सरकार जो भी बने, कर्नाटक प्रकरण से निकला संवैधानिक सबक याद रखा जाना चाहिए



मेराज अहमद 

विधिवेत्ता श्री सोली सोराबजी ने ठीक ही कहा है कि कर्नाटक के राज्यपाल द्वारा बीएस येदुरप्पा को पंद्रह दिन का समय देना अधिक जान पड़ रहा है. इससे पहले क्या कभी ऐसी पार्टी, जिसको पूर्ण बहुमत नहीं मिला हो, इतना समय दिया गया है? इस सम्बन्ध में इतना अधिक समय देने का अर्थ क्या है? क्या यह कानूनी रूप से सम्मत था?

गवर्नर वाजूभाई वाला ने अपने पत्र, दिनांक 16.05.2018, में लिखा, ‘मैं आपको निर्देशित करता हूँ कि आप (श्री येदुरप्पा) हाउस के पटल पर ‘वोट ऑफ़ कॉन्फिडेंस’ साबित करेंगे और समय सीमा होगी पंद्रह दिन’. इसके जवाब में कांग्रेस पार्टी तथा जेडी(एस) ने माननीय सर्वोच्च न्यायालय से गुहार लगाई कि गवर्नर महोदय का आदेश न सिर्फ असंवैधानिक है बल्कि गैर-कानूनी भी है और संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है. कांग्रेस-जेडी (एस) ने यह भी प्रार्थना की कि हमारे गठबंधन को सरकार बनाने का अवसर दिया जाए. हालाँकि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसा करने से मना कर दिया. आखिरकार येदुरप्पा शपथ लेकर ढाई दिन के लिए कर्नाटक के मुख्यमंत्री बन ही गए.

माननीय सर्वोच्च न्यायालय का शुक्रवार को दिया गया फ़ैसला स्वागतयोग्य कहा जा सकता है. सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अधिक समय देने का कोई अर्थ नहीं है और ‘फ्लोर-टेस्ट’ जितनी जल्दी संभव हो उतना ही अच्छा है. इसके लिए शनिवार का समय दिया गया.

इस सम्बन्ध में कुछ कानूनी पहलुओं पर नज़र डालना उचित होगा. प्रोफेसर फैज़ान मुस्तफा कहते हैं कि संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था इंगित नहीं की गयी है जो यह स्पष्ट करे कि ‘हंग-असेंबली’ होने की स्थिति में स्पष्ट रूप से क्या होना चाहिए. हाँ, यह अवश्य है कि इस गवर्नर अपने विवेक का उपयोग करते हुए फैसला ले सकता है कि वो किसे बुलाये. लेकिन यहाँ यह भी समझना ज़रूरी है कि गवर्नर की शक्ति असीमित नहीं है. प्रोफेसर फैज़ान मुस्तफा आगे कहते हैं कि अगर गठबंधन बनाने वाली पार्टियाँ बहुमत को प्राप्त कर लेती हैं तो ऐसी स्थिति में गवर्नर का कोई विवेक नहीं होगा, और उन्हें ऐसे गठबंधन को पहले अवसर देना होगा.

संविधान में स्पष्ट व्यवस्था न होने के कारण ये खेल तो सिर्फ गणित का ही जान पड़ता है. लेकिन इस गणित इतना अति-सरलीकरण करना भी उचित नहीं है. स्पस्ट नियमों, धाराओं, संवैधानिक और क़ानूनी रिवाजों कि अनुपस्थिति में ऐसी स्थितियों को राजनीतिक तथा संवैधानिक नैतिकता के पैमाने से भी गुज़रना होगा. यह भी ध्यान में रखना आवश्यक है कि राजनीतिक प्रश्न कार्यपालिका के माध्यम से ही तय किये जाएँ ताकि न्यायालय का हस्तक्षेप कम से कम हो सके, हालाँकि खत्म तो कतई नहीं किया जा सकता.

वर्ष 2017 गोवा चुनाव के मामले में कांग्रेस के एमएलए चंद्रकांत कवलेकर ने 13 मार्च को सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका डाल कर दावा किया कि बीजेपी के द्वारा सीएम का पद प्राप्त करना क़ानूनी दृष्टि से उचित नहीं है. तीन जजों की बेंच ने याचिका खारिज करते हुए कहा कि ‘समय देने का कोई अर्थ नहीं है’. यह भी स्पष्ट किया गया कि: यदि कोई राजनीतिक दल बहुमत प्राप्त नहीं करता तो यह गवर्नर का कर्तव्य है कि वे यह देखें कि (स्थायी) सरकार कौन बना सकता है; और यदि कोई राजनीतिक दल सामने न आये (यहाँ इसका अर्थ गठबंधन से लिया जा सकता है) तो सबसे ज्यादा सीट जीतने वाली पार्टी को आमंत्रित किया जाये. कुल मिलाकर निष्कर्ष यही निकलता है कि ऐसी स्थिति में ‘फ्लोर-टेस्ट’ ही सर्वोत्तम उपाय है और इसमें देर कतई नहीं किया जाना चाहिए.

