पुण्य प्रसून वाजपेयी
2019 की दौड में नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी अगुवाई कर रहे है तो अगुवाई करते नेता के पीछे खड़े क्षत्रपों की एक लंबी फौज है जो अपने अपने दायरे में खुद की राजनीतिक सौदेबाजी के दायरे को बढ़ा रहे हैं। इस कड़ी में ममता, मायावती, अखिलेश, चन्द्रबाबू, चन्द्रशेखर राव, कुमारस्वामी, तेजस्वी, हेमतं सोरेन, नवीन पटनायक सरीखे क्षत्रप हैं। लेकिन जैसे जैसे वक्त गुजर रहा है वैसे-वैसे तस्वीर साफ होती जा रही है कि राजनीतिक बिसात बनेगी कैसी।
ध्यान दें तो नरेन्द्र मोदी की थ्योरी राष्ट्रवाद को लेकर रही है। इसलिए वह चार मुद्दों को उठा रहे हैं। पहला विदेशो में मोदी की वजह से भारत का डंका बज रहा है। दूसरा, डोकलाम में चीन को पहली बार मोदी की कूटनीति ने ही आईना दिखा दिया। तीसरा, सर्जिकल स्ट्राइक के जरिये पाकिस्तान को धूल चटा दी। और चौथा हिन्दुत्व के रास्ते सत्ता चल रही है। और इसके लिए वह नार्थइस्ट में बांग्लादेशियों को खदेड़ने के लिये कानून बनाने से भी नहीं चूक रही है।
उधर, राहुल गांधी की थ्योरी खुद को राष्ट्रवादी बताते हुए मोदी के राष्ट्रवाद की थ्योरी तले इकोनॉमी के अंधेरे को उभार रही है। राहुल गांधी का कहना है कि राष्ट्रवादी तो हम भी है। और जहाँ तक हिन्दुत्व की बात है तो जनेउधारी तो हम भी है। लेकिन दुनिया भर में डंका पीटने के बावजूद मोदी का राष्ट्रवाद गरीबो के लिए कुछ नही कर रहा है। ये सिर्फ कारपोरेट हित साध रहा है। यानी 2019 की तरफ बढ़ते कदम मोदी की व्यूह रचना में राहुल की सेंध को ही इस तरह जगह दे रहे है जैसे एक वक्त की कांग्रेस की चादर अब बीजेपी ने ओढ ली है और गरीब गुरबो का जिक्र कर कांग्रेस में समाजवादी-वामपंथी सोच विकसित हो गई है।
यानी 2019 की बनती तस्वीर में क्षत्रपो के सामने संकट पाररंपरिक जाति और धर्म के मुद्दे के हाशिये पर जाने से उभर रहा है। यानी आर्थव्यवस्था को लेकर जिस तरह कांग्रेस सक्रिय हो चली है और राममंदिर को जिस तरह मोदी के साथ संघ परिवार ने भी चुनाव तक टाल दिया है, उसमें जातीय समीकरण के आधार पर राजनीति करने वाले क्षत्रपों के सामने ये संकट है कि उनका वोट बैंक भी उस विकास को खोज रहा है जो उनके पेट और परिवार से जा जुडा है। इससे क्षत्रपो की सौदेबाजी भी खासी कमजोर हो चली है। यानी इस तस्वीर का पहला पाठ तो यही है बीजेपी क्षत्रपों को जीने नहीं देगी और काग्रेस क्षत्रपो को अपनी शर्तो पर समझौता कराने की दिशा में ले जाएगी। राहुल प्रियका की जोड़ी कांग्रेस में आक्सीजन भर रही है या फिर क्षत्रपों के सामने जीवन मरण का संकट खडा कर रही है। ये सवाल धीरे-धीरे इसलिए बड़ा होता जा रहा है क्योंकि कांग्रेस के कदम एकला चलो या फिर लोकसभा में ज्यादा से ज्यादा सीटों पर चुनाव लडकर अपनी संख्या को बढाने के फार्मूले की तरफ बढ चुके हैं।
ये सब कैसे हो रहा है ये देखना बेहद दिलचस्प है। क्योकि राहुल और प्रियंका एक साथ जब चुनाव प्रचार के लिये उतरेगें तो इसका मतलब साफ है कि यूपी बिहार झारखंड बंगाल, आध्र प्रदेश और उडीसा को लेकर साफ थेयोरी होगी कि क्षत्रपों को राज्यो में अगुवाई की बात कहकर लोकसभा चुनाव में ज्यादा से द्यादा सीट खुद लड़े। और मोदी विरोध की थ्योरी के सामानातंर पं बंगाल, आध्रप्रेदश और उड़ीसा में किसी भी क्षत्रप के साथ समझौता ना करे। इस थ्योरी को सिलसिलेवार ढंग से समझें। यूपी में एक तरफ मायावती को लेकर मुस्लिम समेत जाटव छोड बाकि दलित जातियो में ये सवाल अब भी है कि चुनाव के बाद मायावती सत्ता के लिये कहीं बीजेपी के साथ तो खड़ी नहीं हो जाएंगी। तो दूसरी तरफ अखिलेश के सामने यादव वोट बैक के अलावे ओबीसी जातियो के बिखराव का संकट भी है और मायावती के साथ गठबंधन के बावजूद दलित वोट का ट्रासंफर न होने की स्थिति भी है। फिर कांग्रेस को लाभ सीधा है। पहला, -कांग्रेस आर्थिक आधार पर अपने पारंपरिक वोट बैक को जोड़ने उतरेगी। तो दूसरा, महिला, युवा और अगड़ी जातियों के वोट को प्रियंका के आसरे जोड़ेगी। तो यूपी से सटे बिहार झरखंड में काग्रेस अपनी सौदेबाजी के दायरे को बढा रही है।
