अगर काँग्रेस पर लगे हाईकमान के ढक्कन को खोल दिया जाये तो क्या होगा? ये सवाल करीब दस बरस पहले राहुल गाँधी ने ही सामाजिक-राजनीतिक विश्लेषक से पूछा था। और तब उस विश्लेषक महोदय ने अपने मित्रों से बातचीत में इसका जिक्र करते हुये कहा कि राहुल गाँधी राजनीति में रिवोल्यूशनरी परिवर्तन लाना चाहते हैं। लेकिन अगर अब काँग्रेस के मुख्यमँत्री के चयन को लेकर राहुल गाँधी के तरीके को समझें तो लगता यही है कि कांग्रेस की बोतल पर लगे हाईकमान के ढक्कन को उन्होने खोल दिया है।
चूँकि ये पहली बार हो रहा है तो न पारंपरिक काँग्रेस इसे पचा पा रही है, न ही मीडिया के ये गले उतर रहा है। और बार-बार जिस तरह मोदी शाह की युगलबंदी ने इंदिरा के दौर की काँग्रेस के तौर-तरीकों को ज्यादा कठोर तरीके सेअपना लिया है, उसमें दूसरे राजनीतिक दल भी इस हकीकत को समझ नहीं पा रहे हैं कि राहुल की काँग्रेस बदलाव की राह पर है। ये रास्ता काँग्रेस की जरुरत इसलिये हो चला है क्योंकि काँग्रेस मौजूदा वक्त में सबसे कमजोर हैं। पारंपरिक वोट बैक खिसक चुके हैं। पुराने बुजुर्ग व अनुभवी काँग्रेसियो के सामानातंर युवा काँग्रेस की एक नई पीढ़ी तैयार हो चुकी है। राज्य और केन्द्र तक के संगठन को उस धागे में पिरोना है जहा काँग्रेस का मंच सबके लिये खुल जाये। यानी सिर्फ किसानों के बीच काम करने वालों में से कोई नेता निकलता है तो उसके लिये भी काँग्रेस में जगह हो और दलित या आदिवासियों के बीच से कोई निकलता है तो उसके लिये भी अहम जगह हो। और तो और बीजेपी में भी जब किसी जनाधार वाले नेता को ये लगेगा कि अमित शाह की तानाशाही तो उसके जनाधार को ही खत्म कर उसे बौना कर देगी तो उसके लिये भी काँग्रेस में आना आसान हो जाये।
महत्वपूर्ण ये है कि इन सारी संभावनाओ को अपनाना काँग्रेस की मजबूरी भी है और जरुरत भी। क्योंकि राहुल गाँधी इस हकीकत को भी समझ रहे हैं कि काँग्रेस को खत्म करने के लिये मोदी-शाह उसी काँग्रेसी रास्ते पर चले जहाँ निर्णय हाईकमान के हाथ में होता है और हाईकमान की बिसात उनके अपने कारिन्दे नेताओं के जरिये बिछायी गई होती है। तो राहुल ने हाईकमान के ढक्कन को काँग्रेस पर ये कहकर उठा दिया कि सीएम वही होगा जिसे कार्यकत्ता और विधायक पंसद करेगे।
और ध्यान दें तो “शक्ति एप” के जरिये जब राहुलगांधी ने विधायकों-कार्यकार्ताओं के पास ये संदेश भेजा कि वह किसे मुख्यमंत्री के तौर पर पंसद करते हैं तो शुरुआत में मीडिया ने इस पर ठहाके ही लगाये। राजनीतिक विश्लेषक हों या दूसरे दल, हर किसी के लिये ये एक मजाक हो गया कि लाखों कार्यकर्ताओं के जवाब के बाद कोई कैसे मुख्यमंत्री का चयन करेगा। दरअसल डाटा का खेल यही है। डाटा हमेशा ब्लैक एंड व्हाइट में होता है। यानी उस पर शक करने की गुंजाइश सिर्फ इतनी भर होती है कि जवाब भेजने वाले को किसी ने प्रभावित कर दिया हो। लेकिन एक बार डाटा आ गया तो मुख्यमंत्री पद के अनेक दावेदारों के सामने उस डाटा को रखकर पूछा तो जा ही सकता है कि उसकी लोकप्रियता का पैमाना डाटा के अनुकुल है या प्रतिकुल।मध्यप्रदेश में कमलनाथ को भी मुख्यमंत्री पद के लिये चुने जाने की जरुरत होनी नहीं चाहिये थी। हर कोई जानता है कि कमलनाथ ने चुनाव में पैसा भी लगाया और उनके पीछे दिग्विजिय सिंह भी खड़े थे। यानी सिंधिया के सीएम बनने का सवाल ही नहीं था। लेकिन” शक्ति एप” के जरिये जमा किया गया डाटा जब सिंधिया को दिखाया गया तो सिंधिया के पास भी दावे के लिये कोई तर्क था नहीं।