अरुण जेटली ने गठबंधन (चुनाव के बाद का) के पक्ष में 2017 में कई दलीलें दी थीं. गठबंधन सरकार के पक्ष में कई उदाहरण हैं, जैसे गोवा (2017), झारखण्ड (2005), जम्मू-कश्मीर (2002), दिल्ली (2017) इत्यादि. नियमों की एकरूपता के अभाव में यह उदाहरण स्पष्ट रूप से ‘सुविधाजनक’ दलीलें ही जान पड़ती हैं. यहाँ यह भी याद रखना आवश्यक है कि मद्रास (1952) में पहली कांग्रेस कि सरकार गठबंधन के आधार पर ही बनी थी. यह वो समय था जब संविधान नया-नया बना ही था.

यहाँ यह समझना अब ज़रूरी हो गया है कि आखिर गवर्नर महोदय की भूमिका पर स्पष्टता क्या है? गोवा, मणिपुर और मेघालय के केस में कांग्रेस ने अधिकतम सीट अर्जित कर गवर्नर महोदय में सामने सरकार बनाने का दावा पेश किया था लेकिन बीजीपी ‘पोस्ट-पोल अलायन्स’ बनाकर सरकार बनाने में सफल हुई थी. आदर्श रूप में गवर्नर महोदय को हर राजनीतिक दल से पूछना चाहिए कि क्या वे सरकार बनाने का दावा कर रहे हैं. अब यहाँ कोई विशेष नियम नहीं है कि अधिकतम सीट लाने वाली लेकिन बहुमत से दूर रह जाने वाली पार्टी पहले दावा ठोंकेगी, या चुनाव के बाद का गठबंधन पहले गवर्नर के सामने अपना पक्ष रखेंगे. यह गवर्नर के विवेकाधिकार पर निर्भर करता है. ‘नियमों’ में एकरूपता या कह सकते हैं कि मानक आचार के अभाव में गवर्नर को असीमित शक्ति होगी, यह भी उचित नहीं है.

कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस का वोट शेयर लगभग 38% है जो कि बीजेपी के वोट शेयर से 1.2% अधिक रहा है. जेडी (एस) का वोट शेयर 18.3% रहा. चूँकि हम फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट सिस्टम मानते हैं इसलिए इसका कोई विशेष अर्थ नहीं है. अधिकतम सीट जीतकर बहुमत प्राप्त करने वाली पार्टी ही सरकार बनाने के लिए योग्य है, हालाँकि ‘हंग-असेंबली’ होने की स्थिति में यदि वोट-प्रतिशत पर भी ध्यान दिया जाये तो इसमें हर्ज क्या है? इस पर विचार किया जाना चाहिए.

हंग-असेंबली की स्थिति से निपटने के लिए दो आयोग महत्तवपूर्ण हैं- सरकारिया आयोग और पुंछी आयोग. सरकारिया कमीशन ने अपनी रिपोर्ट वर्ष 1988 में जमा की जिस पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने 2005 में रामेश्वर प्रसाद बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया के केस में मुहर लगा दी. सरकारिया आयोग का para 4.11.04 स्पष्ट करता है कि यदि कोई एक राजनीतिक दल पूर्ण बहुमत को प्राप्त नहीं करता तो ऐसी स्थिति में गवर्नर के सामने विकल्प ‘आर्डर ऑफ़ प्रीफेरेंस’ के आधार पर इस प्रकार होंगे:

  • चुनाव के पहले बने गठबंधन को सरकार बनाने का न्योता दिया जाये.
  • अधिकतम सीट प्राप्त करने वाले दल को बुलाया जाये जो कि ‘स्वतंत्र’ एमएलए तथा ‘बाहरी’ सहयोग की सहायता से सरकार बनाये.
  • चुनाव के बाद बने गठबंधन को मौका दिया जाये.
  • गठबंधन में आने वाली राजनीतिक पार्टियों को सरकार बनाने का न्योता दिया जाये जिसमे कुछ दल ‘बाहर’ से सहयोग दें.

ज़ाहिर है कि प्रथम दो विकल्प कर्नाटक चुनाव में उपयुक्त नहीं बैठते. ऐसी स्थिति में तीसरा विकल्प ही उचित विकल्प जान पड़ता है.

सरकारिया कमीशन ने गवर्नर की नियुक्ति के विषय में कहा है कि गवर्नर लोक जीवन में प्रतिष्ठित और प्रख्यात व्यक्ति रहा हो और राज्य से बाहर का व्यक्ति हो. गवर्नर प्रभावी रूप से किसी राजनीतिक दल से सम्बन्ध न रखता हो या राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय न रहा हो. इसके अतिरिक्त वह सत्तारूढ़ दल से सम्बन्ध न रखता हो.

‘हंग-असेंबली’ के केस में चूँकि संविधान में कोई निश्चित और विस्तृत मार्गदर्शन नहीं है तो ऐसी स्थिति में गवर्नर क्या करें? ऐसे में सरकारिया कमीशन की सिफारिशें और संवैधानिक नैतिकता ही मार्गदर्शन हैं. कर्नाटक ने हमें एक अवसर दिया है कि हम इस बहस को एक नयी दिशा में ले जाएँ. चुनावी गुणा-गणित से ऊपर उठकर ठोस नियम बनायें चाहे इसके लिए संविधान में संशोधन ही क्यों न करना पड़े. लोकतंत्र में भरोसा बना रहे इसलिए यह अति-आवश्यक है.


लेखक लखनऊ में विधि प्रवक्ता हैं 


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