काश विवेक की मौत की तरह एन्काउंटर के नाम पर हुई हत्याओं का दर्द भी आप महसूस कर पाते!



अशोक कुमार पाण्डेय

लखनऊ में हुई हत्या इनकाउंटर नहीं थी.

योगी जी ने खुल के कहा कि इनकाउंटर नहीं थी वह घटना. ज़रूरत पड़ी तो सीबीआई जाँच होगी. पुलिसवाला बर्ख़ास्त है. सारे देश में गुस्सा है. चैनलों पर पाकिस्तान पर हमले के अलावा बस इसी एक गुस्से का इज़हार है. ए फॉर एपल का मोबाइल सबके हाथों में एक रिवाल्वर बन गया है. संघी-दंगी-कांगी-वामी-रामी-जामी सबका दुःख एक है, सबका ग़म सच्चा है, सबके दिल में रोता हुआ एक बच्चा है.

हो भी क्यों न! वो उनका अपना है. अपने जैसा ही नाम. सवर्ण. उत्तर भारतीय. एप्प्प्पप्प्ल मोबाइल का मैनेज़र! सैमसंग एल जी विंडो गूगल मॉल शॉल डॉलर यूरो पोर्नो इरोटिका नए देश हैं. इनके नागरिक एक हैं. यही विश्व बंधुत्व है नया जिसके सामने राष्ट्रवाद की औक़ात दो कौड़ी की नहीं है. जिसके सामने राम अल्ला ईसा सब वीसा की चाहत में मीनार ए पीसा की तरह झुके रहते हैं. तो उनका दर्द ही दर्द है.

यही तिवारी जी फ्रॉम एपल, शुक्ला जी फ्रॉम सैमसंग लड्ढा जी फ्रॉम एल जी श्रीवास्तव जी फ्रॉम बिग बाज़ार पाण्डेय जी फ्रॉम पुलिस से लेकर दद्दन ठाकुर फ्रॉम देवरिया और संजू झा फ्रॉम पटना के स्वर में स्वर मिलाकर अख़लाक़ के हत्यारों के अकाउंट में सहायता भिजवाते हैं, आरक्षण पर सरकार की ऐसी तैसी कर डालते हैं, कश्मीर के एक एक बाशिंदे को मरवा देने की मांग करते हैं, सेना भवन के सामने नग्न होकर प्रदर्शन कर रही महिलाओं के स्तन ब्लर कर देने पर जोक्स लिखते हैं और जला कर मार दिए गए किसी दलित की ख़बर सामने आने पर चैनल बदलकर भाभी जी घर पर हैं देखने लगते हैं.

यही वह क्लास है जिसके सारे वास्तविक कंसर्न अपने दफ़्तर के दरवाज़े और सोसायटी की बाउंड्री तक ख़त्म हो जाते हैं और वर्चुअल कन्सर्न्स ने इस देश को बजबजाता क़ब्रिस्तान बना दिया है.

आप लोगों का ही प्रताप है कि इस देश में कोई इनकाउंटर इनकाउंटर नहीं होता. सब इसी घटना की तरह हत्या होते हैं. काश आप उनका भी दर्द महसूस करते तो आज विवेक ज़िंदा होते.

विवेक तिवारी के साले विष्णु शुक्ला ने कहा- ” लखनऊ कोई कश्मीर नहीं है कि किसी को भी मार दिया जाए.”

उनसे कहना चाहता था कि कश्मीरी औरतों के पति भी मनुष्य होते हैं और वे भी अपने बच्चों से बहुत प्यार करते हैं. उनकी त्वचा भी बहुत मुलायम होती है. उनकी हड्डियाँ भी जब टूट जाती हैं तो आँखों से आँसू निकलते हैं. वे भी जब रोती हैं तो आसमान काला पड़ जाता है. जब बाप मरता है तो वे बच्चे भी अनाथ हो जाते हैं. जब बलात्कार होता है तो उन औरतों की देह में भी कांटे उग आते हैं. उनका लहू भी जब धरती पर गिरता है तो थोड़ी देर के लिए धरती बंजर हो जाती है…

हाँ, वे बच्चियाँ मेरी बच्ची जैसी लगती हैं. विवेक का चेहरा मेरे भाइयों से मिलता है तो उसकी पत्नी मेरी किसी बहू सी प्यारी लगती है. लेकिन अख़लाक़ की बेटियों में अगर मैं अपनी बेटी नहीं ढूंढ सकता, उत्तरपूर्व की महिलाओं में अपनी बहन नहीं ढूंढ सकता, कश्मीरी औरतों की दर्द से भरी आँखों में अपनी प्रेमिका की आँखें नहीं तलाश सकता तो क्या मुझे वाकई कोई हक़ है दुखी होने का?

मैं चाहता हूँ बहन कि जो तुम्हारे साथ हुआ वह दुनिया में कभी किसी बहन के साथ न हो. हम ऐसा न चाह पाए तो इस आग को घर तक आने से कभी नहीं रोक पाएँगे.

आख़िरी बात – जानता हूँ कि विवेक तिवारी को न्याय मिल जाएगा, उनकी पत्नी को नौकरी और मुआवज़ा लेकिन संविधान तो आख़िरी आदमी/औरत तक न्याय पहुँचाने के लिए बना था न?

 

अशोक कुमार पाण्डेय प्रसिद्ध युवा कवि और लेखक हैं। हाल ही में उनकी किताब ‘कश्मीरनामा: इतिहास और समकाल’ काफ़ी चर्चित हुई है।