दक्षिणी कश्मीर के शोपियां जिले की तरफ जाते समय रास्ते में एक डरावना सन्नाटा छाया हुआ था, बस एकाध कुत्ता या कोई जानवर गुज़रते दिख जाता था। लेकिन यह खामोशी अचानक टूट गयी जब अर्धसैनिक बलों के उच्चाधिकारियों के हथियारों से लदे वाहनों का काफिला गुज़रा।जब यह ट्रक इन हिस्सों में दिखते हैं, बच्चे और युवक गायब हो जाते हैं।
हम शोपियां में 17 अक्टूबर को पहुंचे, सेबों के बागों के लिए मशहूर इस इलाके का एक स्थानीय निवासी हमें फिरदौस जान के घर ले गया, जिनके दो पोतों जुनैद (13) और अहमद (22) को अर्धसैनिक बलों ने 14 अक्टूबर को उठा लिया था। यह दोनों उन हज़ारों युवाओं और नाबालिगों में से हैं जिन्हें भारत सरकार के 5 अगस्त को क्षेत्र का विशेष स्वायत्त दर्जा छीनने के बाद क्रूर कार्रवाई के दौरान मनमाने तरीके से हिरासत में लिया गया है।
जान (92) ने अपने पोते जुनैद को बचाने की पूरी कोशिश की, जब 20 सीआरपीएफ जवान उसे घर के बाहर घसीटते हुए ले जा रहे थे और वह रो रहा था। जान ने उसे तब तक जाने नहीं दिया जब तक एक जवान ने डंडे से उन पर वार नहीं किया। जान ने बताया कि अर्धसैनिक बलों के सैकड़ों जवान गाँव में जबरन घुसे थे और युवाओं व बच्चों की धरपकड़ की। कुछ देर बाद बुज़ुर्गों के साथ वह उन्हें पीटने भी लगे और एक अप्रवासी मजदूर के सेबों के ट्रक को जलाने वाले मिलिटेंट का पता-ठिकाना पूछने लगे।
जान के पड़ोसी मोहम्मद युसूफ बट्ट, जिनके सेबों के बाग़ एकड़ों में फैले हुए हैं, आत्मघात की हद तक हताश थे। उसी रात उनका बेटा शिकिर अहमद बट्ट पुलिस स्टेशन गया था जलाए गए सेबों के ट्रक के बारे में पूछने। शोपियां पुलिस ने उसे हिरासत में ले लिया और उसके पिता को कहा कि उनके 30 वर्षीय बेटे पर पब्लिक सेफ्टी एक्ट लगाया जाएगा। इस कानून के तहत बिना मुक़दमे और प्रक्रिया के दो साल तक जेल में रखा जा सकता है। मोहम्मद ने मुझसे कहा, “उन्होंने मेरे इकलौते बेटे को छीन लिया है, मेरे सेब बागों में सड़ रहे हैं और वह हम पर उग्रवादियों को छिपाने का आरोप लगा रहे हैं। पहले उन्होंने हमारे अधिकार छीन लिए और अब हम पर उग्रवादियों को छिपाने का आरोप लगा रहे हैं।”
स्थानीय निवासियों के साक्षात्कारों के अनुसार 14 अक्टूबर को शोपियां से तीस नाबालिगों को उठाया गया।
गुलशन (50) शोपियां पुलिस थाने जाती रहीं, जहाँ उनके पति अपने दो बेटों रईस अहमद (11) और लियाकत अहमद (14) की रिहाई के लिए याचना कर रहे थे। दोनों श्रीनगर में एक स्कूल में पढ़ते हैं और सेबों की खेती के लिए परिवार की मदद करने आये थे। गुलशन ने कहा, “हम अपने बच्चों को सेबों के बाग़ में भेजने से डरने लगे हैं, सीआरपीएफ वाले वहीँ रहते हैं और हमारे बच्चों को देखते ही हिरासत में ले लेते हैं।” उन्हें नहीं पता कि किससे अधिक डरना चाहिए: उग्रवादियों से या सैन्य बलों से।
जब मैं परिवार के दावों की पुष्टि करने शोपियां पुलिस स्टेशन पहुंची, दूसरे नम्बर के अधिकारी नज़ीर अहमद ने बताया कि उन्हें गिरफ्तारियों के बारे में कुछ पता नहीं; उनका फ़ोन चार दिनों से काम नहीं कर रहा। उनके सहकर्मी मुस्कुराने लगे। थाने की दीवार पर उर्दू शायर अलामा इकबाल का शेर उकेरा हुआ था: “नहीं तेरा बसेरा कस्रे-सुल्तानी के गुम्बद पर, तू शाहीं है बसेरा कर पहाड़ों की चट्टानों पर।”
