स्वराज ही निशाने पर आ जातीं! डिजिटल इंडिया के दौर में कहें तो सुषमा स्वराज को हिन्दुत्ववादी ट्रोल करने लगते। और झटके में भक्त, मंत्री से ज्यादा ताकतवर कैसे हो जाते है, ये भी देश देख चुका है। सुषमा स्वराज को इसका एहसास है।
इसी कड़ी में यूपी के कद्दावर राजपूत नेता के तौर पर पहचान पाये राजनाथ सिंह भी चुनाव लड़कर क्या कर लेंगे? क्योकि योगी भी राजपूत हैं और मौके बे मौके पर योगी को राजनाथ से ज्यादा तरजीह कैसे किस रुप में दी जाये, जिससे राजनाथ सरीखे कद्दावर नेता की मिट्टी पलीद होती रहे, ये भी कहाँ, किससे छुपा है। 2014 में यूपी की ज्यादातर सीटों पर किसे खड़ा किया जाये, इसमें उस वक्त के बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ की ही चली थी। ये अलग बात है कि मोदी ने हालात को ही कुछ इस तरह पटकनी दी कि राजनाथ सिंह भी खामोश हो गये। लेकिन 2019 का सच तो यही होगा कि राजनाथ ही चुनाव किस सीट से लड़ें, इसे भी मोदी-शाह की जोड़ी तय करेगी। और जो हालात बन रहे हैं उसमें 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के बहुमत से दूर रहने के बावजूद कोई मोदी माइनस बीजेपी की न सोचे, इसलिये टिकट भी मोदी-शाह अपने करीबियो को ही देंगे, जो बीजेपी की हार के बाद भी नारे हर हर मोदी -घर घर शाह के लगाते रहें।
यही वह बारीक लकीर है जिसपर बीजेपी के कद्दावर नेताओ को भी चलना है और बिना पहचान वाले नेताओं को साथ खडा कर पहचान देते हुये सत्ता-पार्टी चलाने वाले नरेन्द्र मोदी-अमित शाह को भी चलना है। क्योंकि अभी जिन पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं उसमें सभी की नजर बीजेपी शासित तीन राज्य राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ पर ही है। अमितशाह की बिसात पर मोदी की चुनावी रैली क्या गुल खिलायेगी ये तो दूर की गोटी है, लेकिन 2014 से 2018 के हालात कितने बदल चुके हैं, ये चुनाव प्रचार को देखने -सुनने आती भीड की प्रतिक्रिया से समझा जा सकता है। 2014 में मोदी के कंधे पर कोई सियासी बोझ नहीं था। लेकिन 2018 में हालात बदल गये हैं। किसान का कर्ज -बेरोजगारी-नोटबंदी- राफेल का बोझ उठाये प्रधानमंत्री जहाँ भी जाते हैं, वहा 15 बरस से सत्ता में रहे रमन सिंह या तीन पारी खेल चुके शिवराजसिंह चौहान के कामकाज छोटे पड जाते हैं। यानी राज्य की एंटी इन्कंबेसी पर प्रधानमंत्री मोदी की एंटीइन्कंबेसी भारी पड़ रही है। अगर इस तिकडी राज्य को बीजेपी गंवा देती है तो फिर कल्पना कीजिये कि 12 दिसबंर के बाद क्या होगा? सवाल काँग्रेस का नहीं, सवाल मोदी और अमित शाह की सत्ता का है। वहाँ क्या होगा? बीजेपी के भीतर क्या होगा? सत्ता तले संघ के विस्तार की आगोश में खोया संघ क्या करवट लेगा? ये सारे सवाल हैं लेकिन 12 दिसबंर के बाद बीजेपी के भीतर की कोई भी हलचल इंतजार कर कदम उठाने वाली मानी जायेगी। यानी तब राजनाथ हों या जोशी या आडवाणी, कदम कुछ भी उठायें या सलीके से हालात को समझायें मगर तब हर किसी को याद सुषमा स्वराज की ही आयेगी।
क्योंकि ईमानदार राजनीति के आगे छल-कपट या जुमले का डर ज्यादा दिन नहीं टिकता!
लेखक मशहूर टीवी पत्रकार हैं।