यह सबसे पहले यूआर अनंतमूर्ति ने कहा था कि 2014 में अगर नरेंद्र मोदी सत्ता में आ गए तो वे देश छोड़ देंगे. इसके बाद यूआर अनंतमूर्ति की बहुत आलोचना हुई. यह भी कहा गया कि वे देश छोड़ने की बात क्यों कर रहे हैं. बाद में अनंतमूर्ति ने माना कि उनका वक्तव्य किंचित भावुकता में दिया गया था और देश छोड़ने की कोई बात नहीं है. लेकिन इसके बाद उन पर शाब्दिक हमलों की झड़ी सी लग गई. उनको भी पाकिस्तान जाने की सलाह दी गई. कहते हैं, नमो ब्रिगेड नाम के किसी उद्धत संगठन ने 2014 में मोदी की जीत के बाद उनके लिए पाकिस्तान के टिकट ख़रीदने का एलान भी किया था. सिर्फ इत्तिफ़ाक मानना चाहिए कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व के चंद महीने बाद उसी साल अनंतमूर्ति दुनिया छोड़कर चल दिए. हालांकि बहुत संभव है कि अपने जीवन काल के अंतिम दिनों में अपने ऊपर हो रहे हमलों का भी मानसिक दबाव भी उन पर रहा हो जिसकी क़ीमत उनके जिस्म ने चुकाई. तो जाने-अनजाने हमने अपने एक बड़े लेखक को सांप्रदायिक हमले में खो दिया.
लेकिन शायद उनके लिए अच्छा ही हुआ. नहीं तो वे आज कुछ अधिक मायूसी के साथ देख रहे होते कि लेखकों-कलाकारों और अपने समय के बौद्धिकों की वैध चिंताओं का यह समाज किस उग्रता से प्रत्युत्तर देने लगा है. जिस भारत में अनंतमूर्ति परंपरा के नाम पर थोपी जा रही जड़ता को प्रश्नांकित करते हुए और भाषिक-सांस्कृतिक बहुलता की वकालत करते हुए एक बड़े लेखक बने, वह धीरे-धीरे हर प्रश्न को ख़ारिज करने पर तुला है, हर चिंता को साज़िश की तरह देखने का आदी होता जा रहा है. यह समाज में कविता, कला और करुणा की घटती हुई जगह का भी नतीजा है.
अनंतमूर्ति के बाद यह आमिर ख़ान ने कहा था कि देश का बदलता माहौल देख उन्हें डर लगता है. लेकिन आमिर खान ने बस इतना ही नहीं कहा था. उन्होंने भारत की बहुलता और सहिष्णुता पर अगाध भरोसा जताते हुए बदलते माहौल को लेकर अपनी आशंका जताई थी. जिस कार्यक्रम में आमिर ने यह कहा, उसमें केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली भी मौजूद थे. लेकिन उन्होंने बड़ी चालाकी से कहा कि किसी को माहौल समझते हुए बात करनी चाहिए.
आमिर के बाद देश के उपराष्ट्रपति रहे हामिद अंसारी को भी लोगों ने नहीं बख्शा. बार-बार उनके अलग-अलग व्यवहार को राष्ट्रविरोधी साबित करने की कोशिश हुई. वे सारी कोशिशें निराधार निकलीं. बाद में जब हामिद अंसारी बहुत शालीन लहजे में इस बढ़ती असहिष्णुता की ओर इशारा किया तो उन पर भी हमले शुरू हो गए.
नसीरुद्दीन शाह का बयान लेकिन इन दोनों से अलग है. नसीर को डर नहीं लगता. उन्हें गुस्सा आता है. उन्होंने साफ़ कहा है कि वे देश छोड़ने वाले नहीं हैं. जाहिर है, वे इस देश को अपना मानते हैं. लेकिन क्या हम धीरे-धीरे एक देश के भीतर ही एक ऐसा देश बना रहे हैं जो नसीर को अपना नहीं मानता? यह शक इसलिए होता है कि किसी ने उनको धीरज से सुनने की जरूरत महसूस नहीं की. नफरत और कट्टरता की खाद पर पले शिवसेना जैसे संगठन तक उनको सीख देने लगे कि उन्हें अपने बच्चों को हिंदुस्तानी बनाना चाहिए. जबकि नसीर ने यही बात कही कि वे अपने बच्चों को हिंदुस्तानी बना रहे हैं, कल को जब उनसे उनका मजहब पूछा जाएगा तो वे क्या जवाब देंगे.