दरअसल यही स्थिति राजस्थान की है। पहली नजर में लग सकताहै कि बीते चार बरस से जिस तरह सचिन पायलट राजस्थान में काँग्रेस को खड़ा करने के लिये जान डाल रहे थे उस वक्त अशोक गहलोत केन्द्र की राजनीति में सक्रिय थे। याद कीजिये गुजरात-कर्नाटक में गहलोत की सक्रियता। लेकिन यहाँ फिर सवाल डाटा का है। और पायलट के सामने गहलोत आ खड़े हो गये तो उसकी सबसे बडी वजह गहलोत की अपनी लोकप्रियता है जो उन्होने मुख्यमंत्री रहते बनायी (माना जाता है कि गहलोत के वक्त बीजेपी नेताओं के भी काम हो जाते थे और वसुंधरा के दौर में बीजेपी नेताओ को भी दुष्यतं के दरबार में चढ़ावा देना पडता था)। इस छवि को सचिन का राजनीतिक श्रम भी तोड़ नहीं पाया।
कमोवेश छत्तीसगढ़ में भी यही हुआ। छत्तीसगढ़ की राजनीतिको समझने वाले कट्टर युवा काँग्रेसी भी मानते है कि टी.एस सिंहदेव या ताम्रध्वज साहू के सी.एम होने का मतलब बीजेपी की बी टीम सत्ता में है। भूपेश बघेल ही एकमात्र नेता हैं जो रमन सिंह की सत्ता या राज्य में अडानी के खनन लूट पर पहले भी बोलते थे और सीएम बनने के बाद भी कार्रवाई कर सकते हैं। फिर सवाल काँग्रेस के उस ढक्कन को खोलने का भी है जिससे कार्यकर्ता को ये ना लगे कि हाईकमान के निर्देश पर पैराशूट सीएम बैठा दिया गया है। जाहिर है इसके खतरे भी हैं और भविष्य की राजनीति में सत्ता तक ना पहुंच पाने का संकट भी है। पारंपरिक काँग्रेसियो के लिये ये झटका है लेकिन राहुल गांधी की राजनीति को समझने वाले पहली बार ये भी समझ रहे हैं कि काँग्रेस को आने वाले पचास वर्षों तक अपने पैरो पर खड़ा होना है या क्षत्रप या दूसरे राजनीतिकदलो के आसरे चलना है।
फिर राहुल गांधी के पास गँवाने के लिये भी कुछ नहीं है (कमजोर व थकी हुई काँग्रेस के वक्त राहुल गांधी अध्य़क्ष बने) लेकिन पाने के लिये काँग्रेसके स्वर्णिम अतीत को काँग्रेस के भविष्य में तब्दील करना है। इसके लिये सिर्फ काँग्रेसी शब्द से काम नहीं चलेगा। बल्कि बहुमुखी भारत के अलग-अलग मुद्दों को काँग्रेस की छतरी तले कैसे समेट कर समाधान की दिशा दिखायी जा सकती है, अब सवाल उसका है। इसलिये ध्यान दें तो तीन राज्यों में जीत के बाद किसानों की कर्ज-माफी को किसानों की खुशहाली के रास्ते को बेहद छोटा सा कदम बताते हुये राहुल ने किसान के संकट के बडे कैनवास को समझने की जरुरत बतायी। यानी इकोनॉमिक मॉडल भी कैसे बदलेगा, और हर तबके के लिये बराबरी वाली नीतियाँ कैसे लागू हों, ये सवाल तो है।
यानी तीन राज्यों की जीत के बाद तीनों राज्य के मुख्यमंत्री अगर सिर्फ उसे चुन लिया जाये जो 2019 के लोकसभा चुनाव में ज्यादा से ज्यादा वोट दिलाने का दावा करे तो अगला सवाल ये भी होगा कि दावा तो कई नेता कर सकते हैं। राहुल की काँग्रेस उस राजनीतिक डर से मुक्ति चाहती है जहाँ सत्ता न मिलने पर कोई नेता पार्टी तोड़ बीजेपी या अन्य किसी क्षत्रप से जा मिले और सीएम बन जाये। राहुल गाँधी धीरे-धीरे उस काँग्रेस को मथ रहे हैं जो एक ऐसा खुला मंच हो जहाँ कोई भी आकर काम करे और लोकप्रियता के अंदाज में कोई भी पद ले ले।
हां, इस तमाम विश्लेषण का आखरी सच यही है कि किसी कम्युनिस्ट-सोशलिस्ट पार्टी के महासचिव की तर्ज पर राहुल गांधी काँग्रेस के अध्यक्ष हैं जिन्हे हटाया नहीं जा सकता। काँग्रेस का यह सच भी है कि गांधी-नेहरु परिवार के ही ईर्द-गिर्द काँग्रेस खड़ी है। लेकिन राहुल गांधी ने काँग्रेस पर लगे हाईकमान के ढकक्न को तो खोल ही दिया है।
लेखक मशहूर टीवी पत्रकार हैं।