लगातार निगरानी और क्रूर दमन व मनमाने गिरफ्तारियों का सामना कर रहे कश्मीरी लगातार मातम में नज़र आते हैं।
डाउनटाउन श्रीनगर की सड़कों पर, कुछ परिवार अपने बच्चों की अनुपस्थिति का शोक मना रहे थे। 19 वर्षीय मुदस्सिर मजीद जो बिज़नस एडमिनिस्ट्रेशन की पढ़ाई कर रहा है, 4 अगस्त को अपने पिता, जो भेड़ों के व्यापारी हैं, की मदद करने आया था। अगली सुबह ही, वह जब ट्रक से भेड़ें उतारने में अपने पिता की मदद कर रहा था, अर्धसैनिक बलों ने उसे वैन में घसीट लिया। जब पिता पुलिस स्टेशन पहुंचे, उन्हें पब्लिक सेफ्टी एक्ट का हवाला देते हुए बताया गया कि उनके बेटे को उत्तर प्रदेश के जेल में भेज दिया गया है।
मुदस्सिर के पिता ने मुझे बताया, “मुझे डर है जब मेरा बेटा बाहर आएगा, कहीं वह उसे आतंकवादी न करार दे दें।”
श्रीनगर के सबसे बड़े सरकारी हॉस्पिटल की एक डॉक्टर नुसरत जहाँ ने बताया कि लगभग सारी आबादी डिप्रेशन/अवसाद से पीड़ित है। उन्होंने बताया, “मैं बाथरूम में रोया हूँ जब कैंसर मरीज़ दर्द के मारे चिल्ला रहे होते हैं और उनके दर्द को रोकने के लिए मॉर्फिन तक मौजूद नहीं होती। मैंने 10 वर्षीय बच्चों की पैलेट चोटों का उपचार किया है और यह ऐसा लगता है जैसे मैं अपने बेटे का ऑपरेशन कर रहा हूँ। हमारा आक्रोश अब छलक रहा है। मनोरोग वार्ड में जाकर देखें। मरीज़ ऐसी दवाएं मांगने लगे हैं जिससे उन्हें नींद में ही मौत आ जाए।”
19 अक्टूबर को मैंने श्रीनगर के खान्यार और रैनावारी का दौरा किया। यह इलाके विरोध प्रदर्शनों के लिए जाने जाते हैं और हर जगह मुझे बताया गया कि घर का कम से कम एक बच्चा हिरासत में है। रैनावारी के निवासी एक केमिस्ट मुबाशिर पीर ने मुझे बताया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संयुक्त राष्ट्र में भाषण देने के कुछ हफ़्तों बाद, 18 अक्टूबर की रात को 300 से अधिक बच्चों को उठाया गया।
उन्होंने मुझसे पूछा, “क्या आपके प्रधानमंत्री को हमारी परवाह है? उन्होंने शौचालय बनाने के बारे में बात की जबकि हम यहाँ खून के आंसू रो रहे हैं। कश्मीरियों ने जश्न मनाया जब (पाकिस्तानी प्रधानमंत्री) इमरान खान ने हमारे बारे में बात की क्योंकि कम से कम दिखावे के लिए ही सही, उन्हें हमारी परवाह तो है।”
मैं नेशनल कांफ्रेंस के एक वरिष्ठ सदस्य मोहम्मद शफी से भी बात कर पायी। इस राजनीतिक दल के नेता 5 अगस्त से नज़रबंद हैं। उन्होंने कहा, “कश्मीर में एक दिन यदि लोकतान्त्रिक प्रक्रिया बहाल हो भी जाए, हमारी पार्टियाँ कश्मीर के लोगों से क्या वायदा करेंगी? यह कि नयी दिल्ली उनकी तरफ से फैसले लेगी जबकि कश्मीरियों को भेड़ों की तरह ठूंस कर बंद कर दिया गया है। इस सरकार को देखिये, इसने कल एक 80 वर्षीय शिक्षक को गिरफ्तार कर लिया, जो सिर्फ एक प्लेकार्ड लेकर सड़क पर बैठी थीं।”
वह 18 महिला विद्वानों और कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी का ज़िक्र कर रहे थे जिनमें पूर्व मुख्य न्यायाधीश की पत्नी हवा बशीर शामिल थीं जो नागरिक अधिकारों वापसी की मांग के लिए श्रीनगर में धरने पर बैठी थीं। इन महिलाओं को, जिनमें पेसमेकर के साथ आई 82 वर्षीय शिक्षक शामिल थीं, जेल ले जाया गया और फिर एक दिन बाद इस शर्त पर छोड़ा गया कि वह न तो कोई विरोध प्रदर्शन करेंगी और न भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 के बारे में बोलेंगी जो जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा देता था।