इसलिए बिहार में तेजस्वी हों या झरखंड में सोरेन। दोनों के सामने काग्रेस का प्रस्ताव साफ है -तेजस्वी-सोरन सीएम बनें लेकिन लोकसभा की सीट ज्यादा कांग्रेस के पास होगी। ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने का फार्मूला ही पं बंगाल और आंध्रप्रदेश में कांग्रेस को गटबंधन के बोझ से मुक्त कर चुका है। इसलिए कांग्रेस ने बंगाल में ममता बनार्जी के साथ तो आध्र में चन्द्रबाबू के साथ मिलकर चुनाव न लडने का फैसला किया है। यानी कांग्रेस इस हकीकत को बाखूबी समझ रही है कि लोकसभा चुनाव में जिसके पास ज्यादा सीट होगी उसकी दावेदारी ही चुनाव के बाद पीएम के उम्मीदवार के तौर पर होगी। इसके लिये जरुरी है अपने बूते चुनाव लड़ना। तो ऐसे में प्रियंका की छवि कैसे नरेन्द्र मोदी के ‘औरा’ को खत्म करेगी, इसपर कांग्रेस का ध्यान है । क्योकि 2014 में नरेन्द्र मोदी जिस हंगामे और जिस तामझाम के साथ आये, ये कोई कैसे भूल सकता है । और तब प्रचार में बीजेपी कही नहीं थी सिर्फ मोदी थे। लेकिन इसके उलट प्रियंका गांधी की इंट्री बेहद खामोशी से हुई। कांग्रेस मुख्यालय में नेम प्लेट टांगने से लेकर कार्यकर्ताओं से बिना हंगामे मिलने के तौर तरीके ने ये तो साफ जतला दिया कि प्रिंयका को किसी प्रचार की जरुरत नहीं है। और कांग्रेस का मतलब ही नेहरु गांधी परिवार है।
लेकिन बीजेपी यहाँ भी अपने ही कठघरे में फंस गई। जब उसने खामोश प्रियंका को खानदान और बिना हंगामे के राजनीति तले सिर्फ परिवार के अक्स में देखना शुरु किया। यानी प्रिंयका की छवि बीजेपी ने ही अपनी आलोचना से इतनी रहस्मयी और जादुई बना दिया कि प्रियंका के बारे में जानने के लिये वोटरो में भी उत्सुकता जाग गई। और कांग्रेस ने प्रियंका की छवि को मुद्दो को आसरे जिस तरह उभारने की कोशिश शुरु की है वह दिलचस्प है। वह ना सिर्फ प्रियंका को इंदिरा गांधी से जोड़ रही है बल्कि इंदिरा के दौर में जिस तरह गरीबी हटाओ का नारा बुलंद हुआ उसी तरह मोदी के कारपोरेट प्रेम तले किसान मजदूर का सवाल उठा रही है। इससे, चाहे अनचाहे 2019 का चुनाव अमीर बनाम गरीब की तरफ बढ़ता जा रहा है।
तो सवाल तीन हैं। पहला, क्या प्रियका को सिर्फ यूपी तक सीमित रखा जायेगा? दूसरा, क्या प्रिंयका को यूपी के सीएम के तौर पर प्रजोक्ट भी किया जायेगा? तीसरा, क्या प्रिंयका की छवि राहुल के लिये मुश्किल पैदा करेगी? पर इन सवालो का जवाब भी कांग्रेस के पास है। ध्यान से परखें तो प्रिंयका गांधी को चुनावी मैदान में तब उतारा गया जब राहुल गांधी की छवि पप्पू से इतर एक परिपक्व नेता के तौर पर बनने लगी। फिर राहुल गांधी ने अपनी राजनीति से मोदी को कारपोरेट के साथ खडा करने में राजनीतिक सफलता पायी। और तीसरा, किसान और बेरजगारी के सवाल को जिस तरह राहुल ने मथा उसका ठीकरा मोदी सत्ता पर फूटा। और इसी अक्स में प्रियंका की राजनीतिक इन्ट्री ही राहुल गांधी ने इस स्ट्रेटजी के साथ की कि इंदिरा की छवि में गरीबों के सवाल को साथ लेकर अगर प्रियंका प्रचार मैदान में का कूदेंगी तो मोदी औरा खत्म होगा।