नसीर को जैसे याद दिला दिया गया कि वे मुसलमान हैं और उनको अपना डर या गुस्सा जो भी हो, रखने का हक़ नहीं है. वे रखेंगे तो किसी के एजेंट की तरह ही रखेंगे. मामला यहीं तक सीमित नहीं रहा. फिर नसीर के आलोचकों को पुराने सारे नाम याद आने लगे और फिर पाकिस्तान जाने की नसीहतें दुहराई जाने लगीं. अनंतमूर्ति ने देश छोड़ने की बात कही थी, पाकिस्तान जाने की नहीं. बहुत सारे लोग देश छोड़ते हैं- वे यहां पढ़ाई करके दूसरे देशों में बड़ी नौकरियों में चले जाते हैं- कहते हैं कि भारत में उनके लिए मौके नहीं हैं. उनके बीच मोदी भाषण करके आते हैं. लेकिन अनंतमूर्ति के संदर्भ में देश छोड़ने का मतलब पाकिस्तान जाना क्यों हो गया? अनंतमूर्ति तो फिर भी वैचारिक दुश्मन थे, पराये नहीं थे. लेकिन नसीर जैसे लोग तो वाकई वे लोग हैं जिनके लिए पाकिस्तान बनाया गया था- यह धारणा जैसे हाल के वर्षों में इतनी बद्धमूल होती चली गई है कि हम अपनी भारतीयता को, अपनी राष्ट्रीयता को, अपने राष्ट्रीय चरित्र को बिल्कुल पाकिस्तान के संदर्भ में परिभाषित करने लगे हैं.
बल्कि पाकिस्तान के इस संदर्भ से बन रहा हिंदुस्तान कुछ-कुछ पाकिस्तान जैसा होता जा रहा है, इसके सबूत बढ़ रहे हैं. पिछले कुछ वर्षों में हर सरकार विरोधी व्यक्ति या विचार को देशद्रोही बताने में लगी विचारधारा लगभग बर्बर ढंग से अल्पसंख्यकों के दमन का उत्सव मनाती नज़र आती है- जो उत्सव नहीं मनाते, वे भी उसे सही ठहराने की दलीलें खोजते दिखाई पड़ते हैं. राजस्थान में अफ़राज़ुल को मार कर उसका वीडियो बनाने वाले शंभुनाथ रैगर के लिए चंदा जुटाना, बुलंदशहर की हिंसा के लिए पकड़े गए लोगों के लिए मुफ़्त वकील मुहैया कराना और गोरक्षा के आरोपियों को माला पहनाना जैसे लगातार बढ़ता जा रहा है.
इस प्रसंग में डराने वाली बात एक और है. जिन लेखकों-पत्रकारों को हम संजीदा लेखक-पत्रकार मानते रहे हैं, उनमें भी कई नसीरुद्दीन शाह को अगर पराया नहीं तो अविश्वसनीय बताने में जुटे हुए हैं. वे बस इतना सयानापन दिखा रहे हैं कि नसीर को सीधे-सीधे पाकिस्तान भेजने की वकालत किए बिना उन्हें चुनावी राजनीति के मोहरे की तरह पेश कर रहे हैं-जैसे नसीर ने
जान-बूझ कर चुनाव से पहले यह वक्तव्य दिया हो. जिम्मेदार पदों पर बैठे कुछ लोग ‘पुरस्कार वापसी गैंग’ से उनको जोड़ रहे हैं. कहने की ज़रूरत नहीं कि यह ‘पुरस्कार वापसी गैंग’ शब्द भी इसी विचारधारा का गढ़ा हुआ है जो लेखकों से उनकी विश्वसनीयता छीनने की कोशिश कर रहा है. इसका इस्तेमाल करने वाले पत्रकार और बुद्धिजीवी दरअसल अपनी बौद्धिक स्वायत्तता को, प्रतिरोध करने के अपने अधिकार को, और अपना पुरस्कार वापस करने की बहुत निजी कार्रवाई को भी संदिग्ध बनाने पर तुले हैं.
समझने की ज़रूरत यह है कि आज इनके निशाने पर नसीर हैं, कल बाकी लोग होंगे. जैसे बाज़ार सिर्फ मुनाफ़ा देखता है, जात-पांत नहीं, वैसे ही सत्ता प्रेरित कट्टरता भी सिर्फ़ सत्ता देखती है, मजहब नहीं. उसे अपने मक़सद में आड़े आने के लिए सुबोध कुमार को भी मारने में हिचक नहीं होती. वह हेमंत करकरे जैसे बहादुर अफ़सर पर भी सवाल खड़े कर सकती है जिसे अंततः मुंबई में आतंकी हमले में जान देकर अपनी देशभक्ति साबित करनी पड़ी. आज वे आमिर, हामिद अंसारी और नसीर के ख़िलाफ़ हैं क्योंकि इन्होंने उनकी असहिष्णुता की ओर इशारा भर किया है, कल इनके बनाए तौर-तरीक़ों का आप विरोध करेंगे तो ये आपके ख़िलाफ़ भी होंगे, आपके घर भी पत्थर फेंके जाएंगे. वे अंततः स्वतंत्र ढंग से विचार किए जाने के खिलाफ़ होंगे- वे चाहेंगे कि आप उनकी ही भाषा सीखें, बोलें और अपनी पीढ़ियों को सिखाएं- नफ़रत और अविश्वास की वह भाषा जो देश को अंततः छोटा बनाती चलती है. पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान के अनुभव इस मामले में हमारे बहुत काम आ सकते हैं. लेकिन जो पाकिस्तान जैसा हिंदुस्तान बनाने पर तुले हैं, वे इसकी परवाह क्यों करें.
(कवि, लेखक और पत्रकार प्रियदर्शन का यह लेख एडीटीवी ब्लॉग से साभार प्रकाशित ।)