यह सब जम्मू एवं कश्मीर में विक्षुब्ध ख़ामोशी की पुष्टि करता है। जब मैंने लोगों से पूछा कि वह काम पर क्यों नहीं जा रहे हैं, उनका जवाब था डर। एक सरकारी कर्मचारी ने मुझे बताया कि कश्मीरी अपने बच्चों को घरों से निकलने नहीं दे रहे।
उन्होंने कहा, “हमें डर है कि वह हमारे बच्चों को ले जायेंगे। मैं आपको बता सकता हूँ कि यह वही सर्वनाश है जिसका कश्मीर को डर था। हम यहाँ निर्जीव से हैं।”
उनका 18 वर्षीय भतीजा साकिब नज़ीर 174 पैलेट घावों, जिनमें चार दिल में हैं, के साथ अस्पताल में भर्ती है। उन्होंने बताया कि वह जीवन रक्षा प्रणाली पर है।
कश्मीरी भारतीय टीवी चैनल देखने से बच रहे हैं। “नॉर्मलसी” दर्शाती ख़बरें उन्हें गुस्से से भर देती हैं। मैंने इंडिया टुडे चैनल पर समाचार देखा जिसमें एक पत्रकार कश्मीर में शांति के नए युग की बात कर रहा था। (उसी पत्रकार को एक सप्ताह पहले अर्धसैनिक बल के एक सदस्य के नरसंहार की प्रवृत्ति वाले भाषण की तारीफ़ में आधे घंटे के कार्यक्रम की एंकरिंग के लिए ट्विटर पर निंदा हुई थी।) कश्मीरी रेडियो केवल गीत बजाता है, 5 अगस्त से उद्घोषक एयर पर नहीं हैं। अखबार सम्पादकीय नहीं छाप रहे- केवल ख़बरों का सरकारी संस्करण छप रहा है।
जब मैं यह लिख रही थी, “बॉयकॉट ऑल मुस्लिम्स” (“सभी मुस्लिमों का बहिष्कार करो”) भारतीय ट्विटर पर ट्रेंड कर रहा था। अधिकांश ट्वीट को मोदी और उनके मंत्रियों के अनुयायियों से बढ़ावा मिल रहा था। कुछ मुस्लिमों के नरसंहार के लिए कह रहे थे, कुछ कश्मीरियों के खून की मांग कर रहे थे।
मुझे डॉक्टर नुसरत जहाँ के शब्द याद आ रहे थे। जल्द ही सभी कश्मीरी या तो जेल में होंगे या मानसिक चिकित्सालयों में।
दुनिया की उदासीनता- और कई भारतीयों की उदासीनता – भय, ख़ामोशी और दमन के माहौल को बढ़ा ही रही है जैसा इस क्षेत्र ने दशकों में नहीं देखा होगा।
पर यही समय है कि इसका संज्ञान लिया जाए। मंगलवार को, दक्षिण एशिया में मानवाधिकारों पर अमेरिकी संसद की सुनवाई के दौरान प्रतिभागियों ने कश्मीर में भारत की कारवाई को उल्लेखित किया। एमनेस्टी इंटरनेशनल के एशिया पसिफ़िक एडवोकेसी मेनेजर फ्रांसिस्को बेन्कोसम ने कहा कि उनकी संस्था 5 अगस्त से पहले और बाद में असहमति की राय रखने वाले किसी भी व्यक्ति, कार्यकर्ताओं और राजनीतिज्ञों की प्रशासनिक हिरासत के इस्तेमाल के अधिकारियों की प्रणाली को डॉक्यूमेंट कर रहा है।
हम में से और ज़्यादा लोगों को बोलना होगा। दुनिया को कश्मीर की बहरा कर देने वाली इस ख़ामोशी को सुनना होगा। सामरिक रिश्तों के कारण आँख फेर लेना विकल्प नहीं है। कश्मीर और उसके बच्चे न्याय की राह तक रहे हैं।
राणा अयूब का यह लेख द वाशिंगटन पोस्ट में 23 अक्टूबर 2019 को प्रकाशित हुआ था। उनकी अनुमति से इसका अनुवाद कश्मीर खबर ने किया है। कश्मीर ख़बर एक कोशिश है कश्मीर से आने वाली विश्वसनीय खबरों और विचारों को हिंदी भाषा में आप तक पहुंचाने की, हर क़िस्म के दुष्प्रचार और झूठ से हट कर। इसे यहां फॉलो करें।